नवीन कुमार
एक बहुत बड़े संस्थान की घटना सुनिए। उन दिनों मुद्रा स्फीति तेजी से बढ़ रही थी। महंगाई भी बढ़ रही थी। (आज से मिलाएंगे तो उस महंगाई पर छाती पीटने वालों को आत्महत्या करनी पड़ जाएगी।) खैर, विद्वान पत्रकारों के गिरोह रोज मनमोहन सिंह को गालियां देते थे। उनके अर्थशास्त्री होने का मज़ाक उड़ाते थे। एक दिन हुआ यूं कि मेरे आसपास कोई आठ-दस ऐसे ही गिरोहबाज जमा थे। फितरतन मनमोहन सिंह की लानत-मलामत कर रहे थे। रुपया इतना गिर गया। मुद्रा स्फीति काबू में ही नहीं कर पा रहे। ऐसा कैसा अर्थशास्त्री है?
बहुत देर तक मैं सुनता रहा। कुछ बोलने का मतलब था कि सब पिल पड़ते। और यकीन मानिए न्यूज़रूम के गिरोह और समुद्री दस्यु गिरोहों में कोई खास फर्क नहीं होता। लेकिन जब रहा नहीं गया तो जो विद्वान साथी सबसे ज्यादा पसरे हुए थे उनसे पूछा कि अच्छा ये तो बता दीजिए कि मुद्रा स्फीति है किस चिड़िया का नाम? ऐसा क्या हुआ है कि बढ़ गई? पिछली बार ऐसा क्या हुआ था कि घट गई? ऐसा क्या कर दिया जाए कि हम महान अर्थव्यवस्था हो जाएं? कौन-कौन से इंडिकेटर्स हैं मुद्रा स्फीति के? उनका जवाब था – आएं, ये क्या बात हो गई? मैंने बारी-बारी से सबसे पूरी ढिठाई से पूछा। एक ने कहा आप टेस्ट ले रहे हैं? दूसरे ने कहा आप मजाक कर रहे हैं? कुल मिलाकर सब आयं-बांय-शांय करने लगे।
इस समय इस घटना का रेफरेंस ये है कि वही गिरोह अब कह रहा है कि पाकिस्तान पर हमला बोल ही देना चाहिए, लाहौर पर चढ़ जाना चाहिए, सबक सिखा देना चाहिए, अब और बर्दाश्त नहीं होता। उस गिरोह से अंतर्राष्ट्रीय संबंध, विदेश नीति, वैश्विक अर्थव्यवस्था, मुद्रा संकट जैसे मुद्दों पर बात करना शुरू कर दीजिए वो जेब से रजनीगंधा निकालने लगेगा, थूकने चल देगा, तुलसी मिलाने लगेगा। उसके लिए मुद्रा स्फीति भी रजनीगंधा-तुलसी से नियंत्रित होती है और युद्ध भी। लेकिन चूना कौन सा मिलाना है ये दक्खिन टोला के चच्चा बताते हैं। टेस्ट भी तो कोई चीज़ होती है। वही गिरोह कुछ दिनों बाद माहौल बनाने वाला है कि युद्ध देश के लिए अच्छा नहीं होता है। मतलब अपना न खराब न अच्छा, सही वही जो बोलें चच्चा।