अन्ना सिर्फ जमूरे की भूमिका में हैं,मदारी कोई और है !

अन्ना सिर्फ जमूरे की भूमिका में हैं,मदारी कोई और है !

“अन्ना की अपनी सीमितताएँ हैं , उनकी अपनी कोई सोच या कोई स्पष्ट -विजन नहीं है”

आलोक कुमार,वरिष्ठ पत्रकार व विश्लेषक

अन्ना सिर्फ जमूरे की भूमिका में हैं,मदारी कोई और है !
अन्ना सिर्फ जमूरे की भूमिका में हैं,मदारी कोई और है !

मुझे तो पूरा विश्वास है कि भूमि अधिग्रहण कानून की पेचीदगियों से अन्ना पूरी तरफ से वाकिफ भी नहीं होंगे l अन्ना की अपनी सीमितताएँ हैं , उनके पास अपनी कोई सोच या कोई स्पष्ट -विजन नहीं है और इसका ही फायदा अब तक अन्ना को इस्तेमाल करने वालों ने भरपूर उठाया है l भूमि-अधिग्रहण बिल के संदर्भ में धरने के हालिया प्रकरण के लिएजिंदल समूह के चार्टड प्लेन से श्री पंकज पचौरी जी (पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी के काल में उनके मीडिया सलाहकार ) के साथ अन्ना का दिल्ली आना पूरी कहानी को क्या खुद-बखुद बयाँ नहीं कर देता है क़ि खेल का संचालन कहाँ से हो रहा है ? क्या इससे एक बार फिर ये साबित नहीं होता कि अन्ना सिर्फ जमूरे की भूमिका में हैं और मदारी कोई और है ?

मेरी स्पष्ट राय है कि मुद्दाविहीन व अपना आधार खोते राजनीतिक खेमों की शह पर किसानों के हितों की बात कर रहे और किसानों का रहनुमा बनने के नए ड्रामे में अन्ना को इस बात का भान भी नहीं ही होगा कि “देश में किसानों की बदहाली भूमि –अधिग्रहण की वजह से ना तो है और ना प्रस्तावित बिल से होने जा रही है l किसानों की बदहाली के अनेकों अन्य कारण हैं जिनमें प्रमुख हैं : उपज का उचित मूल्य ना मिलना , जोत का आकार छोटा होना , उन्नत तकनीक का अभाव , सिंचाई व बिजली की समुचित व्यवस्था का ना होना l फैक्ट्रियाँ लगाए जाने से किसान गरीब नहीं होता अपितु देश का किसान गरीब होता जा रहा है क्यूँकि पिछले साढ़े छः दशकों में किसानों की तीन-चार पीढ़ियों के लिए समुचित शिक्षा मुहैया नहीं कराई जा सकी , उसके लिए रोजगार के नए अवसर नहीं उपलब्ध कराया जा सके ,परिवार बढ़ता गया और खेती से होने वाली कमाई पर ही निर्भरता का आकार बढ़ता गया l विभिन्न पारिवारिक-सामाजिक उत्तरदायित्वों के निर्वहन की विवशता से खेतिहर-जमीन की बिक्री किसानों की मजबूरी बनती गई जिसके परिणामस्वरूप जोत का आकार छोटा होता गया l” अन्ना प्रायोजित ‘नॉस्टल्जिया’ कायम करने की बजाए अगर किसानों की इन मूलभूत समस्याओं की बात करते तो उनकी नियत पर प्रश्न-चिन्ह खड़े करने के पहले जरूर हजार बार सोचना पड़ता l अन्ना को तो इस मुद्दे से जुड़े सबसे बड़े दुष्परिणाम का आभास भी नहीं होगा कि “अगर अन्ना और उनके समर्थकों की बात मान ली जाए तो देश में नई फैक्ट्रियाँ , नई सड़कों और अन्य नए आधारभूत संरचनाओं के निर्माण की बात तो दूर देश भर में सरकार को एक नया कुआँ खोदने में भी जद्दोजहज का सामना करना पड़ेगा , सर्वत्र‘status-quo’ कायम हो जाएगा l”

अन्ना के मुँह से जैसी बातें कहलवाई जा रही हैं उसे देख-सुन कर तो लगता है कि अन्ना को शायद इस बात की भी जानकारी नहीं है कि “हमारे देश का कानून कहता है कि देश में जमीन का वास्तविक व पहला अधिकार ‘स्टेट’ का होता है , जिसका नेतृत्व एक संप्रभु संसद का हिस्सा होता है l” गाँधी और विनोबा ने भी कहा था कि “सभै भूमि गोपाल की”, कहीं ऐसा तो नहीं कि बात –बात में गाँधी की बात करने वाले अन्ना यहाँ “गोपाल” का अर्थ ईश्वर या उसके ही सृजन‘मनुष्य’ को समझ रहे हैं !! लोकतन्त्र के संदर्भ में गाँधी व विनोबा के ‘गोपाल’ का तात्पर्य ‘सामूहिक-स्वविवेक के तहत निर्णय लेने वाली सार्वभौम-सत्ता’ से था l अन्ना को ये समझने की भी जरूरत है कि किसानों को असली परेशानी अधिग्रहण से नहीं अपितु अधिग्रहण के उपरान्त मुआवजे के भुगतान और पुनर्वास में व्याप्त भ्रष्टाचार से है और अगर अन्ना इन मुद्दों को उठाते तो वो सार्थक , सकारात्मक , व्यावहारिक और प्रभावी विरोध होता l लेकिन ऐसी दूरगामी सोच व परिपक्वता अब तक अन्ना में मुझे तो देखने को कभी नहीं मिली है और अन्ना अब तक कोई भी मुकाम हासिल करने में सफल होते भी दिखाई नहीं पड़े हैं l पिछले मुद्दों को छोड़ हमेशा एक नए मुद्दे के साथ आंदोलन की बातें करना अन्ना को सिर्फ एक ‘तमाशाई’ ही बनाती है l

यहाँ मैं अन्ना के साथ अपने एक साक्षात्कार को भी उद्धृत करना चाहूँगा जिससे सुधी पाठक-गण अन्ना के संदर्भ में मेरे द्वारा कही गई बातों को सहजता से समझ पाएंगे …. दो साल पहले अन्ना अपनी रैली के सिलसिले में पटना आए थे और लोकनायक जयप्रकाश -स्मृति चरखा-समिति में रुके थे अगले दिन पटना के गाँधी मैदान में उनकी रैली थी lटीम अन्ना में बिखराव की शुरुआत हो चुकी थी या दूसरे शब्दों में कहूँ तो बिखराव की बुनियाद रखी जा चुकी थी , उस समय अन्ना के इर्द-गिर्द रहनेवालों , कर्ता-धर्ता की भूमिका में जेनरल वी.के.सिंह और विवादित पत्रकार संतोष भारतीय प्रमुख थे l रैली की पूर्व -संध्या पर मीडिया का जमावड़ा अन्ना से बाईट्स लेने के लिए आतुर था , अन्ना कुछ सवालों का जवाब भी दे रहे थे और कुछ असहज सवालों (जिनके बार में शायद अन्ना को उनकी फीड-बैक टीम ने अपडेट नहीं किया था या अन्ना को वैसे मुद्दों -सवालों की कोई जानकारी नहीं थी ) को नजरंदाज भी कर रहे थे l अन्ना के नजदीक मौजूद सहयोगियों में ज़्यादातर इस फिराक में ही थे कि सवालों के सिलसिले को किसी तरह से जल्द से जल्द टाला जाए , वो बार -बार दुहरा रहे थे कि अब अन्ना के भोजन व विश्राम का समय हो गया है ‘आप लोग जाइए ‘ l मैं भी भीड़ के कम होने का इंतजार इस फिराक में कर रहा था कि अपने एक-दो सवाल इत्मीनान से पूछ पाऊँ , मौका मिलते ही मैंने पहला सवाल पूछा “अन्ना जन-आंदोलन का प्रभाव उसकी व्यापकता और सक्रिय जन-भागीदारी से सुनिश्चित होता है , आपकी मुहिम को भी शुरआती दिनों में ऐसी सफलता मिलती तो दिखाई दी लेकिन बाद के दिनों में आपका आंदोलन सिर्फ दिल्ली तक सिमटता दिखा और दिख रहा है और लोगों का मोह-भंग भी होता दिख रहा है ऐसे में पूरे देश में कैसे बदलाव लाया जा सकता है और अगर आप पूरी व्यवस्था और लोगों की सोच बदलने की बात करते हैं तो पूरे देश में घर-घर में आपकी आवाज पहुँचे और स्वेच्छा से देश के हरेक कोने के गाँव-गाँव से लोग इससे जुडें इसके लिए आपकी क्या योजना है ??” मेरा सवाल सुनने के बाद अन्ना काफी देर तक मौन रहे और अचानक ही उनके चेहरे पर असहज भाव उभरने लगे और अपने सहयोगियों की तरफ देखने लगे , इतने में एक सहयोगी ने अन्ना के समीप आ कर उनके कान में कुछ कहा और अन्ना ये कहते हुए उठ गए कि आप मीडिया -बंधुओं के शेष सवालों का जवाब जेनरल साहेब देंगे मेरे विश्राम का समय हो गया है , आप सबों को धन्यवाद ॥शुभ-रात्रि ll ”

तब तक मैं भी ‘सब समझ चुका था’ और अन्ना का अभिवादन (प्रणाम) करते हुए वहाँ से चल पड़ा …..

आलोक कुमार ,
(वरिष्ठ पत्रकार व विश्लेषक ),
पटना .

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