टीवी चैनलों के इस फ़ैसले से संकट ये खड़ा हो गया है कि यदि ऐसा होने लगा तो विज्ञापनदाता और विज्ञापन एजंसियाँ किस आधार पर तय करेंगीं कि उन्हें किस चैनल को किन दरों पर कितने विज्ञापन देने चाहिए। टैम द्वारा दी जाने वाली टीआरपी के अलावा ये तय करने के लिए कोई दूसरा रास्ता या कसौटी इंडस्ट्री के पास है भी नहीं। ग़लत हो या सही हर हफ़्ते आने वाली टीआरपी से ही तय होता है कि कौन सा चैनल किस नंबर पर है और किस कार्यक्रम या धारावाहिक की लोकप्रियता क्या है। ज़ाहिर है अगर चैनल इसी को मानने से इंकार कर देंगे तो एक किस्म की अव्यवस्था पैदा हो जाएगी। लेकिन चैनलों का कहना है कि ऐसा कुछ नहीं होगा और वास्तव में ग़लत रेटिंग के आधार पर फ़ैसले करने से बेहतर है कि उसे न माना जाए।
सवाल उठता है कि ऐसी नौबत क्यों आई? प्रसारक क्यों टैम के ख़िलाफ़ लड़ाई के मैदान में उतर गए? पिछले लगभग बीस साल से वे टीआरपी के आँकड़ों के आधार पर कारोबार कर रहे थे और करीब तेरह साल से टैम ही टीआरपी देने का काम कर रही है। ऐसे में उन्हें अचानक क्या हुआ कि उन्हें टैम खटकने लगी और उन्होंने उसे पूरी तरह से खारिज़ करने का फ़ैसला कर लिया?
दरअसल, ये अचानक नहीं हुआ है। टैम के ख़िलाफ़ गुस्सा अरसे से खदबदा रहा था। बहुत सारे प्रसारक अपने स्तर पर इसे ज़ाहिर भी कर चुके थे। एनडीटीवी ने तो उसके ख़िलाफ़ अदालत का दरवाज़ा भी खटखटाया था। इस बार हुआ ये कि नाराज़ प्रसारक यानी टीवी चैनल एकजुट हो गए और उन्होंने सामूहिक रूप से हल्ला बोल दिया। ये सही है कि इसकी अपेक्षा टैम ने कतई नहीं की होगी और न ही इंडस्ट्री को लग रहा था कि एकदम से ऐसा हो जाएगा। इसीलिए ख़बर आने पर सबको थोड़ा अचंभा हुआ। मगर प्रसारकों के इरादों से साफ़ लगता है कि उन्होंने भावनाओं में बहकर नहीं बल्कि सोच-समझकर कदम उठाया है। इसीलिए पिछले तीन हफ़्तों से गतिरोध बना हुआ है और विज्ञापनदाताओं तथा विज्ञापन एजंसियों के संगठनों द्वारा दबाव डालने के बावज़ूद वे पीछे नहीं हटे हैं।
टैम के ख़िलाफ़ मौजूदा लड़ाई की वजह उसके आँकड़ों में हाल में आई अस्थिरता को बताया जा रहा है। कहा जा रहा है कि लोअर कंज्यूमर मार्केट (एलसी-1) यानी ग्रामीण प्रभाव वाले एक लाख से कम आबादी वाले शहरों में पीपल्स मीटर लगाए जाने के बाद से उसके आँकड़ों में उथल-पुथल नज़र आ रही है। प्रसारक इससे खुश नहीं हैं, क्योंकि टैम उन्हें इसका संतोषजनक कारण नहीं बता पा रही है। लेकिन टैम ने इसके लिए जो समाधान सुझाया है वह ये है कि एलसी-1 से मीटर हटाकर वापस बड़े शहरों में लगा दिए जाएं। प्रसार भारती इसके सख़्त ख़िलाफ़ है, क्योंकि उसे इससे बेहतर रेटिंग मिल रही है। वैसे प्रसारकों ने भी इसकी इच्छा नहीं जताई है और वे ये भी जानते हैं कि ये संभव नहीं है क्योंकि सही रेटिंग के लिए पीपल्स मीटर शहरी एवं ग्रामीण हर इलाके में लगेंगे ही। इसलिए मुमकिन है कि टैम ने गुमराह करने के लिए ये बहस छेड़ी हो। प्रसारकों के विरोध की मूल वजह यही लगती है कि टैम के आँकड़ों और कार्यप्रणाली को लेकर संदेह अब यकीन में बदल गया है।
साप्ताहिक टीआरपी देने की वजह से टैम टेलीविज़न इंडस्ट्री की भाग्य विधाता बनी हुई है। उसके द्वारा दिए जाने वाले आँकड़ों के आधार पर ही हर साल चौदह हज़ार करोड़ रूपए के विज्ञापनों का फ़ैसला होता है। उन्हीं आँकड़ों से चैनल तय करते हैं कि क्या दिखाया जाए, कैसे दिखाया जाए और किस समय दिखाया जाए। टैम अकेली मार्केट एजंसी है जो चैनलों एवं उनके कार्यक्रमों की लोकप्रियता संबंधी आँकड़े देती है, जिसका मतलब ये हुआ कि भारतीय बाज़ार पर उसका वर्चस्व है, एकाधिकार है। लेकिन विडंबना ये है कि उसकी विश्वसनीयता दो कौड़ी की भी नहीं है। एक अंध विश्वास की तरह इंडस्ट्री उसे मानकर अपना काम कर रही है, जो कि किसी के लिए भी हितकर नहीं है।
टैम के आँकड़ों के भरोसेमंद न होने की दो प्रमुख वजहें हैं। अव्वल तो ये कि उसने केवल साढ़े आठ हज़ार घरों में टीआरपी मापने वाले पीपल्स मीटर लगाए हैं, जबकि देश में साढ़े पंद्रह करोड़ घरों में टीवी देखा जाता है। इसका मतलब है कि सैंपल साइज़ अत्यधिक छोटा है। ख़ास तौर पर भारत जैसे विशाल एवं विविधता वाले देश में तो ये नगण्य माना जाएगा। इससे दर्शकों की पसंद मापना और उसके आधार पर सब कुछ तय करना हास्यास्पद है। इसीलिए टैम से बार-बार नमूने बढ़ाने के लिए कहा जा रहा था मगर वह मामूली बढ़ोतरी करके टालती रही है। इससे सबका खीझना स्वाभाविक है।
दूसरे, पीपल्स मीटरों के दुरूपयोग की ख़बरें लगातार आ रही हैं। पीपल्स मीटर वाले घरों के बारे में बहुत से चैनलों को जानकारी मिल जाती है और वे उसका अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। आउटलुक और ज़ी टीवी इसका भंडाफोड़ भी कर चुके हैं और रही सही कसर एनडीटीवी ने पूरी कर दी थी। इसके बावजूद टैम इस समस्या का भी कोई समाधान नहीं कर पा रही। यही नहीं, उसके कामकाज में किसी तरह की पारदर्शिता नहीं है। न नमूनों को इकट्ठा करके उनके विश्लेषण करने में और न ही आर्थिक लेनदेन में। इसलिए भी वह संदेह के घेरे में बनी हुई है।
(मूलतः नवभारत टाइम्स में प्रकाशित. नवभारत टाइम्स से साभार)
स्पष्ट तौर से दिखाई दे रहा है की इस प्रसार भारती जैसी सरकारी संस्था भी TAM से परेशान है फिर कोई सरकारी या गैर सरकारी ही सही लेकिन विश्वसनीय पैमाना सामने क्यूँ नहीं आ पा रहा? आपकी नज़र में TAM का क्या विकल्प हो सकता है वो भी सुझाये. क्या टीवी चैनल्स को मिलकर इस बारे में कोई संस्था स्थापित करनी चाहिए. और आखिर में महत्वपूर्ण बात यह की जो चैनल्स TAM की फीस नहीं चुकाते उनको क्या लोग देखते नहीं? डीडी डायरेक्ट पर कई चैनल्स हैं जो प्राइवेट हैं और उनकी पहुँच भी लोगो तक हैं लेकिन वो TAM की भरी भरकम फीस को चुकाना सही नहीं समझते इसलिए उनकी रेटिंग पॉइंट्स सामने नहीं आ पाते. मतलब यही के अब अगर कोई प्रबंध होतो वो बिना किसी लाग लपेट या फेवर के सभी चैनल्स का डाटा प्रकाशित करे.