वरिष्ठ पत्रकार अजय एन झा की एक चिठ्ठी मीडिया खबर के मीडिया कॉनक्लेव और एस.पी.सिंह स्मृति व्याख्यान को लेकर :
अजय एन झा,वरिष्ठ पत्रकार
श्री पुष्कर पुष्प जी,
मैं तो उस मरहूम सहाफी एस पी सिंह को अपना सलामे -अकीदत पेश करने के लिहाज़ से पहुंचा था. मगर वहां का नज़ारा और जिन लोगों की गोल और गिरोह्गीरी का नमूना देखा वो शायद अगली बार वहां आने के लिए प्रेरित नहीं करे.
मुझे लगता है कि आप ने जो कदम पांच साल पहले उठाया था वो अपने आप में बेमिसाल था जिस महकमे को एस पी ने इज्ज़त बख्शी और जिस महकमे के लिए काम करते करते उसने जान तक दे दी, उसी महकमे के लोग आज उसकी पुण्यतिथि पर उसको याद करने का ज़हमत भी गंवारा नहीं करते.
मगर आप ने तो एस.पी. को रु-ब-रु देखा भी नहीं होगा. फिर भी आपने एस पी की यादों की कंदील जलाकर उसके हमनवा दोस्तों और सहकर्मियों को एक जगह इकट्ठा किया और बदस्तूर करते चले आ रहे हैं, इसके लिए आप बधाई के पात्र हैं. एस पी के हरेक साथी को आपका तहे-दिल से हौसला बढ़ाना चाहिए.
मगर अगली बार कुछ बातों का ध्यान रखा जाए :
१. ऐसे मौके पर जिस मसले पर संजीदगी से तज्कारा और तप्सरा करने की ज़रुरत है, उसको पूरे अदाबो-एहतराम के साथ उठाया जाये और उसके साथ इन्साफ किया जाए. वरना हर कोई वहां पहुंचकर अपनी भड़ास और एक – दूसरे पर इल्जामातों की झड़ी लगाने लगता है.
२. मसले ऐसे हों जिनपर बहस के बाद कोई समाधान ठोस रूप से बाहर निकले.
३. हमारे मुल्क में आज सहाफत एक ऐसे नाज़ुक दौर से गुज़र रहा है जहाँ कुछ लोगों की हरकतों से ये पेशा बदनाम होता जा रहा है. कुछ लोगों की नामाकूलियत से पूरे सहाफी समाज पर इल्जामत लगने शुरू हो गए हैं और कुछ इल्जामत वाजिब भी हैं.
४. वहां पर पर कुछ पत्रकारों और पत्र के कुछ आड़े तिरछे आकारों से शाह और बादशाहों के बीच वाक्य युद्ध को देख कर बड़ा ही हैरान था. एक ज़माना था जब सहाफत पर सियासत होती थी. उसके बाद सियासत पर सहाफत होने लगी और अब आलम ये है कि सहाफत पर तिजारत होने लगी है. अगरचे हम आज ऐसे मोड़ पर हैं तो उसके लिए हम खुद जिम्मेवार नहीं हैं क्या?
५ आजकल पत्रकार शायद वही है जो हर विषय पर धकाधक बोलता है और हर चैनल पर सुबह शाम दिखता है. विषय चाहे कोई भी हो. मगर उसके ब्र्रह्ममुख से निकले हुए तर्क या कुतर्क उत्तराखंड की भयानक बारिश से कम नहीं. फिर बेचारी सहाफत की ऐसी –की- तैसी तो होनी थी. मगर कोफ़्त तब होती है जब सहाफत के कुछ बादशाह और शाह एक अपनी नैतिकता का ज्ञान बघारते हैं और शाम को मालिकों की महफ़िल में बाकी सब कुछ उड़ेलते हैं. ऐसा लगता है जैसे कोई ७० साल की तवायफ किसी युवती को कुवारेपन सहेजकर रखने के फायदे के बारे में नसीहत दे रही हो.
६. मगर हैरानी इस बात कि है कि एक अदना से चैनल के पत्रकार ने एक गरीब के कंधे पर बैठ कर कुछ व्याख्यान दे दिया तो उसकी नौकरी चली गयी मगर किसी और ने इरिडियम फ़ोन का इस्तेमाल कर ३६ फौजियों को मरवा भी दिया और पद्मश्री भी प्राप्त कर लिया. हमारा सहाफी समाज भी क्या इसी बात का कायल है कि जिसकी लाठी उसकी भैंस या फिर कुछ और ? इस बात पर बहस क्यों नहीं होती है?
७. मीडिया के कुछ आकाओं को बोलते हुए सुना कि मीडिया भी अब इंडस्ट्री हो गयी है और पत्रकारिता का भी बिज़नस मॉडल है और होना चाहिए. अगर मीडिया भी इंडस्ट्री हो गयी तो फिर इमानदारी, विश्वसनीयता और प्रजातंत्र का चौथा खम्भा नामक ढोंग क्यों? फिर पीआईबी और मुख्तलिफ सुविधाओं और चोंचलेबाजी का नाटक क्यों? फिर सरकारी सुविधाओं और सहूलियतों के लिए रिरियाना और घिघियाना क्यों? इतना कहने और मानने की हिम्मत भी तो कोई जुटाए कि पहले हम खबरची थे और अब खबरखोर हो गए हैं. पहले हम बाज़ार में थे और अब कमोबेश बाजारू हो गए हैं.
८. और भी ज्यादा हैरानी तब हुई जब कुछ वरिष्ठ पत्रकारों ने एक सहाफी को दिए गए पुरस्कार पर सवाल उठा दिया और उसी के चक्कर में अपने किरदार का सही मुजाहरा भी कर दिया. ऐसी हरकतों को कोई मुहज्ज़ब समाज शाबाशी नहीं देता. मुझे उम्मीद है कई अगली बार आप इन बातों का ख्याल रखेंगे और कम –से- कम उस मरहूम अज़ीम सहाफी के नाम पर ऐसे तमाशे से बचेंगे. मैंने आप के ही साईट पर एक मोहतरम का बयां पढ़ा कि ‘क्यों न इस सालाना व्यायाम को बंद कर दिया जाए? ये इस समस्या का समाधान नहीं है.
मेरी गुजारिश ये है कि अगर आप पूरी दुनिया पर ऊँगली उठाते हैं और उसका धौस भी जमाते हैं तो कम से कम इतनी भी तो हिम्मत दिखाएँ कि कभी – कभार भूले से सी सही, अपने भी गिरेबान में झाँकने का हौसला भी तो रखें.
तमाम नेक दुआओं के साथ
अजय एन झा