डॉ. वेदप्रताप वैदिक अपने मौलिक चिंतन, प्रखर लेखन और विलक्षण वकृतत्व के लिए विख्यात हैं। अंग्रेजी पत्रकारिता के मुकाबले हिन्दी में बेहतर पत्रकारिता का युगारंभ करने वालों में डॉ. वैदिक का नाम अग्रणी है। फिलहाल दिल्ली के राष्ट्रीय समाचारपत्रों तथा प्रदेशों के लगभग 200 समाचार पत्रों में भारतीय राजनीति और अंतराष्ट्रीय राजनीति पर डॉ. वैदिक के लेख हर सप्ताह प्रकाशित होते हैं। आधी आबादी पत्रिका के सहायक सम्पादक ‘हिरेन्द्र झा’ ने डॉ वेद प्रताप वैदिक से बात-चीत की। यह बातचीत पहली बार मीडिया खबर पर ही प्रकाशित की जा रही है।
हिरेन्द्र- आप एक दिग्गज पत्रकार हैं, सम्पादक रहे हैँ। हम जैसे हजारों लोगों के लिए एक आदर्श हैं! क्या आपको नहीं लगता कि बाबा रामदेव का आप जिस तरह से समर्थन कर रहे हैं ये आपको शोभा नहीं देता?
डॉ. वैदिक- बाबा रामदेव स्वयं बहुत ही समर्थ हैं। सोचने में, निर्णय करने में और लागू करने में। वे संकल्प के धनी हैं, आत्मनिर्भर हैं और आत्मविश्वस्त हैं। वे देश का बहुत बड़ा उपकार कर रहे हैं। मंं तन-मन-धन से उनका समर्थन करता हूं। और मैं नहीं समझता कि इसमें कुछ गलत है!
हिरेन्द्र- बाबा रामदेव तो मोदी को प्रधानमन्त्री बनाना चाहते हैं? क्या आप भी उसी राह पर हैं?
डॉ. वैदिक- मोदी जी को प्रधानमंत्री बनना चाहिए! उनके पास एक विज़न है! मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बन गए, मेरे मित्र हैं। मैं उनका सम्मान करता हूं। लेकिन, उनके जैसी जलालत मैं तो नहीं भुगत सकता। व्यक्तिगत रूप से मैं उनका बहुत सम्मान करता हूं। लेकिन, मैं उनकी जगह होता तो कब का प्रधानमंत्री पद छोड़ देता। वो बहुत ईमानदार हैं, मैं मानता हूं। पर, उन्होंने प्रधानमंत्री पद की गरिमा को धूमिल किया है। यह समझ से परे है। उनकी तुलना में मैं इंदौर के एक मेहनतकश किसान को ज्यादा सफल मानता हूं, जो ना पार्षद बना, कहीं का चपरासी तक नहीं बना। लेकिन, वो आनंद में रहता है। उसके परिवार के लोग, मित्र, रिश्तेदार उसका सम्मान करते हैं। उसको मैं राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री बनने से ज्यादा कामयाब मानता हूं। मोदी जी संभवतः इस पद से न्याय करेंगे!
हिरेन्द्र- हमने सुना कि कुछ चैनल फिक्स इंटरव्यू चला रहे हैं! चुनावी मौसम में खूब कमाई कर रहे हैं! अब पत्रकारिता पूरी तरीके से उद्योग बनकर रह गया है?
डॉ. वैदिक- उद्योग तो पहले भी था। पहले ये व्रत की तरह था, अब वृति बन गया है। अब पैसा कमाने का एक साधन बन गया है। ब्लैकमेलिंग और रिश्वत की बात तो है ही अब संपादक और रिर्पोटर जो मोटा पैसा कमा रहे हैं, उनके अलावा अखबार के मालिकान भी अखबार के आड़ में बड़े-बड़े धंधे करते हैं। वो पैसे कमाने का, दुहने का हर प्रयास करते हैं। टीवी में भी यही हाल है, आप क्या कर लेंगे? राजनीति, विद्या, व्यापार सब भ्रष्ट हो गया है आज तो मीडिया कैसे बचे? न तो मौलिकता बची न मूल्य। मीडिया में कुछ लापरवाही भी है। ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं बल्कि ठगी की स्वतंत्रता है।
हिरेन्द्र- एक सवाल थोड़ा हट के। कॉलेज के दिनों में मैं ओशो को ख़ूब पढ़ता था, मैने देखा है कि उनकी कुछ किताबों का प्रीफेस आपने लिखा है, उस बारे में भी कुछ बताएं?
डॉ. वैदिक- ओशो से मेरी बड़ी अच्छी मित्रता थी, मैंने उनके कई पुस्तकों की भूमिका भी लिखी और समीक्षाएं भी की। आपातकाल में उन्होंने मुझे पुणे से दो-तीन पुस्तकें भी भिजवाई, मैंने उनकी भी समीक्षा लिखी। उस समय वो भगवान कहलाते थे, ओशो नहीं बने थे। उनके लिए मेरे मन में बड़ा प्रेम और सम्मान था। 18 साल पहले एक बार मैं पुणे गया तो पुणे विश्वविद्यालय में मेरा भाषण था। वहीं कई लोग रजनीश आश्रम से मुझे लेने के लिए आ गए। क्योंकि, वो जानते थे कि रजनीश जी से मेरी गहरी मित्रता रही। तो रजनीश जी के जाने के बाद पहली बार उनका जो शयनकक्ष था वो खुला और मुझे उन्होंने उसी पलंग पर सुलाया जिस पर रजनीश सोते थे। इंदौर में ‘ दर्शन परिषद‘ की स्थापना मैंने की। वहां देश के बड़े-बड़े दार्शनिक लोगों को बुलाकर कार्यक्रम करते थे। आचार्य रजनीश ओशो भी वहां एक बार आए थे। ओशो के साथ एक कार्यक्रम में मुझे बोलने का भी अवसर मिला।
हिरेन्द्र- दर्शन में आपकी बड़ी गहरी रुचि रही है?
डॉ. वैदिक- दर्शन में बड़ी गहरी रूचि रही और अभी भी दर्शन में जो मेरा अनुराग है उसने मुझे दो चीज़ों से बहुत ही दूर रखा-पैसे से और सत्ता से। क्योंकि दर्शन में जिन्हें रूचि है उन्हें गहरी सच्चाईयों का पता बहुत छोटी उम्र में ही लग जाता है, वास्तविकता का बोध हो जाता है, माया का खेल पता चल जाता है। ‘ माया महाठगिनी हम जानी‘। जो सच्चा दर्शनप्रेमी है वो ठगा नहीं जाता। मैं ठगे जाने से बच गया। जब कुछ मामूली लोग प्रधानमंत्री बन गए तो मुझे कौन रोकता? मैं कभी का बन जाता। आज भी मैं संकल्प करूं और मैदान में आ जाऊं तो कोई मुश्किल नहीं है। लेकिन, मेरा उधर मन नहीं होता। मुझे चाहिए ही नहीं, मैंने आजतक कोई पद नहीं लिया। राजदूत बन जाना, राज्यपाल बन जाना, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, भारत रत्न, पद्मश्री, पद्मभूषण सबके लिए जोड़-तोड़ करते रहते हैं लोग। कोई ये नहीं कह सकता भारत में कि वेदप्रताप वैदिक ने किसी पद के लिए, पैसा के लिए या पुरस्कार के लिए कभी कोई कोशिश या लॉबिंग की है। बड़े-बड़े विश्वविद्यालय के उपकुलपति पद तक का प्रस्ताव मेरे पास 28, 30 वर्ष की उम्र में आए, मैंने मना कर दिया था। कई अखबारों के संपादक पद के लिए मैंने मना किया। कई बार कहा गया कि आप राज्यपाल बन जाए, मैंने साफ इंकार कर दिया। राज्यसभा में मुझे भेजने की बात कई बार उठी तो मैंने न जाने कितनी बार ऐसे ऐसे पदों को ठुकराया है। जहां तक बस चला मैं कभी कोई अवार्ड लेने नहीं गया। तो ये दर्शन की ही कृपा है। मैं अपने आप को बड़ा भाग्यशाली समझता हूं, इन अर्थों में।
(हिरेन्द्र झा, सहायक संपादक, आधी आबादी. सम्पर्क- 8800404784)