निमिष कुमार

सलमा जैदी बीबीसी हिन्दी सेवा का ऐसा नाम था, जो किसी पहचान का मोहताज ना था । सलमा जी बीबीसी के उन दिनों की जर्नलिस्ट थी, जब बीबीसी हिन्दी का हेडक्वार्टर लंदन के बुश हाउस में हुआ करता था, और पूरा भारत, खासकर हिन्दी बेल्ट बीबीसी हिन्दी से दिन की शुरुआत और दिन को आखिरी सलाम करता था। सलमा जैदी उन दिनों के श्रोताओं के लिए एक जाना पहचाना नाम, एक जानी पहचानी आवाज़ थी।
सलमा जी को पहले पहल सीधे तौर पर जानने का मौका उन दिनों मिला जब वो नए नए शुरु हुए बीबीसी ऑनलाइन की संपादक बनी। ये उन दिनों की बात थी, जब इंटरनेट किस चिड़िया का नाम है, देश का एक फीसदी भी नहीं जानता था। ऐसे वक्त में हिन्दी में ऑनलाइन न्यूज़ को लेकर जागरुकता लाने के लिए सलमा जैदी जी ने देश में अपनी हिन्दी भाषा के लिए सम्मानित अखबार नईदुनिया के ऑनलाइन प्रयास ‘वेबदुनिया’ के साथ एक नया प्रयोग शुरु किया। वेबदुनिया के संपादक जयदीप कर्णिक और बीबीसी हिन्दी ऑनलाइन की संपादक सलमा जैदी की जुगल जोड़ी ने देश के कई विश्वविद्यालयों में हिन्दी पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए कार्यशाला आयोजित करना शुरु की। ये वो वक्त था, जब टीवी न्यूज़ चैनल अपने शुरुआती दौर में थे। ऐसे में ऑनलााइन की बात ना तो कोई कर रहा था, ना करना चाह रहा था, शायद उसे लेकर ना तो मीडिया मालिकों में ना तत्कालीन संपादकों में वो समझ आ पाई थी। इसीलिए सलमाजी के वेबदुनिया के साथ उस प्रयास को उनके समकालीनों ने महज एक कोशिश कह खूब नकारा। लेकिन हिन्दी पत्रकारिता के छात्रों के लिए वो एक जैकपॉट जैसा था। इस पूरी कवायद ने सलमाजी को वो दिया जो वो हमेशा चाहती थी- नई पीढ़ी के पत्रकारों से सीधा संवाद। और इस सब को करते वक्त सलमाजी की एनर्जी देखते बनती थी।
लेकिन प्रोफेशनल लाइफ के दांवपेंच के खेल अभी बाकी थे। रेडियो से ऑनलाइन में भेजे जाने पर सलमाजी का सफल होना, और खासतौर पर खुश रहना शायद कई लोगों को नागवार गुजर रहा था, इसीलिए सोलह साल की एक लंबी शानदार पारी के बाद सलमा जी को बीबीसी हिन्दी सेवा को अलविदा कहना पड़ा, जो वो ताउम्र नही चाहती थी। यही वो एक झटका था, जो सलमा जी सहन नहीं कर सकीं। सलमा जी के साथी और सलमाजी से जुड़े हम जैसे कई लोगों ने यह महसूस किया कि बीबीसी हिन्दी सेवा छोड़ने के बाद सलमा जी टूट-सी गई थी। बीबीसी हिन्दी दरअसल सलमाजी की जिंदगी का हिस्सा बन चुका था, और उससे बिछोह सलमाजी दिल से स्वीकार नहीं कर पा रही थी।
आज भी याद है, जब जून,2012 में मीडिया खबर के मीडिया कॉनक्लेव में ऑनलाइन मीडिया को लेकर हुए सत्र में सलमाजी ने शिरकत की थी। वो हम जैसे नए नवेले युवा ऑनलाइन एडिटर्स से मिलकर बहुत खुश हुई थीं। ढेरों बातें हुई। तब सलमाजी बीबीसी हिन्दी सेवा छोड़ चुकी थी । लेकिन देश के मीडिया का दुर्भाग्य कि सलमा जी जैसी हिन्दी ऑनलाइन की पहली पहल महिला संपादक के लिए कोई सम्मानजनक चुनौती नहीं थी। शायद भारतीय मीडिया कंपनियों को सलमाजी जैसी संपादक को समझ ही नहीं पा रही थीं। उनका वो वाक्य – ‘निमिष, अब ये वक्त आप जैसे युवाओं का है। हमारा वक्त अब गुजर चुका। लेकिन वो वक्त भी एक शानदार वक्त था’, कानों में गूंजता है।
जब बीबीसी प्रबंधन ने लंदन में अपनी पहचान बन चुके बुश हाउस को छोड़ने का फैसला किया तो सलमा जी से मैने उस पर एक लेख की गुजारिश की। बातों के दौरान सलमाजी भावुक हो गईं। लगा बुश हाउस सलमाजी के लिए किसी कंपनी का हेडक्वार्टर नहीं, ज़िंदगी का एक हिस्सा हो गया था। उन्होंने लेख और बुश हाउस छोड़ते वक्त का अपना एक फोटो भेजा। चेहरा पढ़िए, तो जानेंगें कि बीबीसी हिन्दी सेवा, लंदन हेडक्वार्टर, बुश हाउस और भारत में बीबीसी हिन्दी सेवा के अनगिनत चाहने वाले, सलमाजी का अपने इस परिवार से बिछोह साफ दिखता था।
ये ज़िंदगी का सच है । हमारे -आपके बीच कई ऐसी शख्सियतें हैं, जो ज़िंदगी को एक सीधी रेखा के समान जीती हैं। कोई घुमाव नहीं, कोई दुराव नहीं , कोई छुपाव नहीं। एक सरल रेखा -सी ज़िंदगी। लेकिन जब उस सरल रेखा-सी ज़िंदगी में घुमाव आते हैं, तो वो तान, वो सुर, वो पहचान नहीं रह पाती, और ऐसी ज़िंदगियां ऐसे बेरहम बदलावों को स्वीकार नहीं कर पाती। क्योंकि कुछ लोग ज़िंदगी एक सीधी रेखा-सी जीना पसंद करते हैं, घुमावदार नहीं।
मालूम नहीं वो क्या कारण थे, वो क्या समीकरण थे, जिन्होंने सलमा जैदी जी की उस सरल रेखा-सी जिंदगी को सरल नहीं रहने दिया। लेकिन उसका खामियाज़ा आज हम सब भुगत रहे हैं, सलमाजी को खोकर। सलमा जी का जाना बहुत जल्दी था। मालूम नहीं क्यों मन कहता है कि यदि वो बीबीसी हिन्दी सेवा में रहती, तो खुदा से लड़ जाती। एक सरल रेखा-सी ज़िंदगी को आखिरी सलाम।