दिल्ली में एक महिला के साथ दुष्कर्म हुआ तो देश हिल गया. लेकिन हकीकत है कि महिलाओं के साथ दिल्ली में आये दिन दुर्व्यवहार होते रहता है और उसकी सुनवाई कहीं नहीं होती. मनचले अपनी हरकतों से बाज नहीं आते और उन्हें जहाँ मौका मिलता है वहीं महिलाओं के साथ छेड़खानी और बदतमीजी करने लग जाते हैं. कामकाजी महिलाएं जिन्हें घर से अपने काम के लिए निकलना होता है उनके लिए मुसीबत ज्यादा होती है और वही ऐसे मनचलों का ज्यादा शिकार भी बनती है. उनकी फब्तियां सुनती हैं और कई बार वहशी दरिंदों के चंगुल में फंस भी जाती हैं. हरेक महिला को ऐसे मनचलों से कभी -न- कभी पाला जरूर पड़ता है. पत्रकारिता नौ बजे से पांच बजे की नौकरी नहीं है, सो महिला पत्रकारों को भी कई दफे मनचलों से आमना – सामना होता ही है. ऐसे ही कुछ अनुभव बीबीसी की पांच महिला पत्रकार साझा कर रही हैं.
शिल्पा कन्नन-
जहां ये घटना हुई है उसी रास्ते की बात है. मैं अपने पति के साथ बाइक पर जा रही थी. पीछे से दो लड़के आए स्कूटर पर और मेरी बांहों पर चिकोटी काटी. चलती बाइक में. हम लोग गिरते गिरते बचे. फिर थोड़ी ही दूर पर वो स्कूटर वाले रुके. हम पर हंसे और आगे निकल गए.
ये शाम पांच-छह की बात है. हम थाने में गए तो पुलिस ने केस लिखने से मना किया. फिर हमने कई लोगों से कहा तो केस हुआ. उन लड़कों को गिरफ्तार किया गया लेकिन पुलिस ने कहा देख लीजिए छेड़छाड़ के मामले में 50-200 रुपए का जुर्माना है. और आपको हर दिन कोर्ट में आना पड़ेगा इसलिए मैं इसको थप्पड़ मार के छोड़ देता हूं.
और भी अनुभव हैं लेकिन जब लोग कहते हैं कि महिलाओं को लड़ना चाहिए तो लड़ने का परिणाम भी कोई बहुत अच्छा होता नहीं है यहां.
दिव्या शर्मा-
मुझे नहीं लगता कि दिल्ली सुरक्षित है महिलाओं के लिए जबकि मैं काफी समय से दिल्ली में रह रही हूं. जब मैं कॉलेज में थी तभी ऐसा बुरा अनुभव हुआ कि मैंने बसों में चलना ही छोड़ दिया. ऑटो में भी डर तो लगता ही है.
हुआ ये कि मैं ब्लू लाइन बस में बैठी थी और पीछे से कोई बार बार मेरे बाल खींच रहा था. मेरे बाल तब छोटे थे. जब दो तीन बार बाल खींचे गए तो मैंने पीछे मुड़ कर घूर कर देखा. मुझे हिम्मत नहीं थी कि मैं कुछ कहूं लेकिन मैंने कोशिश की कि इसे रोका जाए.
पीछे बैठे आदमी ने कहा कि आपके बाल में कुछ लगा है. कुछ नहीं था बाल में. ये बस मुझे छेड़ने की कोशिश थी. मैं छोटी थी उस समय और इस हादसे ने मुझे इतना अंदर से डरा दिया कि मैं अब भी बस में सफर नहीं करती हूं.
आरती शुक्ला-
मेरा दिल्ली का कोई ऐसा ख़राब अनुभव नहीं है लेकिन दिल्ली में महिला होने का एक अपना साइकोलॉजिकल प्रभाव है. मैं कुछ समय पहले पुणे गई थी. वहां दोस्तों ने कहा कि चलो नाइट शो फिल्म देखने चलते हैं. मैं राज़ी ही नहीं हो रही थी कि आप कैसे नाइट शो जा सकते हैं. सुरक्षित नहीं है क्योंकि मेरे दिमाग में दिल्ली का माहौल था.
पुणे में हम गए नाइट शो देखने फिर ऑटो से वापस लौटे और पुणे के दोस्त मुझ पर हंस रहे थे. मेरी ढाई साल की बेटी है. छोटी है लेकिन मैं उसकी सुरक्षा को लेकर पागलपन की हद तक परेशान रहती हूं क्योंकि जो आसपास होता है सुनते हैं उसका असर तो पड़ता है न.
नौशीन-
मुझे पता है कि मैं विदेशी हूं तो थोड़ी परेशानी ज्यादा हो सकती है लेकिन ऐसा होगा सोचा नहीं था. मैं मेट्रो से उतर कर सुबह के आठ बजे रिक्शा से कहीं जा रही थी. पीछे से बाइक पर सवार दो लोग आए और मेरा बैग छीन कर भाग गए. मैंने पुलिस को फोन किया. थाने भी गई लेकिन बैग तो नहीं ही मिला. तब से मैं बहुत डर गई.
मेट्रो में भी चलती हूं तो महिला वाले डिब्बे में. फिर भी लोग घूरते हैं मानो कपड़े के अंदर देख लेंगे आपको. आप कुछ भी पहनें उन्हें फर्क नहीं पड़ता. अंधेरा होने के बाद मैं बहुत सतर्क हो जाती हूं. आस पास देखते हुए आती हूं कि कहीं कुछ हो न जाए. डर तो लगता है इस शहर में रहने में.
स्वाति अर्जुन-
मैं किसी काम से दक्षिणी दिल्ली के मूलचंद गई थी.लौटते-लौटते शाम हो गई थी. मैंने एक ऑटोरिक्शा लिया और उसपर सवार हो गई.चूंकि रास्ता जाना-पहचाना था इसलिए मैंने ऑटो वाले को मेडिकल फ्लाईओवर से बाएं कट लेने को कहा, लेकिन उसने मेरी बात को अनसुना कर टेपरिकॉर्डर और तेज़ कर दिया और ऑटो को फ्लाईओवर पर चढ़ा दिया. वहां से मेरे घर के लिए कोई टर्न नहीं था.
मैंने जब ऑटोवाले को कहा तो उसने मेरी बात पर ध्यान नहीं दिया. इसके बाद तो मैंने फोन पर पुलिस को फोन किया और ऑटो से बाहर आवाज़ लगाई तो दो कार वालों ने कार से ही पूछा. कार वालों ने ऑटो वाले को रोका, फिर और लोग आ गए और पुलिस भी.
हालांकि कॉन्सटेबल मेरी शिकायत सुनने के बजाय मुझे जल्द से जल्द घर जाने की सला
ह देता रहा. उसने कोई कदम उठाया या नहीं ये तो मुझे नहीं मालूम.
( बीबीसी हिंदी से साभार)