पत्रकारों की रीढ़ की हड्डी कैसे विलुप्त हो गई?

कृष्णकांत

मीडिया राजनीतिक संगठनों और पार्टियों पर गाहे—ब—गाहे हमले करता है जितने की कॉरपोरेट इजाजत दे। मगर राजनीति मीडिया के तमाम धतकरमों पर चुप रहती है. क्या मीडिया संस्थान और उनमें काम कर रहे लोग आबे—जमजम से नहाकर निकले सर्वथा निर्दोष लोग हैं?

बाजारवादी लोकतंत्र में यह समझौता होता है कि मीडिया राजनीति पर उतना ही बोलेगा, जितने की पार्टियां या सरकारें इजाजत दें, या फिर जो छुपाने से न छुप सके. यदि ऐसा न होता, यदि कॉरपोरेट मीडिया और नेताओं का गुप्त गठबंधन न होता, यदि मकसद गलत को गलत कहना होता तो मौजूदा हालत में सबसे ज्यादा सवाल मीडिया पर उठते.

यह सवाल उठते कि क्यों जनसत्ता और इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकारों को धरना देना पड़ रहा है? क्यों जागरण के पत्रकार प्रबंधक का घेराव कर रहे हैं? क्यों मीडिया संस्थान सरकार द्वारा अमल में लाए कानूनों और सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों को हवा में उड़ा कर निश्चिंत हैं? यह भी सवाल है कि पत्रकारों की रीढ़ हड्डी कैसे विलुप्त हो गई?

(स्रोत-एफबी)

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