उमेश द्विवेदी
कई बार जब चैनलों ( एन डी टी वी हिंदी छोड़ कर ) पर हम समाचार सुनते है और क्लिपिंग / भाषा पढ़ कर और सुन कर ऐसा नहीं लगता की ड्राफ्ट पीएमओ/ भारतीय जनता पार्टी कार्यालय अशोका रोड से बन कर आया हो। ९० के दशक में ” दूरदर्शन ” पर ऐसा माना जाता था ,लेकिन वो सरकारी चैनल था। पर यहाँ तो ९० % प्रतिशत प्राइवेट चैनल केवल और केवल सरकारी गुणगान में लगे है।
मनमोहन अपने साथ अखबारों के पत्रकार /संपादक चैनलो के मालिको को अपने हवाई जहाज़ में साथ ले जाते थे विदेश यात्राओं पर उसके बावजूद उन यात्राओं को इतना कवरेज नहीं मिलता था उलटी आलोचना होती थी। यहाँ तो ये साथ नहीं ले जाते है फटकने भी नहीं देते है अपने पास उसके बावजूद एक तरफ़ा समाचार।
जरूरत क्या है चैनल के मालिक अगल / बगल बैठते है तो पत्रकारों की क्या जरुरत है उन्हें निर्देश मिल जाते है ड्राफ्ट मिल जाता होगा क्या बोलना है क्या पढ़ना है।
आज तो हद होगयी समाचार पत्रों ने खबर छापी की ” मोदी ने ऑस्ट्रेलिया में गांधी का मान बढ़ाया ” … गांधी का मान इतना कम होगया है की मान बढ़ाना पड़े ? संपादको को कुछ तो सोचना चाहिए।
सभी की सभी खबरे केवल प्रायोजित है। अब तो ऐसे लगने लगा है जैसे रात में ११ बजे बाद सभी चैनल पर ” ओन लाइन प्रोडक्ट सेल ” के विज्ञापन आते है दिन में ” ओन लाइन प्रायोजित खबरे ” चलती है। कोई अंत है ?
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