विशिष्ट और अति विशिष्ट लोगों की सुरक्षा में लगे जवानों और उन पर किये जा रहे खर्च का मुद्दा उच्चतम न्यायलय तक पहुँच गया है। विशिष्ट और अति विशिष्ट लोगों को सुरक्षा देनी चाहिए या नहीं, इस पर बहस भी छिड़ गई है। कोई कह रहा है कि सुरक्षा देनी चाहिए, तो किसी का मत है कि नहीं देनी चाहिए। कुछ लोग सुरक्षा देने में अपनाए जाने वाले नियमों को और कड़ा करने के पक्ष में हैं, तो कुछ लोगों का मत है कि सुरक्षा पर होने वाला खर्च उसी व्यक्ति से वसूल किया जाना चाहिए, जिसकी सुरक्षा पर धन खर्च हो रहा है, जबकि सबसे पहला सवाल यही है कि सुरक्षा देनी ही क्यूं चाहिए?
लोकतंत्र में सभी की जान की कीमत बराबर है, तो सभी की सुरक्षा की चिंता बराबर ही होनी चाहिए। सुरक्षा देने में नियमों को और कड़ा करने का अर्थ यही है कि विशिष्ट और अति विशिष्ट लोगों को सुरक्षा देने का प्रावधान तो रहेगा ही और सुरक्षा देने का नियम रहेगा, तो सुरक्षा चाहने वाले प्रभावशाली लोग नियमों की पूर्ति करा ही लेंगे। रही धन वसूलने की बात, तो देश में तमाम ऐसे लोग हैं, जो पूरी एक बटालियन का खर्च आसानी से भुगत लेंगे, इसलिए धन वसूलने के नियम के भी कोई मायने नहीं है।
इस मुद्दे को व्यक्तिगत सुरक्षा में लगाए जाने वाले जवानों और आम आदमी की दृष्टि से भी देखना चाहिए। देश और समाज की सेवा में जान देने को तत्पर रहने वाले कुछ जवानों की जिन्दगी निजी सुरक्षा के नाम पर कुछ ख़ास लोगों की चाकरी में ही गुजर जाती है। लेह, लद्दाख और कारगिल जैसे कठिन स्थानों पर तैनात जवान सेवानिवृति के बाद भी अपनी तस्वीर देखते होंगे, तो सीना गर्व से चौड़ा ही होता होगा, लेकिन विशिष्ट और अति विशिष्ट लोगों की सुरक्षा में जिन्दगी गुजार देने वाले जवानों को यही दुःख रहता होगा कि पूरी जिन्दगी एक शख्स की चाकरी में ही गुजार दी। ऐसे जवानों की संतानें भी गर्व से नहीं कह पाएंगी कि उनके पिता कमांडों हैं, इसलिए देश और समाज की सेवा के लिए नियुक्त किये गये जवानों को निजी सुरक्षा में लगाना ही गलत है, इसी तरह गली-मोहल्ले के बाहुबलियों, धनबलियों और डकैतों से लेकर बदले की राजनीति करने वाले नेताओं के दबाव व भय के चलते गाँव से पलायन कर जाने वाला आम आदमी विशिष्ट और अति विशिष्ट लोगों के पीछे दौड़ते एनएसजी कमांडों को देखता होगा, तो सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि उसके अन्दर कैसे विचार आ रहे होते होंगे?
विमान अपहरण पर कार्रवाई करने और एंटी टेरर ऑपरेशंस के लिए 1984 में नैशनल सिक्यूरिटी गार्ड्स (एनएसजी) का गठन किया गया था। एनएसजी के दो विंग बनाए गए, जिसे स्पेशल ऐक्शन ग्रुप (एसएजी) और स्पेशल रेंजर्स ग्रुप (एसआरजी) नाम दिया गया। एसएजी में सेना के जवानों को डेपुटेशन पर भेजा जाता है, जबकि एसआरजी में आईटीबीपी, सीआईएसएफ, सीआरपीएफ, बीएसएफ और एसएसबी के जवान डेपुटेशन पर भेजे जाते हैं। दुर्भाग्य की ही बात है कि इसी एसआरजी में से आधे से अधिक जवानों को वीआईपी सिक्यूरिटी में लगा दिया गया है। लोकतंत्र की प्रासंगिकता और इन जवानों का मनोबल बनाये रखने के साथ सबसे पहला प्रयास यह होना चाहिए कि आम आदमी के मन में हीनता का भाव न आये, इसलिए विशिष्ट और अति विशिष्ट शब्द का प्रयोग ही बंद होना चाहिए। संविधान के अनुच्छेद 15(1) में स्पष्ट कहा गया है कि भारत में जन्मे सभी नागरिकों के अधिकार समान हैं और किसी को जन्म, खानदान, वंश, जाति, लिंग, धर्म, वर्ग और क्षेत्र के आधार पर विशिष्ट नहीं माना जाएगा, इसके बावजूद देश में विशिष्ट और अति विशिष्ट के रूप में लोगों की भरमार है। विशिष्ट और अति विशिष्ट रहेंगे, तो आम आदमी भी रहेगा और आम आदमी रहेगा, तो वह स्वयं को हीन समझता ही रहेगा, इसलिए सबसे पहले विशिष्ट और अति विशिष्ट श्रेणी निर्धारित करने की प्रक्रिया को समाप्त करने की दिशा में पहल होनी चाहिए। इसके अलावा अव्यस्था रोकने के लिए एक अलग विंग बनाना चाहिए, जो सिर्फ भवनों, राष्ट्रपति, प्रधान न्यायाधीश, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री जैसों की देखभाल करे। युद्ध के साथ देश और समाज की सुरक्षा के लिए भर्ती किये गये कमांडोंज को निजी सुरक्षा में लगाना किसी भी दृष्टि से सही नहीं है। महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि एसपीजी का बजट 200 करोड़ के करीब है, जबकि देश के एक अरब लोगों की सुरक्षा का भार उठाने वाली एनएसजी का बजट एसपीजी की तुलना में बहुत कम है, साथ ही राज्यों ने अपनी ओर से वीआईपी सुरक्षा में पुलिस को भी लगा रखा है, जिसका कुल बजट जोड़ा जाए, तो हजारों करोड़ में बैठेगा। एक तरह से आम आदमी की मेहनत की कमाई को बर्बाद ही किया रहा है। ज़ेड और ज़ेड प्लस श्रेणी की सुरक्षा नियमानुसार उसी व्यक्ति को दी जाती है, जिसे जातीय और धार्मिक समूह के साथ आतंकवादी संगठनों से जान का खतरा हो। यहाँ ध्यान देने की विशेष बात यह है कि इस बिंदु पर पहले जांच होनी चाहिए कि जाति या धार्मिक समूह किसी व्यक्ति को जान से मारने को आमादा क्यूं हैं, क्योंकि वर्तमान में अधिकाँश नेता जाति और धर्म की ही राजनीति कर रहे हैं, जिसकी इजाजत संविधान नहीं देता
। जो समाज में रहने लायक न हो और जिसके सुधरने की भी कोई आशा न हो, ऐसे अपराधी को फांसी देने का प्रावधान है, ऐसे ही किसी जाति या किसी धार्मिक समूह की भावनाओं को भड़काने वाले व्यक्ति को भी समाज में रहने का अधिकार नहीं होना चाहिए, जबकि उसे विशिष्ट और अति विशिष्ट का दर्जा देकर कड़ी सुरक्षा दे दी जाती है और कड़ी सुरक्षा पाकर वह लोग आम आदमी के सामने और भी परेशानी का सबब बनते रहते हैं। राह में चलते समय उनके लिए मार्ग खाली करा दिया जाता है, ऐसे ही किसी भी सार्वजनिक स्थल पर ऐसे लोग आम आदमी के अपमान का कारण बनते ही रहते हैं। दिल्ली हाई कोर्ट ने वीवीआईपी की सुरक्षा पर एक बार टिप्पणी करते हुए कहा था कि यह लोग कोई राष्ट्रीय धरोहर नहीं हैं, जो इनकी सुरक्षा करने की आवश्यकता है, लेकिन हाई कोर्ट की कड़ी टिप्पणी के बावजूद आज तक कोई सुधार नहीं हुआ। अब देखने वाली महत्वपूर्ण बात यही है कि उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप से कुछ सुधार होगा या नहीं।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)