कल मैंने द हिन्दू अख़बार की साईट पर यह खबर पढ़ी कि केंद्र सरकार के सूचना प्रसारण मंत्रालय ने पठानकोट एयरबेस की संदिग्ध रिपोर्टिंग की वजह से NDTV को चेतावनी दी है और इस न्यूज़ चैनल का प्रसारण एक दिन के लिये बंद कराने पर विचार कर रही है। हालाँकि कई मित्र यह जानकारी भी शेयर कर रहे हैं कि फैसला ले लिया गया है और 9 नवंबर की तारीख तय कर दी गयी है। वैसे इस बावत कोई खबर मेरी निगाह में आई नहीं है। जो भी हो, अगर सचमुच सरकार ने यह फैसला ले लिया है या लेने का मन बना रही है तो यह एक आत्मघाती कदम होगा। वैसे, इस सरकार के नासमझ रणनीतिकारों के लिये यह कोई नयी बात नहीं है। ये लोग हमेशा से अपने विरोधियों को शहीदाना रुख अख्तियार करने का मौका देते रहे हैं।
माफ़ कीजियेगा मेरी कड़वी बातों के लिये। पिछले कुछ रोज से मैं खुद को लगातार विवादित राजनीतिक मसलों से दूर रखने की कोशिश करता रहा हूँ, क्योंकि यह मेरी समझ में आ गया था कि इसका हासिल कुछ नहीं है। इन दिनों ज्यादातर लोगों की राजनीतिक निष्ठाएँ तय हो चुकी हैं। उनके लिये हर बहस का मतलब खुद को सही साबित करने का पैंतरा है। जिनकी कोई राजनीतिक निष्ठा नहीं है, उनकी तटस्थता को समझने के लिये कोई तैयार नहीं है। फिर, इस तरह की बहस में अटके रहने से अपनी रचनात्मकता का भी नुकसान होता है। फिर भी इस बहस में कूद रहा हूँ, क्योंकि कुछ मसलों में चुप रहना गुनाह होता है।
यह सच है कि NDTV मूलतः बीजेपी-संघ-मोदी विरोधी चैनल है। और इसमें कोई बुराई नहीं है, क्योंकि मीडिया का काम प्रतिपक्ष की भूमिका निभाना ही है। जैसा कल इंडियन एक्सप्रेस के एडिटर राजकमल झा ने रामनाथ गोयनका अवार्ड फंक्शन में प्रधानमंत्री मोदी के सामने कहा था। मगर कई दफा हमलोग सरकार की कमियों को उजागर करते-करते अंध विरोधियों में तब्दील हो जाते हैं। हम राजकमल झा के बदले कांग्रेसी प्रवक्ता संजय झा में बदल जाते हैं, जो संयोग से उन्हीं के भाई हैं। हमलोग एक जनपक्षधर पत्रकार के बदले विपक्षी पार्टियों के पॉलिटिकल टूल में बदल जाते हैं। NDTV के साथ भी कई मामलों में ऐसा ही हुआ है। जैसा स्टिंग ऑपरेशन करने में माहिर कोबरा पोस्ट जैसी साईट करती रही है। मीडिया का जनपक्षधर होना और सरकार की कमियों को उजागर करना ठीक है, मगर किसी पोलिटिकल पार्टी के एजेंट की तरह काम करना गलत है। फिर चाहे वह ज़ी न्यूज़ हो या इंडिया टीवी। इनदिनों निष्पक्षता को गाली की तरह समझा जाने लगा है। जनपक्षधर पत्रकारिता को पोलिटिकल एजेंटों वाली पत्रकारिता के साथ कंफ्यूज किया जा रहा है। खैर यह अलग प्रसंग है।
मूल प्रसंग यह है कि सरकार को किसी चैनल पर एक दिन का बैन लगाने जैसे फैसले लेने चाहिए या नहीं। और इस मामले में मेरा मानना है कि एक बार तो NDTV या ज़ी न्यूज़ या इंडिया टीवी का पोलिटिकल एजेंट में तब्दील होना क्षम्य है। मगर किसी सरकार का राजनीतिक वजहों से फैसला लेना न सिर्फ अक्षम्य है बल्कि इसका हर स्तर पर तीखा विरोध करने की जरूरत है। यह वही सरकार है जो गिरिराज सिंह, योगी आदित्यनाथ और साध्वियों के घोर सांप्रदायिक बयान पर मौन धारण कर लेती है। जिसके मंत्री एक बुजुर्ग सैनिक की ख़ुदकुशी पर गैर जिम्मेदाराना बयान देते हैं। जिसके राज में आतंकी आर्मी कैंप में घुस कर सैनिकों की हत्या कर देते हैं, आतंकी जेल का ताला खोल कर फरार हो जाते हैं। और इन तमाम मसलों में जिनसे राष्ट्र की सुरक्षा का सीधा सम्बन्ध है, किसी को सजा नहीं होती। ऐसे में एक चैनल की रिपोर्ट पर सजा सुनाने का सिर्फ इतना ही मतलब है कि आप अपने राजनीतिक विरोधियों को दण्डित करने की कोशिश कर रहे हैं।
यह कन्हैया के मामले से ही जाहिर है कि इस सरकार की टीम में समझदार लोगों का घोर अभाव है। ये लोग ऐसे हैं जो सड़क के किसी भी कोने में केले का छिलका क्यों न गिरा हो उसे ढूंढ कर पांव वहीँ रखेंगे। इन्हें विवादों को हैंडल करना नहीं आता। और हमेशा गलत फैसले लेते हैं। अगर यह फैसला सचमुच हुआ तो इसका यही अर्थ होगा कि अब इनसे सरकार सम्भल नहीं रही है और ये जाने की तैयारी कर रहे हैं। बहरहाल, एक पत्रकार के तौर पर मैं इस फैसले पर सख्त ऐतराज करता हूँ। और इस सजा के विरुद्ध चलने वाली हर मुहिम को तमाम विसंगतियों के बावजूद अपना समर्थन देता हूँ।