मुजफ्फरनगर दंगे की रिपोर्टिंग में कुछ चैनलों और अखबारों ने नियमों को तोड़ा

आनंद प्रधान

भारत के लिए सांप्रदायिक दंगे कोई नई परिघटना नहीं हैं. जाहिर है कि न्यूज मीडिया के लिए भी इन सांप्रदायिक दंगों की कवरेज का अनुभव नया नहीं है. इसके बावजूद हर छोटे-बड़े दंगे को भड़काने में न्यूज मीडिया खासकर क्षेत्रीय भाषाओं के अखबारों की भूमिका और ज्यादातर मामलों में उसकी एकपक्षीय, असंतुलित और भड़काऊ कवरेज पर उंगलियां उठती रही हैं. मुजफ्फरनगर के दंगों की कवरेज भी इसका अपवाद नहीं है. हालांकि इस बार ज्यादा सवाल सोशल मीडिया और मोबाइल फोन के दुरुपयोग, उनके जरिए अफवाहें फैलाने और लोगों को भड़काने पर उठ रहे हैं, लेकिन अखबार और चैनल भी सवालों के घेरे से बाहर नहीं हैं.

उदाहरण के लिए, भारतीय प्रेस परिषद की पत्रकारीय आचार संहिता सांप्रदायिक दंगों की कवरेज में तथ्यों के प्रति अतिरिक्त संवेदनशीलता और सावधानी बरतने की सिफारिश करते हुए दंगे में मारे गए या घायल लोगों की धार्मिक पहचान को उजागर न करने की सलाह देती है. लेकिन आरोप है कि अंग्रेजी के कुछ राष्ट्रीय दैनिकों और न्यूज चैनलों ने मुजफ्फरनगर के दंगों की रिपोर्टिंग के दौरान दंगों के शिकार लोगों की धार्मिक या जातीय पहचान नहीं छिपाई. जैसे, एनडीटीवी 24×7 के श्रीनिवासन जैन पर आरोप है कि उन्होंने अपनी रिपोर्टिंग और ‘ट्रुथ ऐंड हाइप’ कार्यक्रम में न सिर्फ दंगे में शामिल समुदायों की धार्मिक या जातीय पहचान का खुलकर उल्लेख किया बल्कि दंगों में मारे गए लोगों और हमलावरों की पहचान करने में भी संकोच नहीं किया. इसी तरह के आरोप ‘द हिंदू’ और ‘इंडियन एक्सप्रेस’ की रिपोर्टिंग पर भी लग रहे हैं. कहा जा रहा है कि इस तरह की रिपोर्टिंग से देश के दूसरे हिस्सों में भी धार्मिक समुदायों के बीच तनाव बढ़ता है और भावनाएं भड़कती हैं. लेकिन ‘द हिंदू’ के रीडर्स एडिटर ने मुजफ्फरनगर दंगों में मारे गए लोगों, घायलों, पीड़ितों, विस्थापितों और हमलावरों की धार्मिक पहचान उजागर करने का बचाव करते हुए तर्क दिया है कि देश में सांप्रदायिक दंगों की बदलती प्रकृति और स्वरूप के मद्देनजर सांप्रदायिक कुप्रचार अभियान की कलई खोलने के लिए यह जरूरी हो गया है.

उल्लेखनीय है कि मुजफ्फरनगर दंगों के दौरान भगवा सांप्रदायिक संगठनों ने बेहद शातिराना तरीके से स्थानीय हिंदी अखबारों की हेडलाइन को बदलकर अत्यंत भड़काऊ हेडलाइन लगाई और उसे सोशल मीडिया पर शेयर और प्रचारित किया. इसी तरह दोनों पक्षों के शातिर सांप्रदायिक तत्वों और संगठनों ने दंगे में मारे गए लोगों की संख्या और उनकी धार्मिक पहचान को लेकर भी सोशल मीडिया और उससे बाहर अफवाहें फैलाने और एकतरफा कुप्रचार के जरिए दोनों समुदायों को भड़काने की कोशिश की. इसके कारण दोनों ही समुदायों में कहीं ज्यादा तनाव और बेचैनी फैली. मुजफ्फरनगर से पहले पिछले साल असम के दंगों के दौरान भी यह प्रवृत्ति दिखी थी.

इस संदर्भ में जरूरी सवाल यह है कि जब सांप्रदायिक तत्व सोशल मीडिया और मोबाइल आदि आधुनिक संचार साधनों का इस्तेमाल तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने, झूठ और अफवाहें फैलाने और एक-दूसरे समुदाय को कुप्रचार का निशाना बनाने के लिए कर रहे हैं, उस समय उसका जवाब कैसे दिया जाए. ऐसे समय में मुख्यधारा के अखबारों या चैनलों की भूमिका क्या होनी चाहिए? अगर अफवाहों की काट सच्चाई और तथ्यों को सामने लाने में है तो अखबारों या चैनलों से सबसे बड़ी अपेक्षा यह होनी चाहिए कि वे सच को सामने लाएं और शरारती तत्वों और संगठित सांप्रदायिक संगठनों को लोगों को गुमराह करने का मौका न दें.

इसलिए अगर कुछ चैनल और अखबार दंगों की रिपोर्टिंग में पारंपरिक पत्रकारीय आचार संहिता से अलग दंगों में मारे गए लोगों, घायलों, विस्थापितों और हमलावरों की पहचान बता रहे हैं तो इसे भड़काने के बजाय तथ्यों से झूठ, अफवाह और कुप्रचार के जवाब के रूप में देखना चाहिए.

(तहलका से साभार)

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