दिल्ली की मीडिया पर पुण्य प्रसून बाजपेयी का हल्लाबोल

पुण्य प्रसून बाजपेयी

दिल्ली ! सत्ता का प्रतीक। ताकत का अहसास। लोकतंत्र की दुहाई। संविधान के रास्ते चलने के वादे को ढोती दिल्ली। लोकतंत्र के हर पाये की स्वतंत्रता का सुकून छिपाये दिल्ली। बिहार-बंगाल में जंगल राज हो सकता है, दिल्ली में नहीं। यूपी में सत्ता जाति में सिमटी दिखायी दे सकती है, लेकिन दिल्ली में नहीं । विकास की अनूठी पहचान बना चुका पंजाब आतंक से लेकर ड्रग्स में डूब जाता है , लेकिन दिल्ली में ऐसा नहीं हो सकता। तमिलनाडु तमाम विकास के दावे करते हुये भी अम्मा भोजन के भरोसे जीता है , लेकिन दिल्ली में ऐसा नहीं होता । महाराष्ट्र की सियासत कभी लुंगी को पुंगी बनाने की धमकी देती है तो कभी यूपी-बिहार के लोगो को घुसने से रोकने पर नहीं कतराती और सत्ता खामोशी से तमाशा देखती है। लेकिन दिल्ली में ऐसा नहीं हो सकता । राजस्थान-हरियाणा-यूपी में सत्ता के भरोसे दामादों को सहूलियत दी जा सकती है लेकिन दिल्ली में ये संभव नहीं है।

दिल्ली ने तो आपातकाल के दौर में सत्ता के राजकुमार से भी दो दो हाथ किये । और दिल्ली में तो नौकरशाही भी मंडल–कमंडल के दौर में टकराए। अदालतों ने भी ग्रीन दिल्ली से लेकर टूजी तक में ना सिर्फ अपने फैसलों से सत्ता को हकबकाया । बल्कि जेल की सीखचों के पीछे कारपोरेट-नेता-मंत्री तक को पहुंचाया। यूं हर दौर में दिल्ली की ताकत लुटियन्स की दिल्ली में सिमटी दिखी। साउथ ब्लाक से लेकर आईआईसी तक के चेहरे सत्ता का मुखौटा कुछ यूं लगाते कि लड़ाई राजपथ की हो या जनपथ की, बात भ्रष्टाचार की हो या घोटालों की, सबकुछ संसद के भीतर बाहर समझौतों में ही सिमट जाता । लेकिन इस दौर में एक आस मीडिया ने जगाई। जब जब देश में ये बहस हुई कि मीडिया सत्ता की चाकरी कर रही है, तब किसी एक्टिविस्ट की तर्ज पर दिल्ली में ही एक मीडिया संस्थान ने इंदिरा की सत्ता से दो दो हाथ किये। इमरजेन्सी के दौर में संघर्ष करते हुये सत्ता पलटने में खासी भूमिका निभायी। इंडियन होने के बावजूद इंदिरा इज इंडिया कहने वालो से वह मीडिया संस्थान टकराया । जब बोफोर्स घोटाले के आग सत्ता के खिलाफ सत्ता के भीतर से निकली तो दक्षिण भारत से निकलने वाले एक अखबार ने सत्ता की हवा सच छाप कर निकाल दी। हिन्दुत्व के दायरे में सबसे बेहतरीन हिन्दू शब्द के तेवर अखबार की रिपोर्टिग ने दिखला दिये। और जब देश में सत्ता का दामन हवाला रैकेट में फंसा तो एक संस्थान ने बेहिचक ऐसी रिपोर्ट छापी कि सत्ता का ऊपरी आवरण ही ढहढहाकर गिर गया । तो दिल्ली में पत्रकारिता का अपना सुकून है । क्योंकि यहा लोकतंत्र भी जागता है तो मीडिया के हमले सत्ता को भी लोकतंत्र का पाठ पढ़ाते हैं। और सत्ता भी अपने अपने तरीके से मीडिया पर हमले कर लोकतंत्रिक व्यवस्था के बरकरार रखने के लिये एक सियासी वातावरण खुद ब खुद तैयार करती चली जाती है।

लेकिन इस बार हालात बदले हैं। तरीका बदला है। लोकतंत्र की परिभाषा भी बदली बदली सी लग रही है। क्यों……..क्योंकि खबर को छूने से हर कोई कतरा रहा है। हर कोई जान रहा है कि खबर सत्ता की चूलें हिला सकती है लेकिन हवा में तैरती सत्ता की मदहोशी ने पहली बार खुमारी कम खौफ ज्यादा पैदा कर दिया है। तो इंदिरा की सत्ता को एक वक्त चुनौती देने वाला मीडिया संस्थान भी खामोश है। एक वक्त बोफोर्स घोटाले से सत्ता की कमीशनखोरी से देश में सियासत गर्म करने वाला अखबार भी खामोश रहना चाहता है। हवाला के जरीये लाखों की हेराफेरी करने नेताओं के नाम तक छापने वाला और कागज में दर्ज हस्ताक्षर और छोटे छोटे इंगित करते नामों की पूरी व्याख्या करने वाला मीडिया संस्थान भी इस बार खामोश है। कहीं रिपोर्टर तो कही संपादक तो कही मालिक ही सिमटे है। लेकिन खबर सबको पता है । खबर छापने का दंभ भरने वाले दिल्ली के तमाम ताकतवर मीडिया संस्थानों की हवा पहली बार दस्तावेजों को देखकर ही हवा हवाई क्यों हो रही है? तो क्या दिल्ली बदल चुकी है? लोकतंत्र की परिभाषा भी अब दिल्ली की अलग नहीं रही । या फिर पहली बार सत्ता ने हर संस्थान को सत्ता का हिस्सा बनाकर लोकतंत्र का अनूठा पाठ शुरु कर दिया है । जहां सहूलियत है । जहां खौफ है । जहां बदलाव है । जहां मुनाफा है । जहां सत्ता ना बदल पाने की सोच है। जहां विकल्पहीन हालात हैं। जहां धारा के खिलाफ चलने पर बगावती होने का तमगा लगने वाली स्थिति है। यानी पत्रकारिता कुछ इस तरह गायब की जा रही है, जहां रिपोर्टर को भी लगने लगे कि वह सत्ता के सामने या सत्ता के पीछ खड़ा है। संपादक भी मैनेजर नहीं बल्कि वैचारिक तौर पर लकीर के इस या उस पार खड़ा होने का सुकून भी पाल रहा है और हवा में घुलते राष्ट्रवाद को राजपथ पर चलते हुये ही देख-समझ पा रहा है। तो क्या पहली बार मीडिया के लिये खबर छापना या ना छापना पत्रकारिता या धंधा नहीं राष्ट्रवाद है।

राष्ट्रवाद पहली बार अदालत के दायरे में नही लोकतंत्र की सबसे महत्वपूर्ण व्यवस्था चुनावी राजनीति में जा सिमटा है। जो जीते उसी का राष्ट्रवाद सबसे बेहतरीन । जिसका अपना संविधान है । और इस संविधान के दायरे में एक सा खुलापन है, जहां बोलने का आजादी है । जहा कुछ भी खाने-पीने की आजादी है । जहां चीन-अमेरिका को लेकर तर्क करने की आजादी है । जहां आतंक पर चर्चा की पूरी गुंजाइश है । जहां विदेशी निवेश को स्वदेशी मानने की पूरी छूट है। जहा भ्रष्टाचार ,घूसखोरी, कमीशनखोरी, नीतियों के लागू ना होने के हालात पर आरोप लगाने की छूट है। और संविधान से मिली इस स्वतंत्रता को भोगने के लिये सिर्फ बिना कहे ये समझने की जरुरत है कि देश से बढ़कर कुछ भी नहीं। और देश का मतलब ही सत्ता है। और सत्ता पर कोई आंच पांच बरस तक नहीं आनी चाहिये, इसकी जिम्मेदारी नागरिकों की है । क्योंकि पहले की सत्ता में देश के नाम पर धंधा करने वाले मौजूदा दौर में तो समझ चुके हैं कि उनका मुनाफा, उनकी सहूलियत, उनकी सुविधा का खास ख्याल रखा जा रहा है । सवाल है कि कैसे लोकतंत्र का यह मिजाज अनंतकाल के लिये हो जाये। बस यही समझ नहीं आ रहा है क्योंकि जो खबर दिल्ली के बाजार में है। जो खबर हर कोई जान रहा है। जिस खबर को देखकर हर पत्रकार की बांछे खिल जाती हैं। जिस खबर के छपने से पत्रकारीय साख मजबूत हो जाती है। फिर भी उस खबर को कोई क्यों खुद से अलग कर रहा है। इस दिलचस्प कहानी के भीतर इतने चरित्र हैं, जिन्हें कुरेदना दिल्ली को दौलताबाद ले जाने से कम नहीं है। आइये फिर भी मीडिया संस्थानों की अट्टलिकाओ में घुस कर देखा जाये मुश्किल है कहां। क्योंकि हर मीडिया संस्धान के भीतर खबरों को लेकर नायाब तरीके की उथल-पुथल लगातार चल रही है। और खामोशी से हर कोई खबरों से ज्यादा बदलते देश की तासीर को समझ कर खामोश है कि जो खबरों के झंडाबरदार उस दौर में बने पड़े हैं दरअसल वह रामलीला के चरित्रो को जीते हुये अपनी अपनी भूमिका को ही सच मान रहे हैं।

“आपको जिसके खिलाफ लिखना है लिख लें, लेकिन इन दो को छोड़ना होगा”
“क्यों, तब तो बहुत ही मोटी लक्ष्मण रेखा खींचनी होगी।”

” ये तो बेहद महीन लकीर खिंचने की बात है। बाकी तो आपको हर पर कलम चलाने की छूट है। अब आप लोग जो समझें। लेकिन हम झुकते नहीं हैं और हमारी पत्रकारीय धार का लोहा दुनिया मानती है। तो सोचिये धार भी बरकरार रहे और समझौता होते हुये भी ना लगे कि हमने कुछ छुपाया। ठीक है।”

“नहीं हम ऐसी खबरो के पीछे नहीं भाग सकते जिसे छापना मुश्किल हो । रिपोर्टरो को भी ऐसी खबरो के पिछे मत भगाइये । नहीं तो वह खबर ले कर आयेंगे । दस्तावेज जुगाड कर लायेंगे । उन दस्तावेजो को लेकर आप उन्हें लंबे वक्त तक जांच कर रहे हैं, कहकर भटका भी नहीं सकते है । तो इस रास्ते पर चले ही नहीं।”
“और अगर कोई भूले भटके ऐसी खबर ले आया जो हमारे अखबार के खांचे में सही नहीं बैठती है तो”
” ……तो क्या आप सिनियर है । आप संपादक है । अब ये हुनर तो आपके पास होना ही चाहिये ।”

“खबरों को आने से मत रोकिये । जो आ रही है आने दें । लेकिन कोई भी ऐसी खबर जो देश की हवा बिगाड दे उसे ना छापें। ना ही डिस्कस करें ।”
“लेकिन ऐसी खबरों का मतलब होगा क्या । देश की हवा का मतलब क्या है ? पाकिस्तान से युद्द का माहौल या आतंकवाद को लेकर कोई गलत पहल। ”
“ना ना ….देश की राजनीति को समझिये । इस दौर में देश संकट से भी गुजर रहा है और विकास की नई परिभाषा गढने के लिये मचल भी रहा है । तो हमें देश के साथ खडा होना होगा। जो देश के हक में निर्णय ले रहा है उसके हक में ।”
“तब तो विपक्ष की राजनीति का कोई मतलब ही नहीं होगा । और उनके कहे को कोई मतलब ही नहीं बचेगा।”
” सही । आपकी खबर ही ये तय कर देगी कि जो सही है आप वहीं खडे हैं ।”
“तो फिर गलत या सही-गलत के बीच फंसने की जरुरत ही क्या है ।”

अखबारी जगत के तीन मित्रो की तीन कहानियां। ये शॉर्टकट कहानी है। क्योंकि संपादकों को बीच मौजूदा दौर में कहे जाने वाले शब्द और अनकहे शब्दों के बीच रहकर आपको सही गलत का पैसला करना होगा । तो अपने अपने संस्धानों को लेकर पत्रकार मित्रो के बीच संपादकों की इस बैठक को कितना भी लंबा खींचें। इसी बीच मुझे एक दिन एक पुराने मित्र ने कॉफी पीने का ऐसा आंमत्रण दिया कि मैं चौक गया । यार दो तीन घंटे। कॉफी पीते हुये बात करेंगे।
वह तो ठीक है। लेकिन शाम के वक्त दो तीन घंटे। बंधु शॉर्टकट में बतला देना।

और आखिर में तय यही हुआ कि जहॉ मुझे लगेगा कि मै बोर हो रहा हू तो मैं चल दूगा । शाम छह बजे फिल्म सिटी के सीसीडी पहुंचा। मित्र इंतजार कर रहे थे। बिना भूमिका उसने नब्बे के दशक में हवाला रैकेट के दौर के दस्तावेजों और उस दौर की अखबार–मैग्जिन की रिपोर्टिंग दिखाते हुये पूछा कि क्या इस तरह के दस्तावेज अब कोई मायने रखते हैं।
बिलकुल मायने रखते हैं। मायने से मेरा मतलब है कि अगर किसी दस्तावेज पर इसी तरह देश के तमाम राजनेताओ के नाम दर्ज हो तो क्या आज की तारीख में कोई मीडिया संस्धान छाप पायेगा। ये क्या मतलब हुआ। अरे यार कोई भी दस्तावेज जांचना चाहिये। गलत भी हो सकता है।

मौजूदा दौर में जब सबकुछ सत्ता में जा सिमटा है तो फिर एक भी गलत खबर या कहें बिना जांचे परखे किसी दस्तावेज को सही कैसे कोई मान लेगा। और तुम खुद ही कह रहे हो कि राजनेताओं को कठघरे में खड़ा करने वाले दस्तावेज । जो भी सवाल मेरे जहन में उठे मैंने झटके में कह दिये। लेकिन मेरे ही सवालो को जबाब देकर मित्र ने फिर मुझे
कहा…..यार खबर गलत होगी तो हम यहां क्यों बैठे होते । मैं चर्चा क्यों कर रहा होता। जरा कल्पना करो सिस्टम चल कैसे रहा है । आप संस्धानों को टटोलेंगे । आप अधिकारियो से पूछेंगे । आप खबरों की कड़ियो को पकडेंगे । तथ्यों को उनके साथ जोडेंगे । और अगर सब सही लगे तब किसी संपादक का क्यों रुख होना चाहिये। तुम ही बताओ कि अगर तुम होते तो क्या करते। जाहिर है लंबी बहस के बाद ये ऐसा सवाल था जिसका जबाब तुरंत मैं क्या दूं। मेरे जहन में तो मौजूदा दौर के सारे हालात उभरने लगे। मौजूदा हालातों से टकराते उस दौर के हालात भी टकराने लगे, जब सत्ता में एक खामोश पीएम हुआ करते थे । दिल्ली में पत्रकारिता का सुकून ये तो है कि आप सत्ता की चाकरी करने वालों से लेकर सत्ता से टकराते पत्रकारों को बखूबी जान समझ लेते हैं। एक दौर में राडिया। एक दौर में भक्ति। एक दौर में धंधा। एक दौर में संघी। तो क्या इस या उस दौर में पत्रकारिता उलझ चुकी है। या उलझी पत्रकारिता को पहली बार पत्रकार ही सत्ता की गोद में बैठ कर सुलझाने लगे हैं। लेकिन सवाल को खबर का है । और सवाल मुझसे मेरा मित्र क्यों पूछ रहा है मैंने थाह लेने की कोशिश की । क्यों ये सवाल तो कोई सवाल हुआ नहीं । मुझे अजीब सा लग रहा था ये कौन से हालात हैं।

मैंने जोर से उसकी बात काटते हुये कहा , यार तुम ये सब मुझे कह रहे हो जबकि तुम खुद जिस जगह काम करते हो……वहां के संपादक । वहा का प्रबंधन तो खबरों पर मिट जाने वाले हैं। और तुम तो भाग्यशाली हो कि ऐसी जगह काम करते हो जहां खबरों को लेकर कोई समझौता नहीं होता ।
गुरु …सही कह रहे हो । लेकिन जरा सोचो हम कर क्या करें।

मैंने भी भरोसा दिया, रास्ता निकलेगा। और हम मिलकर रास्ता निकालेगें। हम दो चार दिन में फिर मिलते है । तुम मुझे भी वो दस्तावेज दिखाओ । मै भी देखता हूं
…..अरे यार तुम्हारे ये न्यूज चैनल कितने भी बड़े हो जाये..कितना भी कमा लें लेकिन एक चीज समझ लो देश की सुबह आज भी अखबारो से होती है।
अरे ठीक है यार रात तो चैनलों से होती है। तो तय रहा अगली मुलाकात में ……लेकिन ये लिखते लिखते सोच रहा हूं अब अगली मुलाकात…..तो आप भी इंतजार कीजिए…

(जारी….)

(लेखक के ब्लॉग से साभार)

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पुण्य प्रसून बाजपेयी के पास प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में 20 साल से ज़्यादा का अनुभव है। प्रसून देश के इकलौते ऐसे पत्रकार हैं, जिन्हें टीवी पत्रकारिता में बेहतरीन कार्य के लिए वर्ष 2005 का ‘इंडियन एक्सप्रेस गोयनका अवार्ड फ़ॉर एक्सिलेंस’ और प्रिंट मीडिया में बेहतरीन रिपोर्ट के लिए 2007 का रामनाथ गोयनका अवॉर्ड मिला।

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