अभिषेक श्रीवास्तव
क्या सस्ता हुआ और क्या महंगा, यह बात उनसे सरोकार रखती है जो बाज़ार में खरीदने-बेचने के वास्ते खड़े हैं। बोले तो, मध्यवर्ग समेत उसके कुछ नीचे और कुछ ऊपर तक के लोग। बजट हालांकि सस्ते-महंगे के हिसाब से आगे की व्यापक चीज़ होना चाहिए। अब इसे कौन समझाए कि बजट में दरअसल है क्या? अंग्रेज़ी में अर्थशास्त्र को जानने-समझने वाले लोग पर्याप्त हैं, लेकिन उनका पाला तय है। वे सेंसेक्स, कारोबार, निर्यात, एफडीआइ आदि के दायरे में सोचने के आदी हैं। हिंदी वाले, जो अब भी जनता, मजदूर, किसान आदि की बात गाहे-बगाहे कर लेते हैं, अर्थशास्त्र के मामले में जबरदस्त दरिद्र हैं। इसलिए वे मध्यवर्गीय उपभोक्ता के हितों से आगे नहीं बढ़ पाते हैं। गिरीश मिश्र और कमल नयन काबरा जैसे एकाध दुर्लभ लोगों को अब न तो अखबार पूछते हैं, न टीवी।
नतीजतन, हिंदी में बहुरूपियों की एक ऐसी खेप पैदा हुई है जो बजट के दिन स्वयंभू अर्थशास्त्री बन जाते हैं। टीवी देखिए, सब फर्जी ज्ञानी बैठे हुए हैं। रात में भी रहेंगे। बाकी के दिनों में ये ही चेहरे आपको राजनीति, संस्कृति, भाषा, आंदोलन, आदि के स्वयंभू विशेषज्ञ नज़र आएंगे। कुल जमा ये, कि अलग-अलग विषयों पर ज्ञान देकर बस इनका लिफाफा मोटा होता जाता है।
बजट को समझना है तो अंग्रेज़ी सीखें, अर्थशास्त्र सीखें और खुद बजट दस्तावेज़ पढने का साहस करें। नहीं भी करेंगे तो कोई नुकसान नहीं होगा, लेकिन बजट को हिंदी अखबारों के एडिट पेज और हिंदी चैनलों से समझेंगे तो मारे जाएंगे।
विनीत कुमार
लगभग सारे चैनलों पर बड़ी-बड़ी कंपनियों के md,ceo को मार्केट एक्सपर्ट के रूप में परिचय कराते हुये पैनल में सजा दिया गया है,जिनमे रिलायंस इंडस्ट्रीज के अधिकारी अनिवार्य रूप से हैं, ये बाज़ार विशेषज्ञ बनकर जनमत बना रहे हैं..बाकी बचे चैनलों के एंकर महंगे एम्पोरियम, जूलरी शॉप, मॉल में खासतौर से महिलाओं को जमा करके रिंग से लेकर चुन्नू-मुन्नू की हेल्थ ड्रिंक में उलझाये हैं..किचन की शक्ल कैसी होगी, यहाँ आकर बजट सिमट जाता है..बाकी fdi, कॉर्पोरेट के जबड़े मज़बूत होने के सवाल गये तेल्हंडे में..देश के सारे अर्थशास्त्री दाल-भात के साथ माल्दह आम खाकर दोपहर की नींद के लिये इत्मीनान से छोड़ दिये गये हैं..उनकी हाजिरी नरेन्द्र मोदी की नीति के क़दमों में लोटनेवाले राहुल देव जैसे भूत पूर्व संपादकों से काम चलाया जा रहा है..
(स्रोत-एफबी)