गरीबों के मुद्दे पर पुण्य प्रसून के निशाने पर मोदी सरकार

समर्थकों से ज्यादा विरोधियों के रोम-रोम में प्रवेश कर गए हैं मोदी
समर्थकों से ज्यादा विरोधियों के रोम-रोम में प्रवेश कर गए हैं मोदी

सरकारें सबसे ज्यादा वायदा गरीबों के लिए करती है, लेकिन गरीबों की हालत में कभी कोई सुधार नहीं. वे वोट बैंक के बस मोहरे भर बन कर रह गए हैं. पूर्ववर्ती सरकारों ने भी यही और वर्तमान सरकार की नीतियां देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा है कि गरीबों को लेकर उसके दावे भी खोखले ही थे.इसी मुद्दे पर वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेयी ने आज लेख लिखकर सरकार की आलोचना की है. पढ़िए उनका पूरा आलेख –




तो सत्ता संभालते ही गरीबो का दर्द जिस प्रधानमंत्री की जुबां पर हो। उस प्रधानमंत्री की हर निर्णय गरीबों के हित या फिर गरीबों की फ्रिक से जुड़ा क्यों ना होगा। ये अलग बात है कि सरकार का नजरिया गरीबों और ग्रामीणों से ज्यादा कारपोरेट हित को साधने में लगा। और वजह यही है कि कारपोरेट को तमाम तरह के टैक्स में हर बरस छूट औसतन 5 लाख करोड़ की मिलती रही। लेकिन दूसरी तरफ ग्रामीण क्षेत्र के बुनियादी ढांचे, रोजगार, हेल्थ, शिक्षा , खेती सभी को लेकर भी बजट 4 लाख करोड़ से ज्यादा सरकार दे नहीं पायी। तो क्या गरीबो का जिक्र सिर्फ जुबां पर होता रहा है। क्योंकि इंदिरा गांधी ने भी गरीबी हटाओ का नारा दिया था। लेकिन गरीबी हटाओ के नारे के बाद बीते चार दशक में 8 करोड 90 लाख गरीबों की संख्या बढ गई।

लेकिन मोदी की नोटबंदी इंदिरा के गरीबी हटाओ से मेल नही खाती । क्योंकि इंदिरा तो अमीरों के खिलाफ नहीं थी । लेकिन मोदी ने झटके में अमीरों को खलनायक तो करार दे ही दिया है। तो क्या वाकई जिस बात का जिक्र आज गरीबों के नाम पर वित्त मंत्री कर गये वह सही है। तो याद कीजिये जेटली ने पहले बजट को पेश करते हुये साफ कहा था। गरीबों के लिये पैसा तो रईसो की जेब सेही आयेगा। तो क्या प्रधानमंत्री मोदी अब 1991 में खिंची गई खुली अर्थव्यवस्था की इक्नामी को पलटने में लग गये है । या फिर प्रधानमंत्री मोदी इंदिरा की तर्ज पर उस रास्ते पर निकल चुके है जब 1971 में इंदिरा गांधी ने प्रीवी पर्स और बैंकों के ऱाष्ट्रीयकरण के जरीये कांग्रेस के भीतर के सिंडिकेट और बाहर विपक्षी को घराशायी कर 1971 का चुनाव जीता था। यानी मोदी बीजेपी की उस राजनीति को भी बदल रहे है जो कारपोरेट की हिमायती रही। या फिर गरीब और पिछड़ों के साथ खुद को खड़ाकर मोदी अब बीजेपी के लिये ही एक नयी राजनीति गढ रहे हैं,जहां बीजेपी अब व्यापारियो की पार्टी नहीं कहलायेगी। गरीब-पिछडो के बीच मोदी स्टेटेसमैन हो जायेंगे। यानी 1991 की जिस इक्नामिक थ्योरी की लीक पर बीते 25 बरस से पीवी नरसरिह राव से लेकर वीपी और वाजरपेयी से होते हुये मनमोहन सिंह का दौर खप गया । उस दौर में बाजार को मजबूत करने के लिये हर सत्ता ने सिर्फ लुटाया ही । और ग्रामीण भारत के लिये या कहे गरीबो पर किसी ने ध्यान दिया ही नहीं तो क्या मोदी अब शाइनिंग इंडिया के भ्रम को तोडकर खुरदुरे भारत को ठीक करना चाह रहे हैं। तो तीन सवाल हर जहन में आयेंगे। पहला ग्रामीण भारत को पटरी पर लाने के लिये पैसा कहॉ से आयेगा। दूसरा, ग्रामीण भारत को स्वावलंबी बनाने के लिये इन्फ्रास्ट्रक्चर कहां से लायेंगे। तीसरा , बैंकिंग सर्विस भी 93 फिसदी ग्रमीण क्षेत्रों में कबतक पहुंचेगी । यानी सवाल सिर्फ ये नहीं है कि गरीबो के बिजली पानी रोटी हेल्थ रोजगार शिक्षा मिल जाये । यवाल ये है कि क्या वाकई अब हर घंटे 7 करोड रुपये डायरेक्ट कारपोरेट इन्कम टैक्स को माफ करना बंद हो जायेगा । हर बरस करीब 5 लाख करोड से ज्यादा की जो छूट तमाम टैक्सो में कारपोर्ट को मिल जाती है वह बंद हो जायेगी । खेती पर टिके 60 फिसदी भारत को दो जून की रोटी भी मिल जायेगी ।

ये सवाल इसलिये क्योकि जिस रास्ते देश चल रहा है । और जिस रास्ते देश को ले जाने का सपना प्रदानमंत्री मोदी दिखा रहे है । उसमे लगना उसी देश की सत्ता, सिस्टम और लोगो को है । जो अभी तक मैसेज यही दे रही है कि सत्ता घमंड से चूर है । नौकरशही चाटूकार है और जनता देशभक्ति की रौ में है और तीनो का काकटेल है कितना खतरनाक इसे प्रदानमंत्री मोदी जरुर समझ रहे होगें । क्योकि ग्रमीण भारत का ये सच है । 82 फिसदी परिवारो की आय 5 हजार रुपये महीने से कम की है । 7.9 फिसदी परिवारो की आय 10 हजार रुपये महीने से कम की है । और 4.7 पिसदी की आय 15 हजार रुपये महीने से कम की है । यानी जिस देश में गरीबी की रेखा 32 रुपये रोज पर टिकी हो । जिस देश में 80 फिसदी गाववाले भूमिहीन मजदूर हो । और जिस देश में मजदूरो के लिये मनरेगा के नाम पर हर साल 38 हजार करोड का बजट देकर सरकार अपनी पीठ ठोकती हो । तो ग्रामीण भारत के दर्द पर मनरेगा की उपलब्धि ही जब सरकारो को राहत दे देती हो तब इस सच को कौन कहेगा कि सिर्फ पीने का साफ पानी और दो जून की रोटी को देने के लिये भी सरकार के पास बजट नहीं है ।




यानी जिस चार लाख करोड से लहूलूहान गरीब भारत पर सरकार मलहम लगाने का काम मौजूदा सरकार कर रही है उसके भीतर का सच यही है कि दिल्ली में नेहरु से लेकर मौजूदा वक्त तक कोई पीएम हो गांव बचे कैसे इसपर किसी ने ध्यान दिया ही नहीं । नदियो के जाल और उपजाउ जमीन के बीच इन्द्र देवता ही ग्रामीण भारत के फाइनेंस मनीस्टर से लेकर पीएम तक रहे । क्योकि 1950 से 2016 तक के दौर में सिर्फ 23 फिसदी सिचाई की व्यवस्था खेतो में हो पायी । 60 बरस के ग्रामीण विकास का बजट बीते 10 बरस के कारपोरेट छूट से भी कम रहा । यानी ये कल्पना के परे है कि गरीब और ग्रामीण भारत के सामानान्तर शहरी गरीब और आधुनिक शहरो पर जो खर्च तमाम सत्ता ने किये अगर उतना पैसा गांव के इन्फ्रस्ट्कचर पर हो जाता तो 12 करोड ग्रामीणो का पलायन शहरो में काम के लिये नहीं होता । 11 करोड शहरी गरीब प्रतिदिन 35 रुपये पर जिन्दगी बसर नहीं करते । यानी कैसे हर दौर में गाव और गरीबो के नाम पर दिल्ली की सत्ता ने देश को बेवकूफ बनाया गया है ये मौजूदा बजट से भी समझा जा सकता है । महज 1.51 करोड रुपये शिक्षा-हेल्थ समेत तमाम सोशल सेक्टर के लिये आवंटित किया गया वही 5,72,923 करोड रुपये कारपोरेट को टैक्स में छूट दे दी गई । यानी इक्नामी का रास्ता गांव से नहीं शहरो से निकला . इसीलिये स्मार्ट सिटी की लकीर भी मौजूदा वक्त में खिंची गई । क्योकि गाव के लिये पैसा आये कहा से ये सवाल शहरी सत्ता को आधुनिकतम विकास से जुडने के लिये मार्केट इक्नामी की तरफ ढकेलती रही । तो क्या जो सवाल नेहरु से इंदिरा और वाजपेयी से मनमोहन सिंह गरीबो को लेकर उठाते रहे उसे बिलकुल नयी परिस्थितियो में प्रदानमंत्री मोदी ले जा चुके है । जहा सियासत, समाजवाद और सत्ता का मिश्रण है ।

और दुनिया में कालाधन का सच यही है कि अमेरिका में सबसे ज्यादा कालाधन है, और भारत का नंबर कम से कम शुरुआती पांच देशों में नहीं है। और जिस कालाधन को रोकने के लिए 500 और 1000 के नोट पर पाबंदी के कदम को उठाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी पीठ ठोंक रहे हैं, बिलकुल वैसा ही कदम 1969 में अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने उठाया था, जब उन्होंने झटके में 100 डॉलर से ऊपर के सारे नोट यानी पांच सौ, हजार, पांच हजार, दस हजार और एक लाख डॉलर का नोट रद्दी के टुकडे में तब्दील कर दिया था। उस कदम के बाद अमेरिका में बैंकिंग सिस्टम भले मजबूत हुआ लेकिन कालाधन नहीं रुका। और आज का सच ये भी है कि अमेरिका में कुल उपभोक्ता भुगतान का 80 फीसदी कैशलैस पेमेंट सिस्टम से होता है। यानी अमेरिका में नकदी का चलन बहुत कम है-लेकिन फिर भी कालाधन बनने का सिलसिला जारी है। और बात सिर्फ अमेरिका की नहीं है। जर्मनी में 76 फीसदी कैशलैस पेमेंट होता है तो ब्रिटेन में 89 फीसदी और फ्रांस में 92 फीसदी कैशलैस पेमेंट होता है लेकिन कोई देश भ्रष्टाचार मुक्त नहीं है । तो सवाल सीधा है कि जिस कैशलेस सोसाइटी की दिशा में मोदी भारत को ले जाना चाह रहे हैं-उसका असल मकसद है क्या। कालेधन से मुक्ति या नकदी पर रोक । नगदी बाजार पर सत्ता की राशनिंग या कैशलैस बाजार को बढावा । लोकतंत्र की खुली हवा पर सत्ता की बंदिश या गरीबो के आक्रोष को दबाना ।कर्योकि एक तरफ देश के 6 लाख गांव में से 5 लाख 54 हजार गांव में बैक नहीं है । देश में क्रेडिड कार्ड संख्या फकत ढाई करोड़ है । यानी एक तरफ कैशलेस समाज भारत के लिये अभी दूर की कौड़ी है तो दूसरी तरफ कैशलेस देश ना तो कालेधन से मुक्त होता है ना ही भ्रष्ट्रचार से । अलबत्ता अमेरिका का सच यह है कि वहां राजनीतिक भ्रष्टाचार कालाधन की जननी है। दर्जन भर अमेरिकियो का कब्जा पूरी बैकिंग सर्विस पर है भारत में बैकिंग सर्विस पर सरकार का कब्जा है यानी जो सत्ता में हो उसी के रास्ते देश को चलना पडेगा ये पाठ तो हर किसी ने पढ लिया लेकिन ये रास्ता कैसे लोतकंत्र की भी नई परिबाषा गढ रहा है जरा इसे भी समझ लें ।

(लेखक के ब्लॉग से साभार)

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