अखिलेश कुमार
अस्सी के दशक में दो मुख्यमंत्री बिन्देश्वरी दूबे और भागवत झा आजाद ने विपक्ष का विधायक रहने के बावजूद नीतीश कुमार की प्रशंसा करते हुए उनको आसमान की ऊंचाई छूने की बात कही थी। चौथी बार मुख्यमंत्री बने नीतीश कहां तक कामयाब हुए हैं, ये तो आगामी चुनाव में स्पष्ट रुप से पता चल जाएगा लेकिन नीतीश सरकार की विकास मॉडल की आलोचना करते समय भाजपा यह भूल जाती है कि वह भी कभी इनका हिस्सा रही है। आलोचना के मूल मुद्दे को छोड़कर शॉर्ट-कॉट अपनाने की आदत ने भाजपा को दो राहे पर लाकर छोड़ दिया है। उल्लेखनीय है कि बिहार विधानसभा चुनाव होने में महज कुछ ही महीने शेष हैं लेकिन प्रदेश की सियासत में चुनावी सरगर्मियां इतनी तेज हो चुकी है कि मानो चुनाव कल ही होने वाला है। अन्य पार्टियों को पीछे छोड़कर चुनावी ओलंपिक दौर के लिए भाजपा चारों तरफ से आगे निकलना चाह रही थी। इस बीच मांझी प्रक्ररण ने भाजपा को डाकबांगला चौराहे से उठाकर गांधी सेतू पूल पर लटका कर छोड़ दिया है। दरअसल पार्टी में अंदरुनी कलह से त्रस्त भाजपा ने मांझी के नाव पर सवार होकर चुनावी वैतरणी पार करने की जिद्द पाल बैठी है लेकिन नेतृत्वविहीन क्षमता के अभाव में मांझी, भाजपा की लिखी स्क्रीप्ट के अनुसार कहानी में पूरी तरह ट्वीस्ट देने में नाकाम रहे। भाजपा ने सही रास्ता न अपनाकर मांझी के सहारे बिहार में दलित-पिछड़ों वोटों को अपने पक्ष में शेयर बाजार की तरह रातों-रात उछाल लाना चाह रही थी। बहरहाल ये बात सबको पता है कि मांझी और अवसरवादी राजनेता रामबिलास पासवान के इर्द-गिर्द दलित-पिछड़ों के वोटो का ध्रुवीकरण की स्क्रीप्ट में भाजपा अभी भी अपनी भलाई समझ रही है। अब सवाल है कि बीते दिनों बिहार में राजनीतिक हालात बदले-बदले से लग रहे हैं यानि लोगो में राजनीतिक जागरुकता बढ़ी है। प्रदेश में सूदुर गांव के लोग भी इस पूरे मेलोड्रामा को देख रहे थे। इतना ही नहीं पार्टी में मांझी को लेकर भी विरोध चल रहा है जिसे विकलांग मोदी मीडिया नहीं कह पा रही है।
बहरहाल प्रदेश की सियासत में भाजपा का दलित प्रेम जगजाहिर रहा है। मांझी की आड़ में भाजपा ने जो कुछ भी किया वो पहली दफा नहीं हुआ है। लगभग 28 साल पूर्व तत्कालीन मुख्यमंत्री भागवत झा को कांग्रेस के असंतुष्ट विधायकों ने टोपी अभियान चलाकर पदमुक्त करार दिया था। ऐसा कहा जाता है कि मांझी के तरह ही भागवत झा अपनी राजनीतिक महतवकांक्षा के शिकार हुए थे। साल 1988 में अराजपत्रित कर्मचारी महासंघ के साथ पटना में हड़ताल में शामिल सेविकाओं को तत्काल मुख्यमंत्री भागवत झा आजाद ने सरकारीकरण का आश्वासन दिया था जो आज तक पूरा न हो सका। ठीक उसी प्रकार मांझी आनन-फानन में सैकड़ों वादें कर दिए जिसे पूरा करना कठिन ही नहीं फिलहाल नामुंकिन है। क्योंकि आर्थिक रुप से पिछड़ा बिहार शिक्षकों के वेतन विलंब से देने में असमर्थता दिखा रहा है। अब जरा गौर कीजिए हाल ही में पटना में कर्पूरी ठाकुर की जयंति मनाई गई थी जिसमें भाजपा के राष्ट्रीय आलाकामान ने कर्पूरी का कर्पूरगौरंव करुणावंतारं टाईप की जयंति मनाई। दूसरी तरफ राजनीति संस्मरण कहता है कि 1977 में कर्पूरी ठाकूर की सरकार गिराने में भाजपा ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। भाजपा ने हमेशा की तरह क्षणभंगुर राजनीतिक स्वार्थ के लिए कर्पूरी के बदले रामसुंदर दास को आगे किया था। जरा सोचिए कर्पूरी ठाकुर, लोहिया और जेपी की जिस समाजवादी आंदोलनों को आगे बढ़ाने में अंत तक लगे रहे, भाजपा के एंजेडे में उसके प्रति कभी दिखावाटी सुहानूभूति भी नहीं रही है। तथ्यों को बारिकी से आप परखने की कोशिश करेंगे तो सच्चाई सामने आ जाएगी। पूरी की पूरी कवायद, रास्ते से भटके हुए अवसरवादी नेता रामविलास पासवान और मांझी के कंधे पर सवार होकर भाजपा दलित-पिछड़ों के बड़े वोट बैंक में सेंध लगाने की तैयारी में थी जो फिलहाल कामयाब होता नहीं दिख रहा है। जिस मोदी मैजिक के सहारे पासवान अच्छे दिनों की आस में लोगों को कालाधन से लेकर मुंगेरी लाल के हसीन सपनों के सब्जबाग को दिखाकर फिर से मंत्रिमंडल में जगह पाने में सफल रहे, अब किस मुंह से लोगो को बरगलाएंगे। हल जोतने वाले मजदूर से लेकर रिक्शा चलाने वाले लोग भी पासवान की राजनीतिक अवसरवादिता को पूरी तरह समझ चुके हैं। मोदी-मोदी का ढ़ोल फट चुका है। लोग समझ चुके हैं कि मोदी सरकार ठीक यूपीए सरकार की फोटोकॉपी है।
बहरहाल इसमे कोई दो राय नहीं है कि बिहार की सियासी गणित में अगड़ी जाति का वोट भाजपा के साथ रहा है वहीं, 1990 के दशक में आई मंडल कमीशन ने वर्षों से राजनीति में हाशिएं पर रहे पिछड़ों को राजनीतिक जागरुकता दी और वे राजनीति के मुख्यधारा में हीं नहीं आए बल्कि सियासत की सीढ़ी पिछड़ा वोट बैंक बना। याद कीजिए मंडल कमीशन वाले एपीसोड में भाजपा के समर्थन वापस करने से ही केंद्र में वीपी सिंह की सरकार गिरी थी। मंडल राजनीति के नायकों में लालू प्रसाद और नीतीश कुमार प्रभावशाली साबित हुए। यादव-मुस्लिम समाज पर लालू प्रसाद का असर है तो अति पिछड़ा समाज का बहुमत नीतीश कुमार के साथ जबकि वैश्य समाज हमेशा तौर पर भाजपा के साथ ही रही है। जातीय समीकरण में भाजपा चारों तरफ से गोटी लाल करने के लिए पहले ही चाल चल चुकी थी। राजनीति के अस्थिर हीरो रालोसपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा भले ही मोदी मैजिक के सहारे तीन सीटों के सहारे मोदी मंत्रिमंडल में जगह पाने में सफल रहे, उसकी एक ही वजह थी आगामी विधानसभा चुनाव में बिहार में कुशवाहा के बड़े वोट बैंक पर कब्जा करना। अब सवाल है कि जिस मंशा को लेकर उपेंद्र कुशवाहा को मोदी मंत्रिमंडल में जगह दी गई थी, क्या वो फर्मूला कामयाब हो पाएगा क्योंकि कभी नीतीश के करीबी रहे कुशवाहा को कुशवाहा के गढ़ दलसिंह सराय विधानसभा क्षेत्र में उन्हें करारी हार का सामना करना पड़ा था। इतना ही नहीं भाजपा के लिए अपने सहयोगी दलों में सीटों का बंटवाड़ा गले की हड्डी सबित हो सकता है। लोजपा की मांग 65-70 सीटों की हो सकती है। रालोसपा 35-40 सीटों पर दावा करने की अप्रत्यक्ष रुप से कर चुकी है। दुसरी तरफ विधानसभी की 243 सीटों में भाजपा और उनके सभी सहयोगी दलों के बीच मांझी गुट का ‘’हम’’ भी आ गया है। लिहाजा मामला गंभीर बनता दिख रहा है। सूत्रों के हवाले से खबर मिली है कि भाजपा किसी भी कीमत पर 180 सीटों से कम पर चुनाव नहीं लड़ना लड़ेगी। भाजपा मांझी की डुबे नाव को अभी भी नहीं छोड़ना चाह रही है जो उसके हार का सबब होगा।
(लेखक युवा पत्रकार हैं)