देश के सबसे चर्चित एंकर और टाइम्स नाउ के एडिटर-इन-चीफ अर्णब गोस्वामी सभा – संगोष्ठियों में कम ही दिखते हैं. लेकिन बीएजी के कैम्पस में हो रहे मीडिया फेस्ट में वे कल वक्ता के रूप में नज़र आए. विषय था कि क्या संपादक का भी ओपिनियन होना चाहिए. हालाँकि बहस का विषय ही खटकता है और एक लाइन में ये कहकर ख़ारिज किया जा सकता है कि वह संपादक ही क्या जिसका अपने विचार न हो और उसपर कोई स्टैंड न हो. यदि ओपिनियन नहीं होता तो अखबार में संपादकीय की कोई जरूरत नहीं होती.
ख़ैर अर्णब ने भी अपनी बात कुछ इसी अंदाज़ में शुरू की और कहा कि हरेक का अपना ओपिनियन होता है. मुद्दा है कि उसे कैसे हम पेश करते हैं. ख़बरों को दिखाने में प्रेजेंन्टेशन का अंतर है और उसी से इम्पैक्ट पड़ता है. लेकिन ओपिनियन हमेशा फैक्ट्स के साथ होना चाहिए. फैक्ट के बिना ओपिनियन बेकार है. संपादक पर दबाव पड़ने और उस हिसाब से ओपिनियन बदलने की बात पर अर्णब ने कहा कि एडिटर्स बिका हुआ नहीं हो तो उसपर कोई दवाब नहीं बना सकता. टाइम्स नाउ का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि हमारे चैनल में सभी पत्रकारों को हिदायत है कि वे किसी भी तरह के फ्री के पास आदि ना ले.
अर्णब के साथ ही उसी मंच पर बेबाक जुबान वाले आशुतोष भी बैठे थे. अपनी बारी आने पर उन्होंने ये कहते हुए शुरुआत की कि अर्णब को सुनने के बाद आप मुझे क्यों सुनेंगे. इसलिए सुनेंगे कि मैं आपकी जुबान में बोलूँगा. उनकी ये बात थोड़ी अटपटी लगी. बहरहाल ट्रैक पर वापस लौटते हुए उन्होंने ज़ोरदार तरीके से संपादक के ओपिनियन होने की वकालत की. उन्होंने लगभग हुंकार लगाते हुए कहा कि माफ कीजियेगा मैं वैसा पत्रकार नहीं जो सिर्फ संजय की तरह घटनाओं का वर्णन करता रहे. मैं उसकी विवेचना भी करूँगा और उसपर अपना ओपिनियन भी दूँगा. उनकी इस बात पर खूब तालियाँ बजी. आशुतोष ने अपनी बात को विस्तार देते हुए कहा कि एडिटर डायरेक्टर की तरह है. दूर रहते हुए उसे सच्चाई की खोज करना होता है और अपनी सीमाओं में रहते हुए उसे दर्शकों तक पहुँचाना भी उसका काम होता है.
अंत में सवाल – जवाब का सत्र भी हुआ. छात्रों को भी सवाल पूछने का मौका मिला. लेकिन सबसे दिलचस्प रहा जब संपादक ही संपादक से जिरह करने लग गए. दरअसल लाइव इंडिया के संपादक सतीश के सिंह ने अर्णब और आशुतोष से अन्ना – केजरीवाल मसले पर सवाल किया कि अचानक ये कैसे गायब हो गए. उन्होंने कहा कि न्यूज़ मीडिया ने जब चाहा तब ये आए और जब चाहा तब ये चले गए. बहरहाल मीडिया खबर डॉट कॉम की तरफ से चार सवाल पूछे गए जिसमें एक सवाल अर्णब और आशुतोष दोनों से था . अर्णब ने तीन सवाल के जवाब दिए लेकिन एक सवाल को स्कीप कर गए. यह सवाल राज ठाकरे से संबंधित था. पहला सवाल ओपिनियन को लेकर था कि ओपिनियन होना चाहिए लेकिन चैनलों की बहस में कई दफे ओपिनियन को थोपने की कोशिश की जाती है. आशुतोष के शो में दर्जनों बार पैनल में आए लोगों ने कहा है कि आप अपनी बात मुझसे क्यों बुलवाना चाहते हैं. इसका जवाब आशुतोष ने दिया. बाकी के तीन सवाल जो अर्णब से थे वे इस तरह से थे –
1)आपने आते ही कहा था कि आपको हिंदी नहीं आती. ऐसे में राज ठाकरे का हिंदी में इंटरव्यू लेने की आपको क्या आवश्यकता आन पड़ी. फिर इंटरव्यू में आप बहुत सॉफ्ट नज़र आए. अर्णब जिस आक्रमकता के लिए जाने जाते हैं, वह क्यों गायब था?
2) टाइम्स नाउ पर जिस तरीके से भारत और पाकिस्तान को लेकर लगातार ख़बरें दिखाई गयी, उसे देखकर ऐसा लग रहा था कि आपलोग भारत – पाकिस्तान के बीच युद्ध करवा कर ही छोडेंगे. इतने संवेदनशील मुद्दे पर इस तरह से खबर? क्या ये मसला टीवी पर हल होगा?
3) भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध के हालात और उसपर पैनल डिस्कशन में मारुफ रजा को रक्षा विशेषज्ञ के तौर पर टाइम्स नाउ पर बुलाया जाता रहा. लेकिन ये कभी नहीं बताया गया कि वे हथियार बनाने वाली कंपनी मारुफ रजा इंटरप्राइजेज के मालिक भी हैं. एनबीए में इसकी शिकायत हुई और एनबीए ने इसे सही भी पाया. क्या ये दर्शकों को धोखे में रखना नहीं?
बहरहाल परिचर्चा अच्छी रही और सुनने वाले सिर्फ श्रोता नहीं बने रहे. उन्होंने सवाल भी पूछे. इस मौके पर वरिष्ठ पत्रकार एन.के.सिंह, सतीश के सिंह, नेशन न्यूज़ के अजय कुमार, आईआईएमसी के आनंद प्रधान समेत कई चैनलों के पत्रकार और बड़ी संख्या में छात्र भी उपस्थित थे. इसके अलावा फिल्म निर्देशक सुभाष घई और बीएजी फिल्म्स की एमडी अनुराधा प्रसाद ने भी अपनी बात रखी. पूरे शेषण को न्यूज़24 के मैनेजिंग एडिटर अजीत अंजुम ने मॉडरेट किया.
बहुत सही सवाल पूछे गए अर्णब गोस्वामी से. अर्णब का टाइम्स ग्रुप एक तरफ अमन की आशा प्रोग्राम चला कर भारत-पाक सम्बन्धों में शान्ति सौहार्द्र और सीमा पार व्यापार की वकालत करता है तो दूसरी तरफ टाइम्स नाव पर भारत – पाक के सेवानिवृत फौजी अधिकारियों में जंग चलवाता है जिससे ”अमन की आशा” – ”अमन का तमाशा”में परिवर्तित होते लगने लगता है. अर्णव भी कोशिश करते हैं कि अपनी बात मेहमान टिप्पणीकारों के मुंह से कहलवा डालें , नहीं तो उनकी टोका-टाकी झेले. कई पाकिस्तानी पूर्व सेन्य अधिकारी उनका प्रोग्राम अधबीच छोड कर जा चुके हैं जबकि भारतीय सैन्य अधिकारी एक विशेष खेमे और विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते दिखाई देते हैं.यही स्थिति भाजपा – कांग्रेस के बीच उन्होंने बना रखी है. भाजपा प्रवक्ताओं को वे बेलौस अपनी बात कहने का मौका और वक्त दोनों देते हैं लेकिन कांग्रेस प्रवक्ता को उनकी छेड़छाड़ विवशतः झेलना पडती है. अर्णव वैसे अच्छी रिसर्च के साथ न्यूज आवर प्रस्तुत करते हैं लेकिन इतनी उग्रता के साथ कि जैसे घर में कोहराम मच गया हो. यह बात बरखा दत्त या राजदीप में नहीं है और बिना ब्लड प्रेशर बढाए उनका न्यूज प्रोग्राम देखने में सुकून और सहजता का अनुभव होता है. अर्णव का चीख चीख के बात करना / रखना ऐसा आयाम प्रस्तुत करता है जैसे वे भी भाजपा के छद्म प्रवक्ता या पैरवीकार हों.बेहतर हो वे टाइम्स नाव के बेक ग्राउन्ड साउंड को मद्धम रखें और खुद भी सामान्य रहकर प्रस्तुति देवें. मैं स्वयं एक सप्ताह से अन्य चेनल्स पर अंग्रेज़ी न्यूज देख रहा हूं और महसूस कर रहा हूं कि न्यूज आवर उतना जरूरी नहीं जो उसे मैं पिछले करीब पांच साल से नियमित देख रहा था.हर बात में सरकार को दोषी ठहराना और कठघरे में खड़ा करना बहुत हो चूका .एंटी इस्टेब्लिशमेंट होना अलग बात है लेकिन सजेस्तिव होकर प्रामाणिकता पाई जा सकती है. चुनाव आ रहे हैं और अर्णव ने शैली न बदली तो दर्शक उनसे छिटकेंगे और बिदकेंगे. यह उन्हें जल्दी समझ आ जाना चाहिए चाहे तो इसके लिए वे गुप्त सर्वेक्षण भी करा सकते हैं.