राणा कुणाल
आदरणीय संपादक जी,
मान्यवर मैंने आपकी प्रतिष्ठित वेब पोर्टल पर पिछले दिनों “हिंदुस्तान, मोतिहारी की प्रसार संख्या ने 27 हाजार का आंकड़ा पार किया…” शीर्षक से एक रिपोर्ट पढ़ी थी. वैसे इस आलेख के सभी तथ्य सटीक व सारगर्भित लगे. लेकिन इसमें एक जगह जिक्र है कि “तत्कालीन मॉडेम प्रभारी सच्चितानंद सत्यार्थी की ओर से संपादक को भी गलत रिपोर्ट दिया जाता रहा. उन्होंने अपने तीन वर्षों के कार्यकाल में जमकर अख़बार का दोहन किया. नतीजन अख़बार का कबाड़ा निकल गया. लेकिन जैसा कि हर बुराई का अंत होता है. स्थानीय युवा संपादक संजय कटियार ने इस अनियमितता को संज्ञान में लिया. गंभीर आरोपों के सही साबित होने पर बतौर कार्रवाई सत्यार्थी को अखबार से निकाल दिया गया.”
इस पंक्ति में रिपोर्ट भेजने वाले ने या तो जान-बुझकर इस तथ्य को छुपाया है. या फिर पक्षपात किया है. आपको भी एक नेक सवाल है कि कृप्या पूरी तरह तथ्यों की पड़ताल कर ही अपने पोर्टल पर चलाए. यह सही है कि करीब तीन वर्ष पहले मुजफ्फरपुर यूनिट के संपादक संजय कटियार के आदेश पर तत्कालीन मॉडेम प्रभारी सच्चितानंद सत्यार्थी (50 वर्ष) को गंभीर अनियमितताओं के आरोप में निकाल दिया गया था. इसके लिए प्रबंधन ने कई बार बाकायदा सघन जांच भी किया. और हर बार श्री सत्यार्थी दोषी पाए गए. करीब 20 वर्षों से शहर में पत्रकारिता कर रहे सत्यार्थी ने इसकी आड़ में किस तरह का गोरखधंधा किया है. इसे मोतिहारी का एक नौसिखुआ खबरची भी बता सकता है. लेकिन आश्चर्य की बात है कि सत्यार्थी ने हटाए जाने के साल भर के भीतर ही फिर से कार्यालय ज्वाइन कर लिया.
और वे आज भी अखबार का दोहन कर रहे हैं. वह भी जिला प्रशासन, बिजली, निबंधन, माप-तौल व परिवहन जैसे महतवपूर्ण बीट देखते हुए. आखिर जो व्यक्ति पहले एक मॉडेम प्रभारी के रूप में बतौर सुपर स्टिंगर सैलरी पा रहा था. आज वही एक स्टिंगर के रूप में दस टकिये पर कैसे ख़ट रहा है, क्या यह गौर करने लायक बात नहीं है? क्या इतनी छीछालेदर होने व धकिया कर निकाले जाने के बाद कोई भी स्वाभिमानी पत्रकार उसी बैनर में एक जूनियर के रूप मर काम कर सकता है?
आज कार्यालय की स्थिति यह है यहां दो टीम तैयार हो गई है. एक काम करने वाली तो दूसरी ओछी व चिरकुट राजनीति करने वाली. सत्यार्थी दूसरी टीम का नेतृत्व कर रहे हैं. पते की बात यह है कि इन जैसों की वजह से ही अखबार आज महज 27 हाजर पर ही है. वरना आज इसकी प्रसार संख्या 35 हजार से कम नहीं होती. ताज्जुब की बात यह है कि इतना सब होने के बावजूद प्रबंधन इन्हें कैसे झेल रहा है?
मोतिहारी से राणा कुणाल की रिपोर्ट