मयंक सक्सेना
सीधे सीधे पूछ रहा हूं…सीधा जवाब दीजिएगा…ये मत कहिएगा कि यूपीए के वक़्त कहां थे, क्योंकि उस वक़्त भी इतना ही रेलमपेल उनके खिलाफ़ लिखता रहा…लेकिन उस वक़्त ये नहीं हुआ था…
अब भक्त, समर्थक और विकास के पैरोकार ये बताएं कि जनरल डिब्बे खत्म करना और स्लीपर के टिकट भी आम आदमी की पहुंच से बाहर कर देना कौन सा वैकासिक चरण है…किस तरह से लोकतांत्रिक कदम है…और इससे आम आदमी का क्या भला होगा…
बहुत गुस्से में हूं…जो भक्त ख़ुद को बहुत लिबरल और तार्किक बताते हैं, उन से इस पर जवाब चाहिए…कि ये कौन सा और कैसा फैसला है?
सनद रहे अभद्र भाषा का प्रयोग करने वाले, व्यर्थ आरोप लगाने वाले और धमकाने वाले तुरंत उड़ा दिए जाएंगे…
बहुत हुआ लोकतंत्र का बाजा…और बहुत हो गया जनादेश का ढोंग…अंदर से आप सब भी जानते हैं कि शुद्ध साम्प्रदायिक एजेंडे को भुना कर ये सरकार आई है…विकास का नाटक दिख ही रहा है…अमीरों की सरकार के इस कदम का भी समर्थन करने वालों को गरीब, लोकतंत्र और जनमत की बात करने से पहले अपने गाल पर ही दो तमाचे रसीद कर लेने चाहिए…