ओम थानवी, संपादक, जनसत्ता
कल एनडीटीवी पर प्राइम टाइम में निधि कुलपति ने दिल्ली की अवैध बस्तियों का मुद्दा उठाया। राजनीतिक दल बस्तियों के नियमन का श्रेय लेने की होड़ में रहे। अभागे निवासियों के बदतर जीवन और असुविधाओं का सवाल आया तो सब कन्नी काट गए। उन्हें शायद खयाल भी न हो कि डेंगू से ज्यादा मौतें वही हुई हैं। कांग्रेस और भाजपा दोनों दल मत हथियाने के फेर में ऐसी बस्तियों को पनपाते आए हैं। उनका जीवन नारकीय हो, इससे उन्हें क्या। गरीबों की सेवाएं चाहिए, पर उनके लिए समुचित बस्तियां नहीं बसाई जातीं। दिल्ली के गिर्द कमोबेश सारी बसावट मध्य और उच्च वर्ग की है। कांग्रेस विकास के नाम पर फ्लाइओवरों का डंका पीटती है, पर उन पर धुआं उड़ाने वाले वाहनों के अलावा कौन चढ़ सकता है? न पैदल, न साइकिल, न रिक्शा।
भाजपा की पूर्व महापौर आरती मेहरा से नाहक उलझना पड़ा, जब गरीब बस्तियों में स्वास्थ्य का मामला उठने पर उन्होंने कहा कि वे अवैध बस्तियां हैं इसलिए चिकित्सा सुविधाएं वहाँ नहीं पहुंच पातीं। तब मैंने इतना ही कहा कि हादसा होने पर पुलिस जहाँ पहुँच सकती है, वहाँ चिकित्सा क्यों नहीं? इसका जवाब नहीं मिला। … यही विडंबना है: उनके मत अवैध नहीं हैं, पर बस्तियां हैं। पुलिस, मतगणना अधिकारी, नेता, उनके चुनाव एजेंट आदि सब वहाँ पहुंच सकते हैं, मगर (सरकारी) चिकित्सक नहीं!!
(स्रोत- एफबी)