विनीत कुमार
आप इस बात पर इतने नाराज क्यों हो रहे हैं कि स्टूडियो में दो जर्नलिस्ट एसी में बैठकर बात कर रहा है ? अच्छा है न कि आप राजनीतिक लोग खुले में, 46 डिग्री तापमान में प्रेस कांन्फ्रेंस कर रहे हैं और हम एसी में. इसमें इतनी तूल देने की क्या जरुरत है ? अर्णव ने कर्नाटक के नतीज को लेकर चल रही बहस में राजीव प्रताप रुढ़ी को बहुत ही हल्के अंदाज में कहा और उसके बाद माहौल इतना हल्का हो गया कि आउटलुक के पूर्व संपादक विनोद मेहता ने कहा- अरे पहले राजीव को एक गिलास पानी तो भिजवाओ, देखो एसी के बाहर प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रहा है ? फिर टाइम्स नाउ की स्टूडिया में ठहाका गूंज गया जिसमें गाढ़ी मुस्कान लार्ड मेघनाथ देसाई की भी थी.
एसी में जर्नलिस्ट के होने को राजीव प्रताप रुढ़ी ने इतना अधिक तूल दिया कि वो कोई गंभीर मसला होने के बजाय प्रहसन का हिस्सा बन गया और बारी-बारी से लोग मजे लेने लग गए. मैंने आज सुबह पहली बार अर्णव गोस्वामी को इतना खुलकर हंसते देखा. नहीं तो वो न्यूजरुम को एक गंभीर अदालत( रजत शर्मा से अलग और सचमुच गंभीर) बनाने के अलावे कोई दूसरा परिवेश नहीं बनाते और वो अदालत भी ऐसी कि देखते हुए लगे कि ये भारतीय संवैधानिक प्रावधानों के तहत निर्मित अदालत नहीं बल्कि ठाकुरजी के आगे की कोठरी है जहां से वेद,उपनिषद् हटाकर पैनल डिस्कशन कराए जा रहे हैं जबकि अंदर बैठकर ठाकुरजी सब देख रहे हैं. अर्णव उनके अनुचर हैं और जहां किसी ने धर्म के विरुद्ध रवैया अपनाया नहीं कि अर्णव का कोडा हाजिर. इस तरह से अर्णव की अदालत में राज व्यवस्था दैवी सिद्धांत के तहत चलती है जिसमे हिन्दू हर हाल में देवपुत्र हैं. खैर अर्णव के लगातार मुस्कराने और बाकी के पैनल के लोगों के बारी-बारी से मजे लिए जाने जिनमे कि टाइम्स नाउ की नविका कुमार भी शामिल रहीं, जिनका नीरा राडिया औऱ 2जी स्पेक्ट्रम मामले में खासा नाम चर्चा में रहा, राजीव प्रताप रुढ़ी खुद भी मुस्कराने लग गए और बात आयी-गयी हो गयी. यकीन मानिए राजीव और अर्णव मेरी घोर वैचारिक असहमति होने के बावजूद बहुत ही क्यूट लग रहे थे. लेकिन इस क्यूट लगने और मजे लेने के बीच जर्नलिस्टों के एसी में रहने की बात को राजीव प्रतप रुढ़ी जिस तरह उठाना चाह रहे थे और दर्शकों को ये बताना चाह रहे थे कि आप जिन्हें लोकतंत्र का चौथा खंभा मान रहे हैं वो घोर आरामदेह स्थिति में जीनेवाला तबका है, धरी की धरी ही रह गयी. अर्णव सहित पैनल के बाकी लोगों के हुलेलुलु कर दिए जाने के बाद इस पर आगे बात बढ़ ही नहीं पायी. लेकिन ये तो टाइम्स नाउ की एक बानगी है. हिन्दी के सेमिनारों में ये मुहावरा इतना घिस चुका है कि बोलनेवाले को पता नहीं एम्बरेसिंग लगती भी है न नहीं, लेकिन हमारे कान अपने आप सुनने के पहले कुनमुनाने लगते हैं. फिर वही एसी वाली बात. एसी मे रहने को एक लेखक के सबसे अधिक विलासी और सुविधाभोगी होने के प्रतीक के तौर पर जमाने से जो स्थापित कर दिया गया है सो कर दिया गया है. ये अलग बात है कि अगर आप फेहरिस्त बनाने बैठें तो कई ऐसे हिन्दी लेखक मिल जाएंगे जो एसी तो छोडिए, कूलर तक की हवा में नहीं रहते लेकिन जीवन स्तर और जो शौक है, उससे कूलर या एसी की खुदरा दूकान जरुर खुल जाएगी. ऐसे में मैं लेखकों के एसी में रहने या न रहने के बजाय विलासिता के प्रतीक को बदलने की अपील जरुर करुंगा. बहरहाल, हिन्दी लेखकों की बातें हिन्दी खित्ते के अनुभवी और कालजयी लोग आगे ज्यादा बेहतर करेंगे.यहां टीवी मीडियाकर्मियों के संदर्भ में एसी के इस मुहावरे को स्पष्ट करना जरुरी समझता हूं.
राजीव प्रताप रुढ़ी जैसे नेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं और दूसरी बिरादरी से कोसनेवालों की भरमार है जो कुछ नहीं तो टीवी मीडियाकर्मियों को एसी में रहकर बहस करने का मुद्दा बनाकर जमकर कोसते हैं. ये सही है कि पहले के मुकाबले फील्ड की रिपोर्टिंग तेजी से घटी है और आगे ये सिलसिला इस हद तक जारी रहेगा कि ओबी बैन चैनल अफनी नई बनी दैत्याकार बिल्डिंगों में सजाकर रखेंगे. एक हिस्सा म्यूजियम करार देकर उसकी शोभा बढ़ाएंगे या फिर इन ओबी बैन में चाउमिन के काउंटर खुल जाएंगे. लेकिन खासकर टीवी मीडियाकर्मियों के संदर्भ में एसी को लेकर जब बात की जाती है और देश की जनता के आगे उन्हें बहुत ही सुविधाभोगी करार देने की कोशिशें होती है तो मुझे हां में हां मिलाने के पहले अपने उन दिनों की याद आती है जब हम मई-जून की गर्मी में भी घर से शाल-स्वेटर लेकर ऑफिस जाया करते थे.
हम ट्रेनी जिनकी मामूली सैलरी हुआ करती थी और इन्टर्नशिप के दौरान तो अठन्नी भी नहीं, हम तब भी 12 से 14 घंटे उसी एसी में काम करते थे, पटेलनगर के कमरे में वापस आकर सोने पर लगता हम उबले अंडे हो गए हैं. जिन्हें राजीव प्रताप रुढ़ी और हिन्दी सेमिनारों में “ललित निंबध” बांचनेवाले लोग विलासिता का प्रतीक बताकर पूंजीवाद और उसकी गोद में गिरनेवाले लोगों के लिए मानक तैयार करते आए हैं. मेरी तरह मेरी कई दोस्त, सहकर्मी रात के डेढ़-दो बजते ही कंपकपाने लगती थी. यार आज स्वेटर लाना भूल गई, बहुत ठंड लग रही है. आप इसे चैनल का पागलपन कह सकते हैं, ऐसे दर्जनों सर्विस/फ्लोर ब्ऑय मिलेंगे. मीडिया संस्थान के भीतर बिजली की बर्बादी या कुप्रबंधन लेकिन भीतर काम करनेवाले कई ऐसे लोग तब मौजूद होते हैं, जब वो मई-जून की गर्मी में चाहते हैं किसी तरह एक कप चाय या कॉफी मिल जाए. जो लोग डेस्क पर या न्यूजरुम में काम करते हैं, उनके लिए तो फिर भी विकल्प है कि किसी तरह वहां के पंखे, एसी अपने अनुकूल कर लें लेकिन जो सीधे-सीधे न्यूजरुम की मशीनरी सिस्टम के भीतर घुसा है, जहां लाखों के उपकरण रखे हैं, जो एसी के न चलने की स्थिति में गड़बड़ा सकते हैं, गौर करेंगे तो संस्थान ने वहां काम करनेवाले लोगों के लिए नहीं, सिस्टम ठीक-ठाक रहे, उनके लिए इस एसी की व्यवस्था की है जहां मीडियाकर्मियों की मजबूरी है कि वो भीषण गर्मी में भी स्वेटर और कंबल ओढ़कर ही सही लेकिन एसी के बीच ही रहें.
कहने को तो आप इसे बिडंबना कह सकते हैं कि जिस दिल्ली-नोएडा सिटी में लाखों लोगों को पंखे की हवा तक मय्यसर नहीं है, काम करनेवालों का एक वर्ग ऐसा भी है जो एसी की ठंड से बचने के लिए शाल और स्वेटर का इस्तेमाल कर रहा है. लेकिन इस दूसरे तरह की मजबूरी पर भी गौर करने और मुहावरे के बदलने की जरुरत है. जरुरत न भी हो तो टेक्नीकली टीवी मीडियाकर्मियों को एसी के साथ जोड़कर विलासी करार देना गलता है. अव्वल तो ये कि जो एसी में काम कर रहे होते हैं, कईयों की हैसियत इतनी भी नहीं होती कि घर में भी एसी लगाएं, कूलर तक भी नहीं.( खासकर इन्टर्न और ट्रेनी) ऐसे में अर्णव और नविका कुमार जो की बाकादा सूटलेन्थ में मौजूद थे, पर तो फिर भी ये फिकरा कस सकते हैं लेकिन जब पूरा माहौल सौ साल के हिन्दी सिनेमा का है तो ये मुहावरा भी सिनेमेटोग्राफी के लिहाज से गलत हो जाता है और इस पर राजीव प्रताप रुढ़ी जैसा खेलने की नाकाम कोशिश नहीं बल्कि उस वर्ग के लोगों पर कोई कायदे की स्टोरी करने की है जो दस से बारह घंटे तो एसी में होता है लेकिन घर जाने पर पंखे तक की हवा नसीब नहीं होती.