अर्णब गोस्वामी को ज़मानत नहीं मिली। अफ़सोस होता है कि एक पत्रकार — भले इस बीच पथभ्रष्ट पत्रकारिता करने लगा हो — जेल में है। इस बीच बहुत से संजीदा पत्रकार भी (जैसे हाल में हाथरस में) पुलिस ने पकड़े। तब पकड़ने वालों के विवेक पर तरस आया था। पर अर्णब पर किसी का देय धन डकार जाने और लेनदार माँ-बेटे को आत्महत्या के लिए मजबूर करने जैसे संगीन आरोप हैं। ऐसे ही सुधीर चौधरी, तरुण तेजपाल आदि जेल गए थे। हालाँकि उन पर लगे आरोप अलग तरह के थे। पर थे बुरे और निपट आपराधिक।
बहरहाल, अर्णब की गिरफ़्तारी पर पत्रकारों में दो मत हैं: अपराध किया है तो उनका बचाव कैसा। दूसरा तबका कहता है कि यह तो अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला है।
अभिव्यक्ति वाली दलील देने वालों में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष, देश के गृहमंत्री, रक्षामंत्री, सूचना-प्रसारण मंत्री, कपड़ा मंत्री आदि से लेकर भाजपा-शासित विभिन्न प्रदेशों के मुख्यमंत्री शामिल हैं। पार्टी की ट्रोल टुकड़ी भी। किसी ने लिखा है कि ऐसा लगता है गोया भाजपा का अपना कोई कार्यकर्ता गिरफ़्तार कर लिया गया हो। और तो और, योगी आदित्यनाथ भी सहसा ‘अभिव्यक्ति’ के हिमायती हो गए हैं, जिनके प्रदेश में पत्रकारों पर अत्याचार का कीर्तिमान बन चुका है।
कुछ भाजपा-समर्थक पत्रकार भी — स्वाभाविक ही — अर्णब की गिरफ़्तारी से आहत हैं। कुछ पहले से गंडा-बंध थे; कुछ अपनी बौखलाहट में पहचान लिए गए हैं। उनकी प्रतिक्रिया ऐसे भड़की है मानो उनका सगा धर लिया गया हो। कुछ (संघ-मोह के चलते) अपने फ़ासिस्ट-समर्थक तेवर के बावजूद वॉल्तेयर की दुहाई दे रहे हैं। इतना ही नहीं, वे अर्णब की गिरफ़्तारी को वाजिब बताने वालों के ख़िलाफ़ मोर्चा ले उन्हें कांग्रेस के (शिव-सेना के नहीं) प्रवक्ता ठहराने में भी लगे हैं।
लेकिन अगर आप फ़ेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग आदि टटोलें तो अधिकांश पत्रकार मुखर और न्यायप्रिय मिलेंगे। वे इस गिरफ़्तारी से विचलित नहीं, बल्कि मामले की समुचित जाँच के हक़ में हैं। वे पत्रकारिता (जैसी भी हो) और अपराध को अलग कर के देखते हैं, अभिव्यक्ति के नाम पर संगीन अपराध के आरोपी का बचाव नहीं करना चाहते।
बहुत-से पत्रकारों ने लिखा है कि अपराध अपराध है; मुलज़िम भले पत्रकार हो, पर उसकी हिमायत में पत्रकारिता को आड़ की तरह नहीं ताना जा सकता। मैं भी अपने आप को इसी मत का पाता हूँ।
इसका मतलब यह नहीं कि सरकार को बदले की भावना से काम करना चाहिए या पुलिस को ससम्मान पेश नहीं आना चाहिए। मगर मुल्क की हक़ीक़त क्या हमें नहीं मालूम? इज़्ज़तदार पत्रकारों पर देश में राजद्रोह तक के मुक़दमे दर्ज़ हुए हैं। पुलिस ने “जी-जी” वाला नहीं, शातिर अपराधियों जैसा बरताव पत्रकारों के साथ किया है।
लेकिन एक जगह का ग़लत आचरण दूसरी जगह औचित्य नहीं बन सकता। अगर शासन या पुलिस ज़्यादती करें तो इसकी आलोचना होनी चाहिए। आत्महत्याओं का मामला दुबारा खोलने में सरकार ने दुराग्रह रखा हो या पुलिस ने पत्रकार या उसके परिजनों से दुर्व्यवहार किया हो तो मुझे भी इसकी आलोचना में शरीक़ समझें। पर हम आत्महत्याओं और पत्रकार के यहाँ डूबे भुगतान से आहत माँ-बेटियों के प्रति भी मानवीय रवैया ज़ाहिर करें।
पत्रकारिता स्वयं न्याय, संवेदनशीलता, ईमानदारी और मानवीय अधिकारों जैसे मूल्यों की वाहक होती है। किसी ‘अपने’ पर आ पड़ी तो सभी मूल्यों को तिलांजलि दे बैठना हद दरज़े की नादानी होगा।
अर्णब की हाल की पत्रकारिता सांप्रदायिकता (याद करें पालघर) और चरित्रहत्या (उदाहरण रिया चक्रवर्ती) की तरफ़ जाने लगी थी। शायद चैनल चलाने (दूसरे शब्दों में विज्ञापन बटोरने) के लिए ऐसे हथकंडे काम आते हैं। टीआरपी के आपराधिक जुगाड़ पर उन पर अलग से मुक़दमा दायर है। लेकिन उस पर अभी बात नहीं; अभी बात अलग मसले की है।
बताया यह जा रहा है कि भाजपा काल में मुख्यमंत्री फड़नवीस ने अर्णब की मदद की, जबकि मामला व्यवसाय में लेन-देन का था और क़र्ज़ में डूबी कम्पनी के निदेशक माँ-बेटे ने तीन नाम ज़िम्मेदार बता कर आत्महत्या कर ली थी।
जैसा कि मृतक की विधवा (कितनी जुझारू महिला है) ने कहा है, सुशांतसिंह राजपूत की आत्महत्या में कहीं रिया का नाम नहीं लिया गया था, पर अर्णब अपने चैनल पर रिया को गुनहगार मानकर गिरफ़्तारी का अभियान चला रहे थे। अब जब अदालत के आदेश से वह मामला फिर से खुल गया जिसमें अर्णब का नाम मृतक के हस्तलेख में दर्ज़ था, तो उस मामले में सहयोग न कर उसे अभिव्यक्ति की आज़ादी से जोडना कहाँ की समझदारी है?