काशिद हुसैन
कई बार ऐसा होता है कि अखबार पढ़ते-पढ़ते नज़र यकायक एक ही जगह ठहर जाती है। क्योंकि कई ख़बरें आपकी “नज़र पकड़ लेती हैं।” उसे पढ़े बिना ठीक उसी तरह आगे नहीं बढ़ा जाता जैसे किसी ख़बरिया चैनल पर भारतीय टीम की जीत के बाद एक प्रशंसक चैनल पर जीत की “कहानी” देखे बिना चैनल नहीं बदलता। ऐसा ही एक ख़बर सामने आयी जिसमे भारत के पुलिस प्रशासन के अलावा “अमेरिका की पुलिस ” की नींद उड़ने का ज़िक्र था। और वजह रही “सोशल मीडिया”। दरअसल तकनीक के ज़माने में जैसे जैसे इसका विस्तार हो रहा है वैसे वैसे ही इसका दुरूपयोग भी लगातार बढ़ता जा रहा है। फेसबुक और ट्विटर जैसे कई सॉफ्टवेयर जहाँ एक तरफ “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” के माध्यम बन कर उभरे हैं वहीँ दूसरी तरफ़ इनके दुरूपयोग से कई मुसीबतें भी खड़ी हुई हैं। इन मुसीबतों को खड़ा करने वाले जो भी हों उनकी वजह से इन माध्यमों को कम से कम बंद तो नहीं किया जा सकता।
हाल ही में हुए मुज़फ्फरनगर दंगे और पिछले साल दक्षिण भारत में रह रहे पूर्वोत्तर के लोगों को सोशल मीडिया पर झूठी ख़बरों और वीडियो के कारण ही कई परेशानियों का सामना करना पड़ा था। सोशल मीडिया एक ऐसा माध्यम बना है जिससे जुड़ने वाले सभी लोग अपनी बात रख सकते हैं। लोकतंत्र के कथित “चौथे खम्बे” अर्थात मीडिया में जिन ख़बरों को ज़रा भी तवज्जो नहीं दी जाती उन ख़बरों को कई पत्रकार और समाज सेवी वाकई ईमानदारी से सामने रकते हैं। मीडिया को जिस कारण से लोकतंत्र का चौथा खम्बा माना गया उससे वो भटक गया या भटका दिया गया। लेकिन जिस दलित और हाशिये के समाज की सरपरस्ती के लिए उसे ये तमगा मिला था उसे काफी हद तक सोशल मीडिया ने सम्भाला है।
मीडिया के ऐसे भाग का इतना बड़ा ग़लत उपयोग वो भी इस स्टार पर कि एक नहीं बल्कि कई देशों की पुलिस को इससे जूझना पड़े ये कई पिछड़े वर्ग के लोगों की आख़री उम्मीद को धक्का है। सोशल मीडिया को हम हाल के कुछ वर्षों में कई देशों में क्रांति या बदलाव लाने या कम से कम उसकी उम्मीद जगाने के ज़रिये के रूप में भी देख चुके हैं। ज़रा सा सोचना होगा कि कुछ मतलबपरस्त लोगों के हाथ का खिलौना न बन जाए ये। हालांकि शुरुआत हो चुकी है लेकिन वो लोग जो वाकई “निदरे – खिदरे ” से समाज को आज भी मुख्यधारा से जोड़े रखने की जद्दोजहद में हैं ही इस “शुरुआत” को रोक सकते हैं। अब सवाल ये है कि वे लोग कब तक ऐसा कर पाने कि ज़ेहमत उठाते हैं।