अजीत अंजुम,मैनेजिंग एडिटर,न्यूज24 के यादों के झरोखे से(चौथी किस्त) : मुजफ्फरपुर से दिल्ली वाया पटना एवं गुवाहाटी
मुझे लगता है कि किसी भी नौकरीशुदा शख्स की जिंदगी में दो तरह के लोगों की भूमिका अहम होती है . एक ऐसे लोगों का , जिन्होंने उसे नौकरी दी . दूसरे ऐसे लोगों का , जिन्होंने नौकरी नहीं दी . मेरी जिंदगी में भी दोनों तरह के लोगों का अहम रोल है . 87-88 में पटना में एक अदद नौकरी के लिए भटक रहा था लेकिन नवभारत टाइम्स और दैनिक हिन्दुस्तान में नौकरी पाना बीपीएससी के इम्तेहान में पास होने की तरह था या फिर ऊपर वाले की मेहरबानी से किस्मत का ताला खुलने की तरह . तो न तो मुझमें इतनी प्रतिभा थी , न ही किस्मत कि इन दो अखबारों में नौकरी मिल पाती . हम खुद को इतना छोटा और उन अखबारों को इतना बड़ा मानते थे कि कभी पूरी शिद्दत से चाह भी नहीं पाते थे कि इस अखबार में नौकरी मिल जाए….लगता था ये चाहत ऊपरवाले से मनचाहा वरदान मांगने की तरह है और मनचाहा वरदान किसे मिल पाता है …सो हमने ‘ आज’ , ‘ पाटलिपुत्र टाइम्स’ और ‘जनशक्ति’ जैसे अखबारों में अपना ठिकाना तलाशने की कोशिश शुरु की . पटना के छपने वाले ‘आज’ अखबार में एक बार नौकरी – करीब करीब मिल गयी थी लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था . आखिरी मुलाकात एक ऐसे शख्स से हुई , जिसने मुझे आपादमस्तक घूरकर देखा , नाम पूछा …शहर पूछा …जाति पूछी और चलता कर दिया ….फिर नौकरी तो दूर उस अखबार में छपना भी बंद ही हो गया ….उन साहब के क्लियरेंस के बाद भी ‘आज’ में किसी को नौकरी मिलती थी और उन्होंने मेरा नाम क्लियर नहीं किया था .
ये बात शायद 88 की है . उन दिनों ‘आज’ के समाचार संपादक अविनाश चंद्र मिश्र ( इन दिनों पटना से समकालीन तापमान नामक पत्रिका निकालते हैं ) हुआ करते थे . अविनाश मझे बहुत मानते थे और अपने अखबार में लिखने के लिए प्रोत्साहित करते रहते थे . मैं कभी कुलियों की दुनिया पर तो कभी झुग्गी बस्ती की जिंदगी पर या उनके सुझाए विषय पर रिपोर्ताज लिखकर उन्हें दे आया करता था . अविनाश जी फीचर पन्ने पर उसे छापते थे और कुछ सप्ताह बाद मुझे हर रिपोर्ट के 50 रुपए नकद मिल जाया करते. जिस दिन पैसे मिलते , उस दिन जश्न मनाते … मुझे याद है जिस दिन मेरा छपना होता था , उसके पहले की रात मेरी आंखों से नींद गायब हो जाती थी और सुबह का इंतजार बेसब्री से करता था . अखबार में अपना नाम देखने के लिए . एक दिन अविनाश जी ने बताया कि एक दो लड़के की वेकेंसी है और आप आवेदन कर दीजिए . मैंने बायोडेटा दे दिया . पहली बार बायोडेटा किसी से टाइप करवाया .तब मेरी सही उम्र थी करीब 22 साल लेकिन सर्टिफिकेट के हिसाब से मैं 19 साल का ही था . मुझे लगा 19 साल नाबालिग जैसा लगेगा , सो मैंने असली उम्र का ही जिक्र किया . खैर , मुझे तो लगा कि आज अखबार में मैं छप रहा हूं . कई लोग मुझे जानते हैं . समाचार संपादक मुझे पसंद करते हैं . फिर तो मेरी नौकरी पक्की है . लेकिन मुझे क्या पता था कि नौकरी के पैमाने और भी हैं . आज में तब चंद्रेश्वर विद्यार्थी अघोषित संपादक हुआ करते थे . नाम के साथ तो उन्होंने विद्यार्थी लगा रहा था कि अपनी जाति को छोड़कर उन्हें किसी जाति के लड़के में प्रतिभा की कमी बहुत खटकती थी . अखबार के मैनेजर थे ‘ दादा’ . दादा का नाम तो कुछ और था लेकिन आज अखबार के सभी लोग उन्हें दादा ही कहते थे …बंगाली थे …बनारस में रिमोट कंट्रोल लेकर बैठे मालिकों के खास नुमाइंदे थे . मेरा उनसे कभी कोई वास्ता पड़ा नहीं था . संपादकीय विभाग में उनके नाम की धमक सुनता जरुर था .
अविनाश जी एक दिन मुझे दादा से मुलाकात करवाने के लिए आज अखबार के दफ्तर बुलवाया . उस दिन पता चला कि तीन चार और दावेदार वहां आए हुए हैं . मुझे अगर ठीक से याद है तो उसी दिन वहां कुमार भवेश चंद्र भी आए थे और उन्हें नौकरी मिली भी थी ( भवेश मेरे बहुत अंतरंग दोस्त रहे हैं . हम बाद में कई सालों तक दिल्ली में साथ रहे . इन दिनों अमर उजाला , लखनऊ में हैं ) . दादा ने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा . शायद वो मेरे बारे में तय पहले कर चुके थे . खारिज करने के बहाने खोज रहे थे . उन्होंने पहला सवाल पूछा – तुम सरनेम अंजुम क्यों लिखते हो …मैंने कहा – बस , यूं ही नाम के साथ अंजुम जोड़ लिया है …दूसरा सवाल – तो फिर पूरा नाम क्या है – अजीत अंजुम ही लिखता हूं …तीसरा सवाल – असली नाम पूछ रहा हूं …जवाब – अजीत कुमार …चौथा सवाल – अरे पूरा नाम …जवाब – अजीत कुमार …पांचवा सवाल – कुमार के आगे तो कुछ होगा ..पिता जी का क्या नाम है …जवाब – राम सागर प्रसाद सिंह …अब दादा को अपना प्वाइंट मिल चुका था . उन्होंने सीधा पूछा – तो तुम ……..जाति के हो ….मैं कहा – जी …कहां के हो – मैंने कहा – बेगूसराय ..और फिर दादा ने सिर्फ इतना कहा कि अविनाश जी तुम्हारी बहुत तारीफ करते हैं …चलो उनसे बात कर लेना …मैं वहां से निकला तो समझ में नहीं आया कि ये कैसा इंटरव्यू था …मुझे ये भी समझ में नहीं आया कि मैं फेल हुआ या पास ….उस दिन वहां कुछ और लड़के इंटरव्यू के लिए आए हुए थे , सो मैं अविनाश जी से मिले बगैर वहां से चला गया . अगले दिन मुझे पता चला कि दादा को एक जाति विशेष से नफरत है क्योंकि उस जाति विशेष के एक व्यक्ति विशेष ने कभी उसी अखबार में काम करते हुए उनसे पंगा मोल ले लिया था …वो व्यक्ति विशेष तो वहां शेष रहे नहीं लेकिन दादा के मन में ऐसा अवशेष छोड़ गए कि उस जाति विशेष के हम जैसे लोगों के लिए दादा ने ‘आज’ के दरवाजे बंद कर दिए थे .दादा तो मुझे भूल गए होंगे लेकिन मैं उन्हें कभी भूल नहीं पाया..आज लगता है कि अच्छा हुआ दादा ने मुझे नौकरी नहीं दी …
मैं पटना में फ्रलासिंग करता रहा . उन दिनों दिल्ली , मुंबई और कलकत्ता से कई पत्रिकाएं निकलती थी . धर्मयुग , रविवार , दिनमान , साप्ताहिक हिन्दुस्तान के अलावा छोटी पत्रिकाएं ( आप चाहें तो छुटभैया कह सकते हैं क्योंकि हम जैसे छुटभैये पत्रकारों को उन्हीं में जगह मिल पाती थी ) . खैर , उन दिनों अली अनवर ( आज के जेडी यू सांसद ) भी वरिष्ठ संवाददाता हुआ करते थे , अनवर साहब जब भी मिलते हैं तो उस दौर की बात जरुर करते हैं , जब हम एक दूसरे की साइकिलों की सवारी किया करते थे ) और हमारे साथी विकास मिश्र भी वहीं काम करते थे . खुद को वामपंथी शक्तियों की एकता का अग्रदूत मानने वाले इस अखबार ने मुझे बहुत हैसला दिया …पूरे पूरे पन्ने की रिपोर्ताज इस अखबार में छपी. …इंन्द्रकात मिश्र रविवारीय पन्ने के इंचार्ज थे और कह सकते हैं मुझ पर खास मेहरबान . वजह चाहे जो हो .
उस जमाने के तमाम नामचीन पत्रकार दैनिक हिन्दुस्तान और नवभारत टाइम्स में काम करते थे . हम किसी साथी के साथ इन अखबारों से दफ्तरों में जाते . अखबार में छपने वाले नाम और वहां बैठे चेहरों का मिलान करते. नवभारत टाइम्स में नीलाभ , कुमार दिनेश , गुंजन सिन्हा , वेद प्रकाश वाजपेयी , उर्मिलेश, मणिमाला , आनंद भारती , गंगा प्रसाद , नवेंदु ….ऐसे तमाम चेहरों को हमने नवभारत के दफ्तर में ताक -झांककर ही पहचाना था . दैनिक हिन्दुस्तान और नवभारत टाइम्स में छपने के लिए हम जैसे बच्चे कच्चे बहुत चक्कर लगाया करते थे . जिनका फीचर इन अखबारों में छपता , उनसे हम जलते भी और छपने के लिए तरसते भी .कई फ्रीलांसर के नाम आज भी याद हैं , जो खूब छाप करते थे . अपनी समझ और लेखन की सीमाओं का भी अहसास था , सो ऐसे पत्रकारों की रिपोर्ट खूब पढ़ा करते , जिनसे कुछ सीखने को मिले . दैनिक हिन्दुस्तान में श्रीकांत , अनिल विभाकर , हेमंत , सुकीर्ति समेत कई पत्रकारों को पढ़ता ..अवधेश प्रीत के बारे में सुनता ( अवधेश प्रीत बहुत अच्छे कहानीकार -कवि हैं और बहुत संवेदनशील इंसान भी. अवधेश प्रीत आज भी पटना हिन्दुस्तान में हैं ) इनमें से कई नाम ऐसे थे , जिनका नाम मुझे इतना बड़ा लगता था कि उनसे परिचय की तमन्ना लिए अखबारों के दफ्तर चला जाता था …
तब गूगलावतार ( गुगल बाबा का जन्म) नहीं हुआ था इसलिए हम रेफरेंस के लिए कतरनें संभालकर रखते . हर विषय का लिफाफा बनाते फिर उसी विषय पर छपी रिपोर्ट और लेख रखते …दिल्ली में जब पहली बार राम बहादुर राय के घर पर उनसे मिला था तो मैंने उन्हें कैंची और अखबार के बीच काटने और कटने का अदभुत रिश्ता कायम करते हुए देखा था. आस – पास फैले कई अखबारों के बीच राय साहब बैठे थे और लगातार कतरनें तैयार कर रहे थे …..उस दौर में मैंने बहुत से लोगों को देखा था कि वो रेफरेंस इकट्ठा रखने के लिए कटिंग रखा करते थे . आज गूगल ने काम काफी आसान कर दिया है.
बिहार की पत्रकारिता में उन दिनों लड़कियां न के बराबर थी . मणिमाला सबसे तेज तर्रार पत्रकार मानी जाती थी , जयपुर नवभारत टाइम्स में काम करने और धूम मचाने के बाद पटना पहुंचीं थीं . ‘आज’ अखबार में अर्चना झा हुआ करती थीं . इंदु भारती , मानषी , किरण शाहीन जैसी तेज तर्रार महिला पत्रकारों के नाम हम सुना करते थे . हम इन्हें दूर दूर से ही देखते . इनका लिखा पढ़ते .
तो एक वो नौकरी जो पटना में नहीं मिली , एक वो नौकरी , जिसे कुछ हफ्ते में छोड़नी पड़ी ( गुवाहाटी का जिक्र में पहले कर चुका हूं ) और एक नौकरी जो मुकेश कुमार ने नहीं दी ….ये बात तब की है , जब मैं गुवाहाटी और पटना छोड़कर दिल्ली आ चुका था . एक दिन किसी ने बताया कि गुवाहाटी से निकलने वाले सेंटिनल अखबार के संपादक मुकेश कुमार दिल्ली आए हुए हैं और कुछ लोगों की तलाश कर रहे हैं ….मैं उनसे मिलने आईएएस बिल्डिंग गया …दो मिनट की संक्षिप्त मुलाकात भी हुई , लेकिन बात नहीं बनी ….और मैं दोबारा गुवाहाटी नहीं जा पाया , दिल्ली ने ठिकाना दे दिया …मुकेश जी अभी भी हमारे प्रिय हैं …दोस्त की तरह हैं …कई सालों बाद हम मिले और बार बार मिलते रहे …ये कहानी फिर कभी …
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(फेसबुक से साभार)
अजीत अंजुम , पत्रकारिता का वो नाम है जो टैलेंट की बजाय क्षेत्र-वाद को बढ़ावा देने के लिए जाने जाते हैं ! इनके साथ जो “आज” पेपर वालों ने किया , कमोबेश वही काम अजीत अंजुम सालों से कर रहे हैं ! अब इसमें उलाहना क्यों ! अजीत जी, पहले खुद को सुधारिए !