आजतक के एक्सेक्यूटीव एडीटर संजय सिन्हा की बुक ‘रिश्ते’ का लॉन्च दिल्ली के कनॉट प्लेस में ऑक्सफोर्ड बुकस्टोर में हुआ। बुक लॉन्च की देश के बच्चों को सिंघम बनाने वाले अजय देवगन ने। अजय देवगन आए, बुक लॉन्च की, संजय सिन्हा से अपनी बरसों की जान-पहचान को बताया और बुक के विषय मानवीय जीवन में रिश्तों को लेकर अपनी बात कहीं। इस पूरे कार्यक्रम में एक बात बीजेपी बीट कवर करने वाले मेरे जैसे पत्रकारों के लिए थी। संजय सिन्हां की फेसबुक स्टेट्स पर लिखी इस किताब को प्रकाशित किया था दिल्ली के मानी-गिरामी प्रभात प्रकाशन ने। प्रभात प्रकाशन भले ही पुस्तकों के प्रकाशन में हो, लेकिन उसका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा को लेकर झुकाव उसके द्वारा प्रकाशित पुस्तकों से पता चलता है।
संजय सिन्हा से बुक ‘रिश्ते’ के लॉन्च के बाद बेबाक बात हुई। बात शुरु करने के पहले ही संजय सिन्हा को आगाह कर दिया कि सवाल वैसे ही होंगे, जो आप एक रिपोर्टर के रुप में देश-विदेश में पूछते आए। जब सुनामी कवर करते वक्त आपने सरकारी महकमों के कारिंदों को सवालों की बौछारों से नहीं छोड़ा, तो खुद के लिए भी तैयार हो जाइए। ये वहीं संजय सिन्हा है, जो गुजरात के भूकंप की रिपोर्टिंग से दिली तौर पर इतने परेशान हो गए थे, कि जो टीवी कैमरे पर नहीं कह पाए, वो सारा कागजों में कलम के माध्यम से कह डाला था। अमेरिकी इतिहास के अबतक के सबसे बड़ा हादसा माने जाने वाले 9/11 अटैक को कवर करने वाले संजय सिन्हा से बात कर लगा कि हादसों को कवर करते-करते इनकी ज़िंदगी पर भी उस रिपोर्टिंग का असर पड़ा है। क्योंकि बकौल संजय सिन्हा फेसबुक पर रिश्तों को लेकर लिखा कोई प्लानिंग नहीं, एक हादसा-सा ही था।
पहले तो लगा कि संजय सिन्हा भी उन खबरनवीसों में से हो सकते है, जो सोशल मीडिया से अपनी ब्रांडिंग कर रहे हो, खुद का नाम एक ब्रांड के रुप में चमका रहे हो। ऐसे सवाल पर वो विचलित नहीं हुए, और बताया कि कैसे एक हादसे ने रिश्तों को सोशल मीडिया पर कलमबद्ध करने की नींव रखी। हादसों की रिपोर्टिंग और अपने भाई की मौत से दिली तौर पर हिल गए संजय सिन्हां ने दरअसल खुद को बीजी रखने के लिए फेसबुक पर लिखना शुरु किया। क्योंकि टीवी रिपोर्टर कैमरे के सामने ज्यादा नहीं कह पाता, तो संजय सिन्हां ने सारी बातें अपने फेसबुक स्टेट्स में कहनी शुरु की। और फिर वहीं हुआ जैसा कवि नीरज ने कहा- हम चलते रहे, कारवां बढ़ता गया। एक साल में फेसबुक स्टेट्स में लिखे अपने तमाम स्टेट्स को लेकर एक किताब की शक्ल दे दी गई।
वैसे जर्नलिस्ट की पारिवारिक ज़िंदगी कभी आसान नहीं होती, तो फिर खुद को देश का सबसे तेज कहने वाले न्यूज़ के एडिटर की कैसे होती, तो हादसों को कवर करता रहा हो। ये सवाल चुभता जरुर है, लेकिन पत्रकारों की निजी ज़िंदगी का सच होता है। संजय सिन्हां की पत्नी दीपशिखा ने भी माना कि हादसों को कवर करते-करते उनके पति कभी-कभी बहुत संवेदनशील हो जाते थे, और खासकर तब, जब टीवी कैमरे के सामने चाहकर भी बहुत सी बातें बयां करने की आजादी ना हो। ऐसे में फेसबुक पर शुरु हुए मानवी रिश्तों के एक हादसों को कवर करने वाले रिपोर्टर द्वारा पोस्टमॉर्टम संजय सिन्हां को उस प्रोफेशनल फ्रस्टेशन से बाहर निकाल पाया। ‘हां, संजय इसके बाद से ज्यादा सकारात्मक हुए’-
दीपशिखा का बयान मुक्तिबोध की पंक्तियां याद दिलाता है- जो है, उससे बेहतर चाहिए, सारी दुनिया को साफ करने के लिए एक मेहतर चाहिए, अफसोस मैं वो नहीं हो पाता हूं, और अपनी इसी बेचारगी पर आंसू बहाता हूं।
आजतक जैसे देश के नामी चैनल का एक्सेक्यूटिव एडिटर वो पा गया, जो उसे एक बड़ी नौकरी, बड़ी सैलरी, बड़ा घर, बड़ी कार या बड़ा पद औऱ उससे जुड़ा बड़ा सामाजिक सम्मान नहीं दे पाया। संजय सिन्हां को ढेर सारे ऐसे रिश्ते मिले, जो दरअसल वो अपने जन्म के साथ या परिवार से नहीं पाए थे। वो सोशल मीडिया की वर्चुल दुनिया से बटोरे गए थे।
देश के अलग-अलग हिस्सों से, अलग-अलग पेशों से, अलग-अलग जात-धर्म-रंग-भेद के। बुक लॉन्च के बाद संजय सिन्हां के चेहरे का सूकुन टीवी मीडिया की सच्चाई बयां कर रहा था- ज़िंदगी वो नहीं जो लोगों को दिखती है, ज़िंदगी कुछ औऱ भी हो सकती है, ज़रा तलाशिए तो।