उस जमाने में चिट्ठियां छप जाना, आज बड़े चैनल पर पीटीसी चलने से ज्यादा रोमांच देता था
अजीत अंजुम,मैनेजिंग एडिटर,न्यूज24 के यादों के झरोखे से(भाग-8)
पत्रकारिता पढ़ाने वाले एक प्राइवेट संस्थान में दाखिले के लिए आए पांच – छह बच्चों से हुए सवाल – जवाब की बानगी जरा देखिए–
सवाल – महात्मा गांधी का नाम सुना है ?
पहली भावी पत्रकार ( लड़की )- जी सर सुना है , शायद पहले प्रधानमंत्री थे
सवाल – तो फिर इंदिरा गांधी का भी सुना होगा ?
पहली भावी पत्रकार ( लड़की ) – सर महात्मा गांधी ने शायद उन्हें गोद लिया था
सवाल – देश के पीएम कौन हैं ?
दूसरा भावी पत्रकार – सर पॉलिटिक्स में मेरा इंट्रेस्ट नहीं है
सवाल – नरेन्द्र मोदी कहां के मुख्यमंत्री हैं ?
जवाब – अरे सर मेरा पालिटिक्स में इंट्रेस्ट नहीं है
सवाल – राष्ट्रपति का नाम बताओ ?
दूसरा भावी पत्रकार – अब्दुल कलाम
सवाल – संजय गांधी का नाम सुना है ?
तीसरी लड़की – सर सुना है , शायद राहुल गांधी के भाई हैं .
सवाल – हैं , या चले गए ?
जवाब – सर शायद उनकी डेथ हो गयी
सवाल – महाभारत और रामायण के बारे में कुछ सुना है ?
जवाब – ( बहुत उत्साह है ) जी सर क्यों नहीं सुना है
सवाल – पांडव कितने भाई थे ?
जवाब – (पूरे कान्फिंडेंस के साथ ) दो भाई थे सर , एक पांडव और दूसरे कौरव
सवाल – सीता का अपहरण किसने किया था ?
जवाब – कंस ने
सवाल – और द्रोपदी का अपहरण किसने किया था ?
जवाब – रावण ने
सवाल – यूरेनयन क्या होता है ?
जवाब – यूरेनियम यूरीन में पाया जाता है
सवाल – इस देश में कितने राज्य हैं ?
जवाब- 150
सवाल – कर्नाटक की राजधानी कहां है ?
जवाब – केरल
सवाल – पश्चिम बंगाल का सीएम ?
जवाब – जयललिता
सवाल –सोनिया गांधी और इंदिरा गांधी में क्या रिश्ता है ?
जवाब – इंदिरा गांधी की बेटी है
महाराष्ट से दिल्ली आई एक लड़की से सवाल- महाराष्ट्र में किस पार्टी की सरकार है
लड़की – सर बीजेपी की
सवाल – तो महाराष्ट्र सरकार के पांच मंत्री का नाम बताओ
जवाब – आर आर पाटिल , सुषमा स्वराज , लालकृष्ण आडवाणी …बाकी दो याद नहीं है सर ..कुछ सेकेंड की चुप्पी के बाद – हां सर …हां सर , पृथ्वीराज चौह्वाण सीएम हैं .
सवाल – सीएम किस पार्टी के हैं
जवाब – शायद एनसीपी
सवाल – तो फिर सरकार बीजेपी की कैसे है
जवाब – दोनों मिले हुए है न सर…
ऐसे सवालों और उसके मासूम से दिलचस्प जवाबों की लंबी फेहरिश्त है . सवाल पूछने वाले का कान्फिडेंस खत्म हो जाए लेकिन जवाब देने वाली लड़कियां और लड़के के चेहरे पर कुछ नहीं जानने का कोई टेंशन नहीं है. नहीं जानते हैं तो जान लेगें सर के अंदाज में सवाल पूछने वाले को समझाते हैं . टीवी पत्रकार बनने आए लड़के और लड़कियों के इस झुंड में बारहवीं पास भी हैं और ग्रेजुएट भी . किसी को मास कम्युनेकशन में ग्रेजुएशऩ करना है तो किसी को पीजी , लेकिन बनना सबको एंकर या रिपोर्टर है . इनमें से ज्यादातर का जनरल नालेज कैटरीना – सलमान खान के ब्रेकअप और कैटरीना – रणवीर कपूर के अफेयर के किस्से तक सीमित है . किसी ने अपने जनरल नॉलेज का ज्यादा विस्तार किया है तो क्रिकेट के मैदान तक पहुंचे हैं.
जनरल नॉलेज का फलूदा बनाने में लड़कियां ज्यादा आगे रहती हैं ( इसे आप मेरा पूर्वाग्रह मान सकते हैं और ऐसा मानने के लिए मेरी लानत – मलामत कर सकते हैं ) . दरअसल ये सबके सब टीवी स्क्रीन पर अपना चेहरा चमकाने की ख्वाहिश लिए ही मीडिया में आ रहे हैं . इनमें बहुतों को अगर टीवी न्यूज चैनलों पर चमकने वाले बहुत चेहरे के बारे में पता नहीं है तो इनके मम्मी – पापा को पता है . वो चाहते हैं कि उनकी बेटी या बेटा आशुतोष , दीपक चौरसिया , बरखा दत्त , पुण्य प्रसून वाजपेयी , राजदीप सरदेसाई , अर्णब गोस्वामी या रवीश कुमार बन जाए …ज्ञान के गुमनाम ग्रह से आए ऐसे बच्चों को लगता होगा कि मीडिया संस्थानों में कोई ऐसा डबल डोज या मुगली घुट्टी 555 जरुर मिलता होगा , जिसका सेवन करने के बाद उन्हें टीवी पर चमकने से कोई रोक नहीं पाएगा . ये टीवी मीडिया के आकर्षण का असर है . क्या बीस – पच्चीस साल पहले पत्रकारिता में ऐसा कोई आकर्षण था ? कितने मां – बाप ऐसे रहे होंगे , जो अपने बच्चों को पत्रकार बनाना चाहते होंगे ?
अगर 20-25 -30 साल पहले के दौर में लौटें तो उस दौर में तो जो पत्रकारिता के रास्ते पर चल पड़ता था या अखबारों में लिखने की लत जिसे लगने लगती थी , उसे लोग बिगड़ गया , अब किसी का नहीं है …की श्रेणी में डाल देते थे . इस लड़के का अब कोई इलाज नहीं ..गया काम से टाइप की सोच के साथ. मेरे पिता इस मामले में थोड़ा अलग थे , इसलिए उन्होंने कभी मुझे रोका नहीं . मैं मुजफ्फरपुर में लोकल अखबार प्रात : कमल के चक्कर लगाता , कल्याणी चौक पर हर सुबह पटना के आए अखबारों के बंडल खुलने से पहले पहुंच जाता. दोपहर बाद दिल्ली से छपकर आने वाला जनसत्ता और नवभारत टाइम्स की पहली कॉपी हासिल करने के लिए रेलवे स्टेशन पर तैनात रहता …ऐसा ही हमारे साथी भी करते थे .
मुजफ्फपुर से जब आगे का रास्ता तलाशने पटना शिफ्ट हुए तब भी हमारा कुछ ऐसा ही रुटीन हुआ करता था . जनसत्ता में उन दिनों आलोक तोमर, सुरेन्द्र किशोर , महेश पांडे , अनिल बंसल , राकेश कोहरवाल , महादेव चौहान , विनीत नारायण , सुशील कुमार सिंह , कुमार आनंद , हरिशंकर व्यास , आत्मदीप , जयप्रकाश शाही की धारदार रिपोर्ट छपा करती थी . संपादकीय पन्ने पर वनवारी , जवाहर लाल कौल से लेकर तमाम लोगों के लेख छपा करते थे . दिल्ली से लेकर अलग – अलग सूबों में तैनात जनसत्ता के इन रिपोर्टर्स की खबर पढ़कर हम इन जैसा बनने की सोचते . लेकिन दिमाग में एक बात हमेशा आती कि अभी दिल्ली बहुत दूर है. ये सब बड़े नामचीन लोग हैं . इन जैसा बनने और इन जैसा लिखने के लिए मुझे बहुत लंबा सफर तय करना होगा . जनसत्ता के कई रिपोर्टर की कतरनें संभाल कर रखते ( तब गूगलावतार नहीं हुआ था कि आप नाम टाइप करें और टन्न स कई खिड़कियां खुल जाएं ) .
प्रभाष जोशी के लिखे अग्रलेख और संपादकीय तो मैंने दस साल तक संभालकर रखे थे . जनसत्ता में प्रभाष जोशी और आलोक तोमर ने जितना भी लिखा , शायद ही कुछ ऐसा रहा होगा ,जो मैंने न पढ़ा हो . बाद के सालों में लखनऊ रिपोर्टर हेमंत शर्मा मेरे प्रिय रिपोर्टर की लिस्ट में शुमार हो गए थे . हेमंत शर्मा की लिखी रिपोर्ट की लाइनें आज भी मुझे याद है . पिछले दिनों उनसे हुई बातचीत में भी मैं उन लाइनों का जिक्र कर रहा था . प्रभाष जी के लेख , उनके विचार , उनकी भाषा और पैनापन कोई कैसे भूल सकता है . देश के न जाने कितने शहरों में , न जाने कितने युवा जनसत्ता पढ़ पढ़कर पत्रकार बनने निकल पड़े होंगे.
बीस साल पहले छोटे शहरों से जो युवा पत्रकारिता में आ रहे थे या आना चाह रहे थे, उनके सामने भविष्य का कोई सुनहरा सपना नहीं था .दिल्ली या मुंबई जैसे शहरों में मकान , महंगी गाड़ी और लखटकिया नौकरी तो सपनों के आखिरी सिरे पर भी नहीं थी . ज्यादातर लड़के अखबार और पत्रिकाएं पढ़ते हुए इस अनजाने रास्ते की तरफ बढ़ते थे और लेटर टू एडिटर से उनका सफर शुरु होता था . उस जमाने में चिट्ठियां छप जाना , आज बड़े चैनल पर पीटीसी चलने से ज्यादा रोमांच देता था . रविवार , घर्मयुग , दिनमान , साप्ताहिक हिन्दुस्तान , माया जैसी पत्रिकाएं निकलती थी और पिता जी ऐसी पत्रिकाएं जब घर लाते थे तो उन्हें देखते पलटते हुए पत्रकारिता के रास्ते पर चलने के सूत्र मिलते थे. मैं बिहार में था लिहाजा पटना से निकलने वाले अखबारों में छपने वाले नामों ( उर्मिलेश, वेद प्रकाश वाजपेयी , श्रीकांत , नवेन्दु, हेमंत , आनंद भारती , मणिमाला, गंगा प्रसाद , सुकीर्ति , प्रभात रंजन दीन ( पहले दीन नहीं थे ) समेत कई नाम, जिनका जिक्र मैं पहले भी कर चुका हूं कई बार ) की जगह अपना नाम छपने की कल्पना करते थे .
तो बीस – पच्चीस या तीस साल पहले पत्रकारिता में आने का आकर्षण क्या था …? टीवी तो किसी गर्भगृह में कैद रहा होगा . ले –देकर दूरदर्शन था , जिस पर न्यूज बुलेटिन आता था . घर परिवार के लोग एक साथ बैठकर टीवी पर सलमा सुलतान , शम्मी नारंग , सरला महेश्वरी , मंजरी जोशी , गजाला अमीन जैसे चेहरों से खबर सुना करते थे . घर घर में इन चेहरों को लोग पहचानते थे लेकिन हमारे मन में कभी ऐसी ख्वाहिश नहीं जगी कि हम भी इनके जैसा बन सकते हैं . हमें तो लिखे हुए शब्दों की ताकत की अपनी ओर खीचती थी . लेकिन आज के हालात कितने बदल गए हैं . ऐसा नहीं है कि बाद के सालों में मेरे भीतर टीवी रिपोर्टर बनने की ख्वाहिश नहीं जगी ….जब जी न्यूज ( जो तब जी इंडिया था ) लांच हुआ और रजत शर्मा इसके संपादक हुए तो पहली बार टीवी न्यूज मीडिया के प्रति आकर्षण हुआ .
उससे पहले 89-90 में वीडियो मैगजीन हुआ करती थी . इंडिया टुडे ग्रुप न्यूज ट्रैक नाम से आधे घंटे का कैसेट निकालता था . संडे ऑवजरवर और हिन्दुस्तान टाइम्स ग्रुप की भी वीडियो मैगजीन आती थी. इनके रिपोर्टर बड़े – बड़े कैमरे लेकर हर बड़ी प्रेस कान्फ्रेंस में नजर आते. हम जैसे लोग इन्हें औचक नजरों से देखते. उस दौर में नूतन मनमोहन , मनोज रघुवंशी और अनुराधा प्रसाद को हमने कैमरों के साथ दौड़ते – भागते देखा था . कभी – कभी किसी के यहां वीसीपी ( जो बाद में वीसीआर हुआ और फिर अपनी उपयोगिता खोता हुआ कहीं जाकर दफन हो गया ) पर वीडियो मैगजीन देखा करते थे। 1995-96 में रजत शर्मा ने जी इंडिया पर ‘आप की अदालत’ नाम का कार्यक्रम भी शुरू किया और हर रोज शायद एक घंटे का बुलेटिन भी । इस बुलेटिन के लिए कई रिपोर्टर रखे गए …उसी टीम में विनोद कापड़ी , सुधीर चौधरी , इरफान खान , नवीन शर्मा जैसे कई रिपोर्टर अपनी पहचान बनाने लगे थे .
प्रिंट में काम करने वाले बहुत से लोगों को टीवी मीडिया के लड़कों से कंप्लेक्स पैदा होने लगा था …एक तो वजह ये थी टीवी वालों को पैसे ज्यादा मिलते थे . दूसरे वो हमेशा कार से चलते थे ( अपनी यूनिट के साथ ) , जबकि प्रिंट के लोगों को बसों में भी धक्के खाकर प्रेस कान्फ्रेंस में पहुंचना होता था . तीसरे कि उनके चेहरे टीवी पर चमकते थे . चौथा – नेता लोग टीवी कैमरे वाले नए नए लड़कों को कई बार ज्यादा भाव देते थे …और भी कुछ वजहें रही होंगी ….उसी दौर में डीडी पर आधे घंटे का बुलेटिन ‘आजतक’ शुरु हुआ . एस पी सिंह के नेतृत्व में टीम बनी . कुछ चेहरे पर्दे पर दिखते थे , कुछ परदे के पीछे काम करते थे . परदे पर दिखने वाले चेहरों का जिक्र मैं पहले कर चुका हूं . परदे के पीछे काम करने वालों में कमर वहीद नकवी सबसे प्रमुख थे . अपने लोगों के बीच दादा के नाम से मशहूर नकवी जी ने ही शायद इस सरकारी टीवी पर जन्मे पहले प्राइवेट बच्चे ( न्यूज बुलेटिन की शक्ल में ) का नामकरण किया था – ‘आजतक’ …
‘आजतक’ की भाषा बोलचाल की भाषा था और ये थी खबरें आजतक देखते रहिए कल तक लोगों की जुबान पर कुछ ही दिनों में चढ़ गया …परदे के पीछे काम करने वालों की टीम में पुण्य प्रसून वाजपेयी और सुप्रिय प्रसाद ( मैनेजिंक एडिटर , आजतक ) भी थे . पुण्य प्रसून आजतक के टिकर डेस्क ( पीटीआई ) पर बैठा करते थे और सुप्रिय ने ट्रेनी से शुरुआत की थी . और भी कई लोग थे …आजतक के पैदा होने और बड़े होने से लेकर विराट होने तक की कहानी के कई किरदार हैं …पहले बुलेटिन और फिर चैनल बने आजतक ने एक से एक टीवी पत्रकार पैदा किए हैं ….सैकड़ों लोगों को पहचान दी है ….साउथ एशिया के सबसे बड़े मीडिया साम्राज्य स्टार इंडिया के सीईओ उदय शंकर को आज कौन नहीं जानता लेकिन आजतक से पहले उन्हें कौन जानता था …आईबीएन -7 के संपादक आशुतोष , एबीपी के मैनेजिंग एडिटर मिलिंद खांडेकर समेत कई लोग एसपी और आजतक की पाठशाला से निकले . कोई यहां , कोई वहां गया …कोई यहां गिरा …कोई वहां गिरा …आजतक को मैंने कई सालों तक बाहर रहकर भी देखा और करीब एक साल तक भीतर रहकर भी …..किस्से अभी बाकी हैं , पढ़ते रहिए फेसबुक
( ये कहानी लंबी है —अभी जारी है )
(स्रोत – फेसबुक)
यह बिल्कुल सही बात है आज के मीडिया जगता के छात्रों के लिए ग्लैमर की चकाचौंध में इनकी आंखें बंद कर रखी हैं और दिग्गजों का सामने से हो रहा सफाया भी इनको नहीं दिखता बस दिखता है तो जागते-सोते अपना चेहर टीवी स्क्रीन पर।
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