भारत की सबसे बड़ी एवं प्रतिष्ठित समाचार एजेंसी यूनाइटेड न्यूज ऑफ इंडिया (यूएनआई) ज़बरदस्त आर्थिक तंगी की शिकार है और किसी भी समय बंद हो सकती है. एजेंसी के कर्मचारियों को वेतन भी 11 माह की देरी से मिल रहा है. कहा जाता है कि इस पर आरएसएस के मुखपत्र पांचजन्य का कब्ज़ा है. सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या यूएनआई और इस पर निर्भर देश के हज़ारों छोटे-बड़े क्षेत्रीय समाचारपत्रों की मौत हो जाएगी? चौथी दुनिया के डॉ. कमर तबरेज की विशेष रिपोर्ट…
यूएनआई के आर्थिक संकट की कहानी 2007 से शुरू होती है. उस समय जी न्यूज समूह के अध्यक्ष सुभाष चंद्रा ने हिंदुस्तान टाइम्स लिमिटेड के एक्जीक्यूटिव प्रेजिडेंट एवं यूएनआई के चेयरमैन नरेश मोहन और वहां की यूनियन में बैठे उत्तम लाल एवं जवाहर गोयल जैसे लोगों के साथ मिलकर बेहद गोपनीयता और ग़लत नीयत से इस समाचार एजेंसी के सभी शेयर 32 करोड़ 4 लाख रुपये में ख़रीद लिए. उन्होंने इस पर पूरी तरह अपना क़ब्ज़ा जमाने की कोशिश की. उक्त शेयर दरअसल, सुभाष चंद्रा की इंवेस्टमेंट कंपनी मीडिया वेस्ट प्रा.लि. ने ख़रीदे थे और इस मामले में इतनी गोपनीयता बरती गई कि यूएनआई के किसी भी कर्मचारी को इसकी कानोंकान ख़बर नहीं हो पाई, लेकिन अगले दिन जब अंग्रेज़ी दैनिक डीनएन में यह ख़बर प्रकाशित हुई, तो यूएनआई के कर्मचारियों को पता चला और वे शर्मिंदा हुए कि इतनी बड़ी ख़बर ख़ुद उनकी एजेंसी को मालूम नहीं हो सकी. इस ख़बर पर यूएनआई की स्टॉफ यूनियन और कर्मचारियों की ओर से तीखी प्रतिक्रिया सामने आई. उन्होंने इस मामले में न्यायालय की शरण ली और न्यायालय ने भी उनके पक्ष में फैसला किया.
21 जनवरी, 2008 को न्यायालय ने जी न्यूज के विरुद्ध अपना फैसला सुनाते हुए कहा कि सुभाष चंद्रा की कंपनी मीडिया वेस्ट प्रा.लि. एक निवेश कंपनी है, जिसने यूएनआई के सारे शेयर 32 करोड़ 4 लाख रुपये में ख़रीदे हैं, जबकि यूएनआई के नियमानुसार, उसके शेयर केवल किसी अख़बार को ही बेचे जा सकते हैं. दूसरा यह कि मीडिया वेस्ट प्रा.लि. कंपनी के नियम- क़ानूनों में यह उल्लेख है कि उसके द्वारा अर्जित मुनाफ़ा कोई बाहर नहीं निकाल सकता है, बल्कि उसे इसी कंपनी में ही दोबारा निवेश करना होगा.न्यायालय के अनुसार, इस प्रकार के नियम-क़ानून भी यूएनआई के शेयर खरीदने की अनुमति नहीं देते. न्यायालय के इस फैसले के बाद जी न्यूज समूह को अपने पैर वापस खींचने पड़े, लेकिन यहीं से यूनएनआई के आर्थिक संकट की कहानी शुरू होती है.
दरअसल, जी न्यूज समूह ने शेयर खरीदने के बाद जो 32 करोड़ 4 लाख रुपये यूएनआई के एकाउंट में जमा कराए थे, अदालत का फैसला आने के बाद उसने अपनी उक्त धनराशि वापस लेनी चाही. लेकिन यहां भी एक खेल खेला गया. चूंकि सुभाष चंद्रा ने यह सारा खेल स्वयं यूएनआई की यूनियन के साथ मिलकर किया था. लिहाज़ा न्यायालय का फैसला आ जाने के बाद यूनियन के उन्हीं लोगों ने एक रणनीति के तहत जी न्यूज समूह द्वारा जमा कराए गए पैसों की फिज़ूलख़र्ची शुरू कर दी, ताकि यूएनआई कभी उक्त पैसा लौटा न सके और इस तरह उसकी परेशानियां बढ़ती जाएं. मसलन, यूएनआई परिसर में घास लगाने के लिए बेहिसाब पैसा ख़र्च किया गया, एक शौचालय बनवाने के लिए चार लाख रुपये ख़र्च किए गए. इसी प्रकार पैसों का जमकर बंदरबांट किया गया. इसमें यूएनआई मैनेजमेंट का कोई हाथ नहीं था, बल्कि यह सारा खेल स्वयं सुभाष चंद्रा और एजेंसी की यूनियन में मौजूद उनके साथियों की साठगांठ से खेला जा रहा था.
नतीजतन, जब जी समूह को पैसा लौटाने का समय आया, तो उसके खाते में फिक्स्ड डिपोजिट के रूप में केवल 27 करोड़ रुपये ही वापस जमा कराए जा सके. शेष धनराशि को लेकर न्यायालय के हस्तक्षेप से यह तय हुआ कि यूएनआई 22 लाख रुपये प्रतिमाह की किस्त के रूप में उसे वापस करेगी. उन्हीं दिनों एक और रोचक घटना हुई. जी समूह और यूएनआई के बीच इस मामले की सुनवाई के दौरान आनंद बाज़ार पत्रिका (एबीपी) समूह ने न्यायालय को यह विश्वास दिलाया था कि वह यूएनआई को आर्थिक संकट से निकाल लेगा. न्यायालय ने उसे यह ज़िम्मेदारी सौंप दी, लेकिन बाद में स्वयं आनंद बाज़ार पत्रिका समूह अपने वादे से मुकर गया. यूएनआई ने इस पर विचार-विमर्श करना शुरू किया कि क्यों न आनंद बाज़ार पत्रिका समूह के विरुद्ध न्यायालय की अवहेलना का मामला दर्ज कराया जाए, लेकिन गहन विचार-विमर्श के बाद यह मालूम हुआ कि उसकी नीयत में कोई खोट नहीं है, बल्कि वह यूएनआई से सही ढंग से परिचित नहीं है, इसीलिए उसे अपना काम करने में कठिनाई हुई. यह तर्क इस बात से साबित किया जा सकता है कि पीके माहेश्वरी जब एबीपी के चेयरमैन थे, तब वह स्वयं यूएनआई को वीआरएस के लिए प्रत्येक माह 10 लाख रुपये की सहायता अपने फंड से करते थे. इसके अलावा, आनंद बाज़ार पत्रिका ने यूएनआई की कई बार आर्थिक सहायता की.
चौथी दुनिया को कुछ लोगों ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि यूएनआई की हिंदी सेवा के कुछ कर्मचारी अब भी आरएसएस से जुड़े हुए हैं, जिनमें सबसे ऊपर नाम यूएनआई हिंदी के मौजूदा सदस्य मुकेश कौशिक एवं मोहनलाल जोशी का है. यही नहीं, मुकेश कौशिक और लालकृष्ण आडवाणी के बीच नज़दीकी संबंधों की बात भी किसी से छिपी नहीं है. कहा यह भी जा रहा है कि 2014 में भाजपा के सत्ता में आते ही एक बार फिर यूएनआई पर क़ब्ज़ा करने की पूरी कोशिश की जाएगी. ग़ौरतलब है कि कुछ सालों पहले आरएसएस ने अपनी एक अलग समाचार एजेंसी स्थापित करने का प्रयास किया था और इसके लिए उसने यूएनआई को आसान टारगेट समझते हुए उस पर क़ब्ज़ा करने की भरपूर कोशिश की, लेकिन वह सफल नहीं हो सका. यही कारण है कि पिछले दिनों जब यूएनआई के कुछ लोगों ने कांग्रेसी नेताओं से इस संस्था को आर्थिक संकट से उबारने के लिए गुहार लगाई, तो उन्होंने तीखे तेवर दिखाते हुए कहा कि भाई, यह तो संघियों की संस्था है, उसमें हम भला आपकी क्या सहायता कर सकते हैं? इससे साबित होता है कि कांग्रेस भी यूएनआई को आरएसएस से जुड़ी एजेंसी मानती है. ऐसे में, भला कांग्रेस के नेतृत्व वाली वर्तमान यूपीए सरकार से यह आशा कैसे की जा सकती है कि वह इसे आर्थिक संकट से बाहर निकालेगी.
विश्वसनीय सूत्रों के अनुसार, हाल में यूएनआई के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के चेयरमैन विश्वास त्रिपाठी, जो संयोग से एक इंफ्रास्ट्रक्चर कंपनी के सीईओ भी हैं, ने बैकडोर से यूएनआई में 50 लाख रुपये का निवेश किया है. ज़ाहिर है कि यूएनआई इस पैसे को शेयर बेचकर प्राप्त किया जाने वाला पैसा कभी नहीं बताएगी, बल्कि इसे कर्ज के रूप में दर्शाएगी. अब सवाल यह उठता है कि क्या विश्वास त्रिपाठी यूएनआई के नियमों का उल्लंघन नहीं कर रहे हैं? क्या सुभाष चंद्रा की तरह उनके ख़िलाफ़ कार्यवाही नहीं होनी चाहिए?
विश्वसनीय सूत्र बताते हैं कि विश्वास त्रिपाठी का एक भांजा यूएनआई में बतौर रिपोर्टर काम रहा है, लेकिन असल में वह यूएनआई के सीईओ के रूप में जाना जाता है और उसके ख़िलाफ़ बोलने का किसी में साहस नहीं है. यूएनआई में भय का माहौल है. हर किसी को यह डर है कि कहीं इस संस्था पर ताला न लग जाए. बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के सदस्यों की ओर से इसे कमज़ोर करने के प्रयास लगातार हो रहे हैं और तानाशाही बरकरार है, जिससे कामकाज पर फ़र्क पड़ रहा है. अब ज़रूरत इस बात की है कि सरकार इसे गंभीरता से ले और हस्तक्षेप करके यूएनआई को संकट से बाहर निकालने की कोशिश करे, क्योंकि अगर यूएनआई पर ताला लटकता है, तो यह केवल एक संस्था का अंत नहीं होगा, बल्कि देश के ऐसे सैकड़ों समाचारपत्र भी दम तोड़ देंगे, जो ख़बरों के लिए पूरी तरह से यूएनआई पर ही निर्भर हैं.
उर्दू सेवा सबसे अव्वल
यूएनआई उर्दू सेवा की शुरुआत 1992 में हुई थी और तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हाराव ने 21 जून, 1992 को संसद की एनेक्सी में इसका उद्घाटन किया था. सरकार की ओर से उर्दू सेवा के लिए पहली बार 25 लाख रुपये भी दिए गए, लेकिन अफसोस की बात यह है कि उक्त पैसे उर्दू या उर्दू वालों पर ख़र्च नहीं हुए, बल्कि यूएनआई में पहले से मौजूद हिंदी एवं अंग्रेज़ी के स्टॉफ को इस प्रकार बोनस दे दिया गया, जिससे उर्दू एवं उर्दू वालों के साथ भेदभाव का दौर पहले दिन से ही शुरू हो गया. विडंबना तो यह है कि यूएनआई उर्दू सेवा के कर्मचारी जिन कंप्यूटरों पर काम करते हैं, वे भी संस्था की ओर से नहीं मिले, बल्कि एनसीपीयूएल ने अपनी ओर से दान के रूप में दिए हैं. इसके अलावा, 1992 से लेकर अब तक जितने भी कर्मचारी यूएनआई उर्दू सेवा छोड़कर दूसरी जगह गए, उनके पद आज तक नहीं भरे गए. जबकि यूएनआई में अंग्रेजी एवं हिंदी के मुक़ाबले उर्दू सेवा की पहुंच अधिक है. देश के 80 से अधिक उर्दू अख़बार यूएनआई की सेवाएं ले रहे हैं और उसकी ख़बरों को वरीयता एवं महत्व के साथ स्थान देते हैं. यही कारण है कि यूएनआई के हिंदी एवं अंग्रेजी के अधिकतर लोग जब कोई विशेष रिपोर्ट या लेख तैयार करते हैं, तो वे उर्दू सेवा के लोगों के सहयोग से उसे उर्दू अख़बारों में प्रकाशित कराने की कोशिश करते हैं. वजह, उन्हें मालूम है कि हिंदी एवं अंग्रेजी के अख़बारों में उनकी रिपोर्ट या लेख को जगह नहीं मिलेगी. जहां तक उर्दू सेवा से होने वाली आमदनी का सवाल है, तो चूंकि एनसीपीयूएल उन सभी उर्दू अख़बारों को 50 प्रतिशत सब्सिडी देता है, जो यूएनआई से ख़बरें लेते हैं. इस प्रकार यूएनआई उर्दू सेवा की आमदनी में कभी कोई कमी नहीं आई, बल्कि उसके उर्दू अख़बारों की ओर से उसे हमेशा समय से पैसा मिलता रहा है.
(चौथी दुनिया के वेब संस्करण से साभार)
यूनीवार्ता के संदर्भ में मार्कंडेय काटजू के नाम पत्र
18 August 2013 at 19:25
न्यायाधीश श्री मार्कंडेय काटजू,
अध्यक्ष ,भारतीय प्रेस परिषद को यू एन आई के संबंध में लिखा गया पत्र पढ़े और आप सभी न्यायाधीश को पत्र लिखें, अपील है।
12-08-2013
प्रति
अध्यक्ष,
भारतीय प्रेस परिषद नई दिल्ली
विषय- देश की समाचार एजेंसी यू एन आई ( यूनीवार्ता और उर्दू सेवा समेत) की पत्रकारिता की स्वतंत्रता में बाधा जारी रखने में परिषद के हस्तक्षेप की मांग।
प्रिय न्यायाधीश श्री मार्कंडेय काटजू,
मैंने भारतीय प्रेस परिषद की बेवसाईट पर आज एक सूचना देखी। उसके एक अंश को यहां प्रस्तुत कर रहा हूं। “भारतीय प्रेस परिषद को पत्रकारिता स्तरों में सुधार करने और इसकी स्वतंत्रता बनाये रखने के लिए संसद से अधिदेश प्राप्त है। परिषद विशिष्ट मुद्दों पर अपने अधिनिर्णयों के साथ साथ रिपोर्टों और निर्णयों के माध्यम से यह कार्य,करती रही है। उक्ति दायित्व के साथ स्वतंत्रता के अनुसरण में मीडिया को कर्तव्यों का पालन करने हेतु प्रोत्साहित करने के लिए,ऐसे अनुदेश प्राप्त एकमात्र सांविधिक प्राधिकरण के रूप में भारतीय प्रेस परिषद ने विभिन्न क्षेत्रों में प्रिंट पत्रकारिता में उत्कृष्टता प्राप्त पत्रकारों/फोटो-पत्रकारों को सम्मानित करने के लिए प्रति वर्ष राष्ट्रीय प्रेस दिवस के अवसर पर राष्ट्रीय पुरस्कार देने प्रारंभ किये हैं।”मैं ये समझता हूं कि पत्रकारिता के स्तरों में सुधार करने और इसकी स्वतंत्रता को बनाये रखने के लिए प्राप्त अधिकार की व्याख्या करते हुए आपने यह पुरस्कार कार्यक्रम शुरू किया है। व्याख्या के बारे में मैं ये कहता हूं कि समाज में वहीं वर्ग और संस्कृति अपना राज बरकरार रख सकती है जिसे व्याख्या करने का अधिकार प्राप्त हो। व्याख्या का अधिकार का इस्तेमाल अपने सामाजिक सरोकारों के मुताबिक किया जाता है, ये आमतौर पर देखने को मिलता है। वह चाहें व्यक्ति करें या फिर कोई संस्था करें। पत्रकारिता के स्तरों में सुधार और पत्रकारिता की स्वतंत्रता की व्याख्य़ा केवल पुरस्कारों के संदर्भ में ही नहीं किया जा सकता है। मैं आपसे निवेदन ये करना चाहता हूं कि देश की समाचार एजेंसी यू एन आई के अंदर पिछले लगभग आठ वर्षों से जो घटित हो रहा है, उससे न केवल पत्रकारिता का स्तर प्रभावित हुआ है बल्कि पत्रकारिता में पत्रकारों की स्वतंत्रता बाधित हुई है। और हैरान करने वाली स्थिति तो ये हैं कि संसद और संसद से अधिदेश प्राप्त किसी संस्था ने इसे न तो रोकने की कोशिश की है और ना ही उस दिशा में उसकी कोई चिंता दिखाई दे रही हैं। आपको ये बताने की जरूरत नहीं है कि यू एन आई के साथ एक स्लोगन चिपका रहता है। यह कि यह भारतीय भाषाओं की एक मात्र समाचार एजेंसी है।संदर्भ के तौर पर यह उल्लेख किया जाना चाहिए कि यू एन आई ( United News of India ) की स्थापना भारत के प्रथम प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू की पहल और प्रथम प्रेस आयोग की सिफारिश के बाद की गई थी।तब पी टी आई देश की एक मात्र एजेंसी थी और प्रधानमंत्री नेहरू नहीं चाहते थे कि किसी एक समाचार एजेंसी का एकाधिकार हो। यूएनआई की स्थापना के लिए 1958 में पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री विधान चंद्र राय की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई गई थी।इस कमेटी ने पूरी दुनिया में समाचार एजेंसियों के ढांचे का अध्ययन किया था और समाचार एजेंसी ए पी के ढांचे को यू एन आई के लिए उपयुकत माना था। यह एक सहकारी संगठन के रूप में स्थापित हुआ और बाद में एक ट्रस्ट में परिवर्तित किया गया। बिना लाभ हानि के सिद्धांत पर शुरू
किए गए यू एन आई की समाचार सेवा पर देश के लघु और मध्यम समाचार पत्र खासतौर से निर्भर रहे हैं। यू एन आई अपनी पूरी यात्रा में पत्रकारिता के स्तर में सुधार और स्वतंत्रता की कहानियां बुनती रही हैं। 2006 तक यह संस्था बेहद फायदे में चलती रही और इसके पास सुरक्षित कोष जमा थे। लेकिन इसे गैर कानूनी तरीके से बेचने की तैयारी इस रूप में शुरू हुई कि इसे जिन रास्तों से फायदे होते थे उन्हें घाटे में बदला जाने लगा।सुरक्षित कोष को पैट्रोल और पेशाब घर जैसे कामों में बहा दिया गया। इसके ब्यौरे बेहद दिलचस्प है। मजे कि बात है कि यह संस्थान और उसके ढेर सारे पत्रकार और गैर पत्रकार साथी आर्थिक स्तर पर गरीब होते चले गए और कुछेक लोग बेहद मालामाल हो गए।उनके पास नई गाडियां आ गई। चूंकि इस पत्र की एक सीमा है वरना मैं पूरी कहानी आपको यहां सुनाना चाहता था। लेकिन मैं ये सार के तौर पर रखना चाहता हूं कि यू एन आई की मौजूदा स्थिति है कि पत्रकारों को लगातार बाहर निकलने के लिए मजबूर किया जा रहा है।यूएनआई का परिसर बिल्कुल उजड़ा हुआ चमन सा दिखने लगा है। मैं ये जो ब्यौरे दे रहा हूं उसके साथ ये खतरा हो सकता है कि आप उसकी व्याख्या प्रबंधन के संकट के रूप में करने लगे। मैं ये कहना चाहता हूं कि ये प्रबंधन की कमजोरी, कर्मचारियों और प्रबंधन के विवाद और श्रम कानूनों का मामला नहीं है। अपने पूरे चरित्र में यू एन आई का पूरा मामला पत्रकारिता के स्तर में सुधार और पत्रकारिता की स्वतंत्रता से जुड़ा हुआ है। पत्रकारिता की स्वतंत्रता को बाधित करने के लिए कई गैर कानूनी काम हो रहे हैं। पत्रकारिता से सरोकार न रखने वालों के नियंत्रण में ये संस्थान जा रहा है। यू एन आई को बचाने के लिए यहां के ईमानदार, कर्मठ कर्मचारियों व पत्रकारों ने लंबी लड़ाई लड़ी है लेकिन लगता है कि इस संस्थान के समय के साथ समाप्त होने का इंतजार किया जा रहा है। देश भर में फैले मध्यम और लघु समाचार पत्रों के सामने तो बड़ा संकट खड़ा होता जा रहा है।हजारों पत्रों के समाचार के स्रोतों को मिटाने की कोशिश और उसकी पूरी प्रक्रिया क्या स्तर और स्वतंत्रता को बनाए रखने में बाधा नहीं कही जाएगी? आप य़ू एन आई की पूरी स्थिति की व्याख्या लोकतंत्र में समाचार एजेंसी को बाधित करने के रूप में भी कर सकते हैं। मैं भारतीय प्रेस परिषद से उस व्याख्या की उम्मीद करता हूं जो लोकतंत्र और पत्रकारिता के हितों की सुरक्षा में मदद होगी। आपसे उम्मीद करता हूं कि संसद से प्राप्त अधिदेश का इस्तेमाल आप यू एन आई के मामले में अपने कारगर हस्तक्षेप के रूप में करेंगे।
धन्यवाद।
निवेदक
अनिल चमड़िया