12 मिनट के विज्ञापन पर टेलीविजन इंडस्ट्री में हाय–तौबा क्यों?

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टेलीविज़न चैनलों के प्रबंधक-स्वामी विज्ञापनों की समय-सीमा निर्धारित कर दिए जाने से बहुत नाराज़ हैं। भारतीय दूरसंचार नियामक यानी ट्राई द्वारा तय किए गए नियम को वे टेलीविज़न उद्योग के लिए घातक बता रहे हैं और माँग कर रहे हैं कि इसे न लागू किया जाए। मुमकिन है कि वे ट्राई के फ़ैसले के ख़िलाफ़ अदालत भी चले जाएं और एक बार फिर उसे रुकवाने में कामयाब हो जाएं। ऐसा पहले भी हो चुका है। पिछले साल मई में जब ट्राई ने नियम जारी किए थे तो टीवी उद्योगपतियों ने जमकर हो-हल्ला मचाया था और उन पर अमल स्थगित करना पड़ा था। इस लगभग एक साल के दौरान ट्राई ने सभी पक्षों से जमकर विचार-विमर्श करने के बाद संशोधित नियम लागू करने का ऐलान किया है। उसने तय किया है कि एक घंटे की अवधि में बारह मिनट से ज्यादा के विज्ञापन नहीं दिखाए जा सकेंगे। इन बारह मिनटों में से दस मिनट व्यवासायिक विज्ञापनों के लिए होंगे और दो मिनट अपने कार्यक्रमों के प्रचार के लिए। तमाम उपभोक्ता संगठनों ने इसका स्वागत ही किया है, लेकिन प्रसारकों द्वारा इन संशोधित नियमों का भी विरोध किया जा रहा है। ज़ाहिर है कि वे चाहते हैं कि उनकी मनमानी पहले की तरह चलती रहे।

टेलीविज़न प्रसारक विरोध की कई वजहें बता रहे हैं, जिनमें टीवी चैनलों के कारोबारी मॉडल के लड़खड़ाने का ख़तरा भी शामिल है। लेकिन ये बहुत साफ़ है कि असली कारण क्या हैं। दरअसल, वे नहीं चाहते कि उन्हें किसी नियमन में बाँधा जाए, ताकि वे जो ठीक समझें करते रहें। इसीलिए वे आत्मनियमन और अंतरराष्ट्रीय चलन की दुहाई दे रहे हैं। सवाल उठता है कि अगर आत्म नियमन के प्रति वे इतने ही सजग और गंभीर होते तो ट्राई के हस्तक्षेप की ज़रूरत ही क्यों पड़ती। ट्राई ने ये नियम अचानक तो लागू करने का फ़ैसला किया नहीं है। ट्राई ने तो कोई नया नियम-कानून भी नहीं बनाया है, बल्कि वह सन् 1994 में बने केबल नेटवर्क नियमन अधिनियम के प्रावधान को ही लागू करने की कोशिश कर रहा है। इन बीस सालों में प्रसारकों को भरपूर समय मिला था जब वे पहले से बने नियमों को लागू करके अपनी ईमानदारी और आत्मनियमन का परिचय दे देते, मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया।

दरअसल, बार-बार ये सिद्ध हो रहा है कि प्रसारकों को दर्शकों की कोई चिंता ही नहीं है। वे सिर्फ़ अपने कारोबारी हितों या खुलकर कहा जाए तो मुनाफ़े में लगातार बढ़ोतरी के बारे में ही सोच रहे हैं। वे दलील दे सकते हैं कि ज़्यादातर चैनलों की आर्थिक हालत पस्त है और मुनाफ़ा तो दूर अपना खर्च ही निकाल पाने में वे नाकाम हो रहे हैं। ऐसे में पूछा जा सकता है कि उन्हें ऐसे उद्योग में आने की ही क्या ज़रूरत थी जिसमें घाटे की आशंका ज़्यादा है और वे ढेर सारे चैनल जो कतार में हैं, क्यों ओखली में सिर देने पर आमादा हैं? कहीं तो कुछ परोक्ष या प्रत्यक्ष लाभ वे देख ही रहे होंगे? बिना लाभ की उम्मीद के कोई उद्योगपति जोखिम भरा निवेश क्यों करेगा?

पिछले साल ट्राई ने जो नियम जारी किए थे, उनमें कई विसंगतियाँ थीं इसलिए उनका विरोध समझ में आने वाला था। लेकिन अब उसने उन्हें दूर कर दिया है। ट्राई ने दो ब्रेक के बीच के अंतर को तीस मिनट से घटाकर पंद्रह मिनट कर दिया है और खेल के चैनलों के लिए विशेष छूट भी दी है। इसके अलावा विज्ञापन के कुछ प्रकारों पर से भी उसने पाबंदी हटा ली है। कुल मिलाकर अधिकांश आपत्तियाँ दूर कर दी गई हैं मगर प्रसारकों द्वारा फिर भी क्यों विरोध किया जा रहा है? विरोध इसलिए किया जा रहा है कि उनकी नीयत में ही खोट है। जिस तरह टेलीविज़न की सामग्री के मामले में आत्म नियमन सुधारों को लागू न करने या उन्हें जब तक हो सके टालने का बहाना बना लिया गया है, उसी तरह यहाँ भी उसे ढाल की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है।

सवाल उठता है कि उनके आत्मनियमन के तर्क पर भरोसा कैसे किया जाए? अभी तक उसने एक भी मिसाल ऐसी पेश नहीं की है जिससे यकीन हो सके कि उसे दर्शकों की चिंता है? हक़ीक़त तो ये है कि दर्शकों की परेशानी का कोई अंत ही नज़र नहीं आता। चैनलों में दर्शनीय सामग्री से ज़्यादा विज्ञापनों की भरमार कर दी गई है। आलम ये हो गया है कि उन्हें दो-चार ख़बरें देखने के बदले में ढेर सारे विज्ञापन झेलने पड़ते हैं। नियमानुसार उन्हें छह मिनट विज्ञापन दिखाने चाहिए मगर वे बारह से बीस मिनट तक। ये दर्शकों पर अत्याचार नहीं है तो और क्या है।

मनोरंजन चैनलों का हाल भी कुछ ऐसा ही है। हर एक दृश्य के बाद लंबा ब्रेक। तीस मिनट के धारावाहिक में पंद्रह से अट्ठारह मिनट की सामग्री होती है बाक़ी विज्ञापन। दो घंटे की फिल्में साढ़े तीन-चार घंटों में ख़त्म होती हैं। ख़ास मौक़ों पर जैसे दीपावली या किसी त्यौहार के समय तो ये अवधि सारी सीमाएं लाँघ जाती है। उस समय तीस से चालीस मिनट तक के विज्ञापन न्यूज़ चैनलों पर चलते देखे गए हैं। मुख्य समाचारों के बाद ही विज्ञापन शुरू हो जाते हैं।

सवाल उठता है कि दर्शकों को इस समस्या से कौन उबारेगा। टीवी उद्योग जगत कहता है कि इसे आत्म नियमन के भरोसे छोड़ दो। ये शेर के सामने मेमनों को डाल देने जैसी बात है। बाज़ार की दाढ़ में मुनाफ़े का ख़ून लग चुका है और वह किसी तरह की रहमदिली दिखाने को तैयार नहीं दिखता। ऐसे में सरकार या ट्राई अगर नियमन के ज़रिए उसके अधिकारों की सुरक्षा करना चाहता है तो उसकी राह में रोड़े नहीं अटकाए जाने चाहिए। ध्यान रहे कि न ट्राई और न ही सरकार बाज़ार विरोधी हैं, बल्कि उसके हिमायती हैं और उनका ये क़दम भी दरअसल बाज़ार को बचाने के लिए ही है। आखिरकार उपभोक्ता (सरकार, ट्राई और टीवी उद्योग दर्शकों को उपभोक्ताओं के रूप में ही देखते हैं) भी बाज़ार का महत्वपूर्ण हिस्सा होता है और उसे असंतुष्ट रखकर प्रसारक अपने भले की बात वह कैसे सोच सकते हैं।

ट्राई के इस क़दम का सबसे बड़ा फ़ायदा तो यही होगा कि टीवी के दर्शकों की संख्या में इज़ाफ़ा होगा, वे ज़्यादा देर तक टीवी देखेंगे और ध्यान से देखेंगे, क्योंकि उन्हें विज्ञापन परेशान नहीं करेंगे। यानी प्रसारकों के पास पहले से बड़ा दर्शक वर्ग होगा, जिसे वे विज्ञापनदाताओं को बढ़ी हुई दरों पर बेचकर पहले से ज़्यादा राजस्व अर्जित कर सकेंगे। ये सही है कि समय खरीदने के लिए विज्ञापनदाताओं को ज़्यादा पैसे खर्च करने पड़ेंगे मगर वे ज़्यादा कीमत भी वसूल सकेंगे, क्योंकि जब विज्ञापनों की संख्या सीमित होगी तो दर्शक उन्हें ध्यान से देखेगा। अभी तो ब्रेक आते ही वह चैनल बदलने लगता है, जिसका मतलब है विज्ञापनों पर होने वाले खर्च का बरबाद होना।

विज्ञापनों की समय-सीमा निर्धारित हो जाने से टीवी चैनलों को घाटा पूरा करने के लिए विज्ञापनों की दरें बढ़ानी पड़ेंगीं। अनुमान है कि ये बढ़ोतरी दोगुनी होगी। इस बढ़ोतरी से पूरा विज्ञापन उद्योग का कारोबार नए सिरे से निर्धारित होगा। तब वह मात्रा के बजाय गुणवत्ता पर जाएगा। बड़े चैनलों में अवधि कम हो जाने से ज़ाहिर है कि उन्हें दरें बढ़ाने में सुविधा होगी और यही सिलसिला नीचे तक जाएगा। नतीजतन, इसका लाभ सभी चैनलों को होगा। ऐसा नहीं है कि प्रसारक इस फ़ायदे को देख नहीं रहे होंगे, लेकिन उन्हें चूँकि विरोध करना है इसलिए वे करते रहेंगे।

दिलचस्प बात ये है कि टीवी उद्योग द्वारा जारी किए जाने वाले आँकड़े ही कहते हैं कि उसके वार्षिक विकास की दर चौदह फ़ीसदी के आसपास है। उसका विज्ञापन राजस्व भी दूसरे सभी माध्यमों की बनिस्बत तेज़ी से बढ़ रहा है। प्रिंट मीडिया को मिलने वाले विज्ञापनों के वह बिल्कुल करीब पहुँच गया है और अगले तीन साल में उसे पीछे छोड़ देगा। यानी मंदी का उसका रोना ठीक नहीं है। वैसे भी सन् 2008 की घोषित मंदी के दौरान भी टीवी उद्योग की विकास दर करीब बारह फ़ीसदी की रही थी, जो कि दूसरे उद्योगों की तुलना में अच्छी-ख़ासी थी। उसका ये तर्क भी ठीक नहीं है कि पश्चिमी देशों में विज्ञापनों पर खर्च होने वाला राजस्व भारत से कई गुना ज्यादा है। अव्वल तो ये तुलना ही ग़लत है और अगर करनी ही है तो फिर दूसरे पक्षों जैसे कंटेंट पर होने वाले खर्च को भी देखना होगा।

टेलीविज़न प्रसारकों का ये कहना एक हद तक सही है कि हिंदुस्तान में टीवी चैनलों की आय का मुख्य स्रोत विज्ञापन ही हैं। उन्हें सदस्यता शुल्क से कोई कमाई नहीं होती, जैसी कि पश्चिमी देशों में होती है। इसके विपरीत चैनल के वितरण के लिए उन्हें मोटी रकम खर्च करनी पड़ती है। एक अनुमान के मुताबिक एक राष्ट्रीय चैनल को देश भर में कायदे से दिखने के लिए पचास से पचहत्तर करोड़ रुपए सालाना खर्च करने पड़ते हैं। वितरण के इस भारी-भरकम खर्च ने टीवी चैनलों की कमर तोड़ रखी है। स्थापित चैनलों के लिए तो फिर भी ठीक है, मगर बाक़ी के लिए वितरण और दूसरे खर्चों को विज्ञापन के ज़रिए निकाल पाना असंभव सा लक्ष्य होता जा रहा है।

केबल नेटवर्क के डिजिटाइज़ेशन की प्रक्रिया ने वितरण खर्च में कमी की रास्ता खोल दिया है। पहले दौर में चार महानगरों के नेटवर्क डिजिटल हो गए हैं और इससे वितरण का खर्च बीस से तीस फ़ीसदी तक कम हो गया है। डिजिटाइज़ेशन के दूसरे चरण में अन्य बड़े शहरों के नेटवर्क डिजिटल हो रहे हैं और अगले दो साल में पूरे देश में प्रसारण डिजिटल हो जाएगा। उम्मीद है कि इससे वितरण का खर्च काफी कम हो जाएगा। प्रसारक चाहते हैं कि ये काम पूरा हो जाए तब विज्ञापनों की समय-सीमा तय की जाए। लेकिन दो-तीन साल तक दर्शकों को प्रताड़ना झेलनी पड़े इसमें कोई तुक नहीं है। ये अवश्य हो सकता है कि विज्ञापनों की अवधि को छह महीनों से लेकर साल भर तक की अवधि में दो या तीन चरणों में बाँट दिया जाए, जिससे टीवी उद्योग जगत इस झटके को बर्दाश्त करने की ताक़त पैदा कर ले।

भारतीय टेलीविज़न उद्योग जिस स्थिति में आज है वह बहुत ही अव्यवस्थित है और उसमें तमाम तरह की अवाँछित और अनैतिक प्रवृत्तियाँ काबिज़ हो गई हैं। ये बहुत आवश्यक है कि एक बड़ी सफ़ाई हो, ताकि गंदगी छँट सके। ये काम नियमन के ज़रिए ही संभव होगा। हो सकता है बहुत सारे चैनल नई चुनौतियों के मद्देनज़र बदलाव करके खुद को बेहतर बनाएं और कुछेक इस प्रयास में खेत रहें। लेकिन ऐसे बीमार और अधकचरे चैनलों का नष्ट हो जाना ही बेहतर है। एक बेहतर अनुशासन और नियमन भविष्य में आने वाले चैनलों को भी सावधान करेगा और वे पूरी तैयारी से आएंगे। लिहाज़ा बदलाव की पहलों का रास्ता रोका नहीं जाना चाहिए, साफ़ किया जाना चाहिए। ट्राई और सरकार को प्रसारकों के विरोध को दरकिनार करके न केवल विज्ञापनों की अवधि को सख़्ती से लागू करना चाहिए, बल्कि इसके अगले चरण में विज्ञापनों की सामग्री में आई गिरावट को दुरुस्त करने के लिए भी कड़ाई करनी चाहिए।

मुकेश कुमार (लेखक वरिष्ठ टेलीविजन पत्रकार हैं. तकरीबन 20 वर्षों से पत्रकारिता की दुनिया में सक्रिय हैं. दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम ‘सुबह सवेरे’ से इन्हें लोकप्रियता मिली. कई न्यूज़ चैनलों में वरिष्ठ पद पर रहे. देश के पहले एचडी न्यूज़ चैनल ‘न्यूज़ एक्सप्रेस’ को लॉन्च कराने का श्रेय भी इन्हें प्राप्त है. लेख मूलतः जनसत्ता में प्रकाशित. जनसत्ता से साभार)

1 COMMENT

  1. जहां तक “आज तक” और “इंडिया टी.वी.” का सवाल है , ये दोनों चैनल्स बहुत ज़्यादा विज्ञापन दिखा रहे हैं ! ये दोनों चैनल इस कदर विज्ञापन दिखाते हैं कि समझ में नहीं आता कि ये न्यूज़ चैनल्स हैं या विज्ञापन के चैनल्स हैं ! इन दोनों टी.वी.चैनल्स पर सरकार को बारीक नज़र रखनी चाहिए !

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