इश्क, व्यापार और राजनीति में जो होता है, वह सब जायज माना जाता है। लेकिन राजनीति जब खोई हुई सत्ता पाने की हो रही हो, तब तो फिर, जो हो रहा है, उसे आंख मूंदकर जायज मानने के अलावा और किसी के पास और कोई चारा ही नहीं होता। सो, राजस्थान में श्रीमती वसुंधरा राजे जो कुछ भी कर रही है, वह जायज ही है, यह मानने में बुराई क्या है।
बात इश्क, व्यापार और राजनीति के ताल मेल की थी। अपन नहीं जानते कि श्रीमती वसुंधरा राजे को अपने जीवन में कभी इश्क करने की फुरसत मिली या नहीं। अपन यह भी नहीं जानते कि उन्होंने कभी कोई व्यापार भी किया या नहीं। मगर जितना अपन उनको जानते हैं, उसके हिसाब से इतना जरूर जानते हैं कि श्रीमती राजे ने इश्क किया तो वह भी सिर्फ राजनीति से किया, और व्यापार किया तो वह भी राजनीति का ही। मतलब साफ है कि अपने इस राजनीतिक इश्क को सफलता के मुकाम पर पहुंचाने के लिए राजनीति भी व्यापार की ही की। इश्क, व्यापार और राजनीति का यह अगड़म – बगड़म क्या आपसी समझ में आया? नहीं आया ना। आएगा भी कैसे। यह अजब का तालमेल और गजब का घालमेल जब अपनी समझ में भी आसानी नहीं आया, राजनीति के बड़े बड़े पंडितों के भी पल्ले नहीं पड़ा, तो आपकी समझ में कैसे आएगा। लेकिन राजस्थान में चुनाव जैसे जैसे नजदीक आने लगे हैं, राजनीति के इस घालमेल को श्रीमती वसुंधरा राजे ज्यादा गजब से निभाने लगी है।
खंडहर महल लगने लगे हैं और राजस्थान बीजेपी के परिदृश्य में इसीलिए परिवर्तन दिख रहा है। श्रीमती राजे अब उन सबको गले लगाने को बेताब हैं, जिनको कभी वह फूटी आंख भी देखना नहीं चाहती थी। पिछले दिनों श्रीमती राजे स्वर्गीय भैरोंसिंह शेखावत की पत्नी श्रीमती सूरज कंवर के घर गई। श्रीमती राजे ने सूरज कंवर से बहुत सारी बातें की और हालचाल पूछा। सर झुकाकर प्रणाम करते हुए आशीर्वाद भी लिया। यह वही वसुंधरा राजे हैं, जिन्होंने राजस्थान के सिंह कहलाने वाले भैरोंसिंह शेखावत को अपने प्रदेश में ही बेगाना करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
स्वर्गीय शेखावत राजस्थान में विपक्ष के नेता की अपनी गद्दी वसुंधरा राजे को सौंपकर दिल्ली गए थे। लेकिन वसुंधरा राजे ने राज शिष्टाचार की वह व्यावहारिक परंपरा भी नहीं निभाई, जिसमें देश के राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति को पूरे कार्यकाल में अधिकारिक रूप से हर प्रदेश में कमसे कम एक बार तो आमंत्रित किया ही जाता है। अपन शेखावत के उपराष्ट्रपति के कार्यकाल में लेंबे वक्त तक उनके साथ रहे हैं। सो, इतना तो जानते ही हैं कि श्रीमती राजे यह नहीं चाहतीं थीं कि उपराष्ट्रपति के पद से रिटायर होने के बाद शेखावत फिर से राजस्थान में अपनी राजनीतिक पकड़ गहरी करें। जो लोग थोड़ी बहुत राजनीति समझते हैं, उनको यह भी अच्छी तरह से पता है कि वसुंधरा राजे अपने कार्यकाल में इतनी आक्रामक हो गई थीं कि बीजेपी के बहुत सारे लोग शेखावत की परछाई से भी परहेज करने लगे थे। वजह यही थी कहीं मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे नाराज न हो जाएं।
वैसे, शेखावत ही नहीं, बीजेपी के और भी ऐसे कई नेता हैं, जो वरिष्ठ हैं, पर उनको श्रीमती राजे ने खंडहर तक कहा और ठिकाने लगाने की सारी कोशिशों कीं। मगर अब जब चुनाव सर पर हैं। बीजेपी में बहुत सारी बुरी बातों के बुलबुले बवाल बनकर बरसने को तैयार हैं, तो श्रीमती वसुंधरा राजे बहुत ही विनम्र भाव से उन्हीं खंडहरों में अपनी जीत की उम्मीदों का आशियाना तलाश रही है। पिछले दिनों वे इसी सिलसिले में बीजेपी के पूर्व उपमुख्यमंत्री हरिशंकर भाभड़ा और वरिष्ठ नेता ललित किशोर चतुर्वेदी जैसे दिग्गजों की देखभाल करने भी गईं। वैसे, श्रीमती राजे खंडहरों की उस अलग किस्म की मजबूरी को भी अच्छी तरह से जानती हैं कि खंडहर भी तो अपनी भूली बिसरी प्रतिष्ठा को फिर से पाने की आस में बैठे होते हैं। राजनीति के इश्क में डूबी श्रीमती राजे इसीलिए खंडहरों को महलों जैसा सम्मान देने का व्यापार करने में जुटी हैं। (लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)