अभिषेक पराशर
राजदीप सरदेसाई ने गाली दी और जब पलट कर गाली मिली तो उन्होंने धक्का मुक्की की शुरुआत की. प्रेस क्लब में भी सरदेसाई के साथ पत्रकारों ने धक्का मुक्की की थी तब राजदीप या सागरिका, मुझे ठीक से याद नहीं आ रहा पर इन दोनों में किसी एक ने कहा था कि पत्रकारों में ‘हैव्स’ और ‘हैव्स नॉट’ की एक जमात है और हैव्स नॉट ही उन्हें टारगेट करते हैं. सरदेसाई दंपती ने इस मामले को बेहद शातिराना तरीके से एक गलत मोड़ दे दिया था. अमेरिका में जिसने भी राजदीप को पलट कर गाली दी वह हैव्स नॉट की श्रेणी में तो कतई नहीं आता है. तो मैडम सागरिका या राजदीप सरदेसाई या फिर उनके समर्थकों को यह बात समझ में आ जानी चाहिए कि थप्पड़ मारने वाला या आलोचना करने वाले हमेशा ‘हैव्स नॉट’ नहीं होता है.
अगर आपको लगता है कि राजदीप के साथ हुई बदतमीजी से पत्रकारिता या फ्री स्पीच पर संकट आ गया है तो आप इसकी आड़ में गिरोहबाजी कर रहे हैं. यह बात साफ साफ समझ लेने की जरूरत है कि मोदी को अमेरिका में जो लोग भी सुनने गए थे वह न तो भारत की तरह ट्रक या टेंपो में भेड़ बकरी की तरह ठूंस कर लाए गए लोग थे और नहीं वह बीजेपी के कैडर थे. मोदी विदेशों में रहने वाले भारतीयों में क्यों पॉपुलर है इसका अंदाजा आपको लगाने के लिए आपको बाहर जाना होगा और अगर इसके लिए फिलहाल पैसे नहीं हैं तो फिर वहां जो रह रहे हैं उनसे उनके भारतीय होने के मायने मतलब समझने होंगे. फिर आपको पता चलेगा कि मनमोहन बनाम मोदी का फर्क उनकी पहचान को कैसे पुख्ता करता है. बहरहाल मामला राजदीप का था तो यह उतनी बड़ी बात नहीं है जिसको लेकर इतना स्यापा किया जाए. यह सब होता रहता है. अगर किसी को राजदीप को पीटना होता तो उसके लिए अमेरिका जाने तक का इंतजार नहीं करना होता. चूंकि आपके पास टाइम है और गिरोहबाजी की आदत है तो आप पत्रकारिता की स्वतंत्रता बनाम फासीवाद का छद्म डिबेट शुरू करेंगे. जिस दिन आईबीएन से छंटनी हुई थी उस दिन आपको फ्री स्पीच पर कोई संकट नहीं दिखा था. छंटनी से तो सारे फंडामेंटल्स मजबूत हुए थे न उस दिन ? और वहीं फंडामेंटल्स आज आपको बिखरते नजर आ रहे हैं. दोगली बात करते हैं आप. सरदेसाई को पत्रकारिता या फ्री स्पीच का पर्याय बनाने की शातिराना हरकत मत कीजिए.
(एफबी से साभार)