रिंकी ! मेरी हिन्दी तो अच्छी नहीं है लेकिन वी आ प्राउड ऑफ यू. टाइम्स नाउ पर अर्णव जब टूटी-फूटी हिन्दी में रिंकी से बात कर रहे थे वो मानव हिन्दी व्याकरण और रचना के हिसाब से दोषपूर्ण होने के बावजूद सीधे मन को छू जानेवाली बातचीत थी. अंडर-14 के लिए फुटबॉल खेलनेवाली झारखंड रिंकी और बेहद ही प्यारी बच्ची और अर्णव की बातचीत को अलग से गौर करने की जरुरत है और ये समझने की मांग करती है कि कैसे टीवी एंकर के ठीक से हिन्दी न बोलने और इस प्यारी बच्ची के अंग्रेजी न जानने के बावजूद दर्शकों के बीच कितने अर्थपूर्ण संदेश प्रसारित हुए. अर्णव ने 13 साल की रिंकी( फुटबॉल खिलाड़ी) को जिस तरह से रिस्पांस दिया और अपनेपन से बातचीत की, बहुत ही कम समय में वो उनसे पूरी तरह खुल गई और इस तरह से झारखंड के अधिकारियों, व्यवस्था और ग्राम पंचायत ऑफिस में गाली दिए जाने और बेइज्जत किए जाने की बात करने लगी जैसे शाम को घर लौटने पर कोई बच्ची अपने पिता से शिकायत करती है. इधर अर्णव ने भी उतनी ही आत्मीयता से उसे सुना, मुस्कराते रहे, अपनी कमजोर हिन्दी के लिए सॉरी बोलते रहे और बहुत प्रयास से कॉन्फीडेंस के लिए पहले भरोसा फिर हिम्मत का प्रयोग किए. आत्मविश्वास तक न पहुंचने के बावजूद भी अर्थ अधूरा नहीं रह गया था क्योंकि बाकी चीजें उनके चेहरे और बॉडी लैंग्वेज से स्पष्ट हो जा रही थी. आमतौर पर टीवी जो अपने सारे अर्थों को बोलकर, स्क्रीन को अखबार जैसे बड़े-बड़े अक्षर छापकर व्यक्त करना चाहता है, वहां उसे ऐसी ही फुटेज देखने की जरुरत है कि कैसे हम एक विजुअल माध्यम में अर्थ के कुछ हिस्से को तस्वीरों के भरोसे छोड़ सकते हैं भले ही वो मजबूरी में ही क्यों न हो.
मीडिया इन्डस्ट्री और राजनीति उद्योग के लोगों के बीच अर्णव को लेकर ये नाराजगी हमेशा से रही है कि वो किसी की सुनते नहीं हैं, बोलने नहीं देते और इतने अटैकिंग हो जाते हैं कि जैसे ये कोई न्यूजरुम की डिबेट नहीं, अपनी कचहरी चला रहे हों जहां न खाता न बही, जो अर्णव गोस्वामी कहे वही सही होता है. ओपन मैगजीन ने तो इन पर बाकायदा कविता तक छापी है. लेकिन
बातचीत के दौरान रिंकी अचानक से रुक जाती थी. जाहिर है उसे टीवी पर बोलने का अभ्यास क्या, शायद पहली-दूसरी बार ही इस माध्यम से अपनी बात रख रही थी सो ऐसा स्वाभाविक ही था लेकिन जितनी देर वो रुक जा रही थी, अर्णव उतनी देर मुस्करा रहे होते..और बोलो रिंकी, अपनी बात कहती रहो. टाइम्स नाउ के न्यूजआवर में ये और बोलते रहो के शब्द कभी किसी को मय्यसर होते हैं ?
मैंने छुटभैय्ये टाइप के ऐसे दर्जनों रिपोर्टरों, कुछ डी ग्रेड के चैनल के एंकरों को देखा है कि वो संबंधित व्यक्ति से इस तरह से सवाल करते हैं जैसे कि वही उनके मालिक-मुख्तियार हों और जवाब देनावाल चाकर. मैं यहां दिल्ली में बैठे-बैठे झारखंड की इस प्यारी रिंकी जो झाड़ू लगाने का काम करती रही है, खेतों में घंटों मेहनत करती रही है.. के बारे में सोच रहा हूं कि आज बल्कि कई दिनों तक उसे कितना अच्छा लगेगा कि देश के इतने चर्चित टीवी एंकर ने उनसे कितनी आत्मीयता से बात की..दोस्त की तरह, बड़े भाई की तरह और शाम को थके होने के बावजूद एक पिता की तरह..ये अंदाज और कला टीवी के दो-चार चेहरे को छोड़कर बाकी में सिरे से गायब है.
हम ऐसे मौके पर आंखों के छलछला जाने से अपने को रोक नहीं पाते. एक तो झारखंड(ओरमांझी) के वो बच्चे, साधनों से पूरी तरह महरुम जिन्हें लगातार तकलीफें दी जाती रही..जब वो फुटबॉल खेलने स्पेन जाने के लिए पासपोर्ट बनवाने ऑफिस गई तो गालियां दी गई, बेइज्जत किया गया और यहां तक कहा कि वो अंग्रेज सब तुमको बेच देगा. इस बात पर भी दुत्कारा गया कि ये क्रिकेट नहीं फुटबॉल खेलते हैं. लेकिन रिंकी जैसी कुल 18 लड़कियों इन तमाम तरह के उपहास को बर्दाश्त करके न केवल वहां गई बल्कि दुनियाभर के कुल दस टीमों के बीच गास्टिज कप के लिए तीसरे स्थान रही और कांस्य जीतकर देश वापस आयी..मुझे उस वक्त उन दैत्याकार बिल्डिंगों में अपने बच्चे को पढ़ने भेजनेवाले अभिभावक और कुछ आठ घंटे के भीतर सचिन से लेकर चेतन भगत तक बनाने की जुगत का ध्यान आया, उन पर एक-एक दिन में हजारों रुपये खर्च करना याद आया, जिनकी छोटी-छोटी चीजें एक्सलेंट हो जाती है लेकिन पता नहीं इससे देश की छाती कितनी चौड़ी होती है और इधर ये बच्चे खेतों में काम करके, गालियां सुनकर हमसे-आपसे कहवा जाते हैं- हमें तुम पर गर्व है.
तुक्का-फजीहत के लिए विख्यात अर्णव के इस शो से इस किस्म की भावुकता पैदा हो सकती है, शो देखने के मिनटों तक मैं यही सोचता रहा और टेलीविजन की उस ताकत पर ठहरकर अंदाजा लगाने लगा कि जिसे हमारे दर्जनों एंकरों और संवेदनहीन संवाददातों ने झौं-झौं बक्से में तब्दील कर दिया है वो हमें सही अंदाज में पेश आने पर कितना प्रभावित कर सकता हैं..दिग्गजों की पैनल के बीच अंत-अंत रिंकी को अर्णव ने जिस तरह से जोड़े रखा, कैलिफोर्निया के कोच से बात करायी- कैसी हो रिंकी और हम ठीक हैं, आप कैसे हैं सर जैसे संवाद एक अंग्रेजी स्क्रीन पर तैर रहे तो आप यकीन कीजिए, अपनी भारी-भरकम व्यावसायिक पैंतरेबाजी और तिकड़मों के बीच भी चैनल घड़ीभर के लिए बेहद संवेदनशील और मानवीय होता नजर आया..कुछ नहीं तो बीच-बीच में इस एहसास का बचा रहना जरुरी ही तो है..आखिर हम जैसे दर्शक जो घंटों आंखें फाड़े रहते हैं, आखिर हमारा भी मन कभी इसके लिए अच्छा लिखने का तो होता ही है.
मैं अर्णव की शैली का प्रसंशक नहीं रहा किंतु आपका लेख पढ़ कर अच्छा कि अर्णव ने इस बच्चे से सहज बात की. ख़बर के लिए आभार.
* लगा
दो महत्वपूर्ण बात है इस लेख में एक तो विनीत भाई ने पहली बार किसी मीडियाकर्मी की तारीफ़ की और दूसरी बड़ी बात की तारीफ़ अर्नब की हो रही है 🙂