कुछ बातें मन को कचौटती है। बिहार के एक स्कूल में एक दलित बच्चे को उनके ही साथी यातना देते हैं। बुरी तरह मारते पीटते हैं। यातना देने वालों का पिता कुख्यात अपराधी। इसलिए स्कूल का प्रिसिपल भी बार बार आती शिकायतों पर कुछ एक्शन नहीं लेता। आखिर एक वीडियो के सामने आने पर इस तरह की क्रूरता का पता चल पाता है।
एक ऐसी घटना जिसे टीवी पर बार बार दिखाया जा रहा हो । लेकिन उस घटना को लेकर आक्रोश क्यों नहीं। हर तरफ मौन क्यों? वो संवेदना अचानक कहां लुप्त हो जाती है जो एक बार अपनी भावनाओं में लिए हुए अवार्ड वापस कर रही थी। वो संवेदना अचानक कहां लुप्त हो गई जो टीवी के एक पत्रकार को समय समय पर झकझोरती है। उनके ही टीवी चैनल पर उद्घोष होता है कि जिन बच्चों ने मारपिटाई की है उनके पिता जेल में बंद हैं। हेै शब्द के बजाय हैं शब्द कहा जाता है। कहीं न कही इस मानसिकता में कि बंदी आरोपी व्यक्ति को सम्मान लगाने की आदत है।
ऐसे समय में कविता कहानी नुक्कड नाटक वाले कहां चले जाते हैं। क्या कोई खास राज्य हों तभी कविता की पंक्तियां निकलती है, तभी मचन के लायक नुक्कड नाटक होता है। क्या तभी कहीं सेमीनार होगा। क्या तभी राहुल गांधी किसी दलित परिवार में मिलने जाएंगे। क्या तभी दिल्ली के मुख्यमंत्री अपने सारे कामकाज को तिलांजली देकर वहां पहुंच जाएंगे। क्या कन्हैया तभी चिल्लाएंगा।
क्यों नहीं बिहार के एक स्कूल में जो हुआ, जो दिखा यह बात इनकी संवेदना को झकझोर गई। यह खामोशी क्यों। यह चुप्पी क्यों। क्या नीतिश की सरकार है इसलिए इस घटना को नजरअंदाज करेंगे। क्या लालू का क्षेत्र है इसलिए इन घटनाओं पर मौन साध लेंगे।
कहीं न कहीं सोच में दिक्कत है। हम समस्या से नहीं जूझते। समस्या में अपने समीकरण तलाशते हैं। दलित कहीं भी मारा जाए, पिटा जाए, उसमें असुरक्षता पनपती है। उसे इस बात से मतलब नहीं कि जहां उसे अपमानित किया जा रहा है, पिटा जा रहा है उस राज्य का शासक कौन है। उसके मन में भय है। डर है। और इन हालातों के कारण क्या हम सब नहीं है। कुछ अवार्ड इस घटना पर भी तो वापस किए जा सकते हैं। पर ऐसा होगा नहीं क्योंकि राजनीति के अपने खेल हैं। और कौन कहता है कि साहित्य जगत, बौद्धिक जगत हल्की राजनीति के गिरफ्त में नहीं।