नदीम अख्तर
आर्थिक मुद्दे की बात आते ही हिंदी चैनलों के एंकर कोमा में चले जाते हैं
यह देखकर दुख होता है कि हिन्दी प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया (बिजनेस को समर्पित हिन्दी चैनलों को छोड़कर) में आर्थिक मामलों के जानकार ना के बराबर हैं…आज जब रुपये की दुर्दशा ने देश के आर्थिक हालात को कोमा में डाल दिया है, तो सभी टीवी चैनल्स इस पर बहस कर रहे हैं…हिन्दी के टीवी एंकर विशेषज्ञों से बस कुछ रटे-रटाए सवाल पूछ कर इतिश्री कर ले रहे हैं…मसलन सरकार की नीतियां खराब रहीं, अर्थशास्त्री पीएम-एफएम कुछ नहीं कर पाए, शेयर बाजार गिर गया आदि-आदि…और कुछ नहीं मिला तो कांग्रेस व बीजेपी के नेता आपस में भिड़ा दिए गए, तू-तू-मैं-मैं हो गई और इतने गंभीर मुद्दे पर हो रही बहस का कीमती एयर टाइम नेताओं को खिला दिया गया, पब्लिक को कुछ समझ नहीं आया कि आखिर हमारी इकानॉमी की हालत ऐसी क्यों हो गई..???
टीवी ही नहीं, हिन्दी प्रिंट मीडिया में भी आर्थिक मामलों के जानकार पत्रकारों का टोटा है…वहां भी कहने को एक बिजनेस डेस्क होता है, जो सोना में उछाल और चांदी में गिरावट जैसी खबरें छापकर खुद को धन्य मान लेता है…ज्यादा होता है तो छोटे-मोटे उत्पादों के लॉन्च की प्रेस कॉन्फ्रेंस अटेंड कर उसकी खबर छाप दी जाती है…बाकी का काम समूह के अंग्रेजी बिजनेस अखबार और एजेंसी की स्टोरी को ट्रांसलेट कर हो जाता है… और जरूरत पड़ी तो भाषा-वार्ता जैसी हिंदी एजेंसियों की खबरों में कॉमा-पूर्णविराम ठीक करके उससे अखबार का स्पेस भर दिया जाता है…लोकल मंडी के प्राइस रेट्स भी अखबार का स्पेस भरने में बहुत मदद करते हैं…हो गया पाठकों तक बिजनेस की जानकारी पहुंचाने का काम…
जब हालात इस कदर काम चलाऊ हों तो देश के सामने ऐसी गंभीर आर्थिक हालात आने पर विश्लेषण-बहस के लिए जानकार हिन्दी भाषी पत्रकार कहां से आएगा? खोजपरक खबरें कौन लिखेगा-बनाएगा-दिखाएगा…आज आप कोई भी हिन्दी न्यूज चैनल देख लीजिए…आपको सचाई का पता चल जाएगा…गूगल पर सर्च मारकर FIIs के इन्वेस्टमेंट के आंकड़े और उनके हाथ खींच लेने के बारे में हिन्दी के एंकर बोल देंगे लेकिन जब उनसे पूछिएगा कि ये क्यों और कैसे हुआ, पिछले 5-10 साल में देश की इकनॉमिक ग्रोथ किस मॉडल पर चली, अचानक कहां गड़बड़ी हो गई तो कह नहीं सकता क्या जवाब मिलेगा…देश के मौजूदा आर्थिक हालात पर बहस कर रहे हिन्दी चैनल्स पर मैं भी यह जानना चाहता था कि रुपये की यह दुर्गति क्यों और कैसे हुई, लेकिन निराशा ही हाथ लगी…मेरे ज्ञान चक्षु नहीं खुले…आर्थिक मामलों पर मेरी भी जानकारी बहुत कम है, सो टीवी के माध्यम से इसे बढ़ाना चाह रहा था..आखिरकार current account deficit और market sentiments से आगे भी कोई चीज होती है, जो अर्थव्यवस्था को धड़ाम कर देती है.
(नदीम अख्तर के फेसबुक वॉल से साभार)