अभिषेक श्रीवास्तव
आज का जनसत्ता देखने लायक है। एक साथ एक बेहतरीन और एक घटिया लेख प्रकाशित हुए हैं। प्रभु जोशी का अद्भुत विश्लेषण उनकी अपनी अद्भुत भाषा और शैली में आप संपादकीय पन्ने पर पढ़ सकते हैं। हिंदी के तुरंता-फुरंता टिप्पणीकारों को प्रभु जोशी से सीखना चाहिए कि कैसे महज़ 1500-2000 शब्दों में तथ्य, राजनीतिक विचार और दार्शनिकता को पिरोया जा सकता है। मुझे लगता है कि चुनाव के बाद हिंदी में इतना अच्छा लेख अब तक कहीं नहीं छपा है। (http://epaper.jansatta.com/c/2881957)
दूसरा लेख पुण्य प्रसून वाजपेयी का है जो पहले पन्ने पर छपा है। पहले से लेकर आखिरी हर्फ़ तक सिर्फ और सिर्फ जलेबीवाद, वैचारिक भ्रम, व्याकरणिक और भाषायी भ्रष्टाचार का अप्रतिम उदाहरण, जिसमें उन्होंने अनावश्यक फ़ैज़ की नज़्म को भी लथेड़ लिया है। यह लेख इस बात का सबूत है कि लिखने का बुनियादी संस्कार अर्जित किए बगैर कैसे कोई ”बड़ा पत्रकार” बन जाता है। मेरे खयाल से चुनाव के बाद हिंदी में इतना घटिया लेख अब तक कहीं नहीं छपा है। (http://epaper.jansatta.com/c/2881973)
(स्रोत-एफबी)