भारत देश विविधताओं से भरा हुआ देश है। यहाँ अनेक धर्मों के मानने वाले लोग मिलजुलकर रहते हैं। यहाँ का कानून भारतीय संविधान के अनुसार काम करता है। लेकिन आज भी भारत में कुछ ऐसे कानून हैं जो कि भारतीय संविधान के बिल्कुल इतर काम करते हैं, जो कि धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर भारतीय संविधान की धज्जियाँ उड़ाते हैं। बेशक धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार संविधान के मौलिक अधिकारों में शामिल हो, लेकिन इसके भी अपने दायरे और सीमाएं होनी चाहिए। हर चीज में धार्मिक स्वतंत्रता घुसेड़ना भारतीय संविधान की जड़ों को खोकला करती है। भारत देश में हर धर्म के लोग रहते हैं। बहुसंख्यक हिन्दू भी रहते हैं और अल्पसंख्यक मुस्लिम सिख और ईसाई भी। हिंदू सिविल लॉ के तहत हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध आते हैं। जबकि मुस्लिम, ईसाई और पारसी समुदाय के अपने-अपने पर्सनल लॉ है, जिस देश का कानून भारतीय संविधान के अनुसार चलता हो वहां पर ऐसे रूढ़िवादी कानूनों का क्या औचित्य है। हमारे भारतीय संविधान में अनुच्छेद 44 के तहत समान नागरिक संहिता को लागू करना राज्य की जिम्मेदारी बताया गया है, लेकिन ये आज तक देश में लागू नहीं हो पाया। समान नागरिक संहिता का मतलब है भारत में रहने वाले प्रत्येक नागरिक के लिए समान यानी एक जैसे नागरिक कानून। देश के संविधान को लागू हुए 65 साल से ज्यादा हो गए लेकिन भारत की सरकारें आज तक भारत में रहने वाले प्रत्येक नागरिक के लिए समान यानी एक जैसे नागरिक कानून नहीं बना पायी हैं।
समान नागरिक संहिता का विरोध करने वाले लोग सामान नागरिक कानून को धार्मिक स्वतंत्रता के खिलाफ बताते हैं। जो की तर्कहीन लगता है। समान नागरिक संहिता का विरोध करने वाले लोगों का ये मानना है कि देश में सामान नागरिक कानून लागू हो जाने से देश में हिन्दू कानून लागू हो जाएगा, जो की गलत प्रचार ह।ै लेकिन हकीकत यह है कि समान नागरिक संहिता एक ऐसा कानून होगा जो हर धर्म के लोगों के लिए बराबर होगा और उसका धर्म से कोई लेना-देना नहीं होगा। और समान नागरिक कानून पूरे तरीके से संविधान का पालन करेगा। अगर देश में समान नागरिक संहिता का पालन हो तो सभी धर्मों हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई के लिए एक समान कानून होगा। समान नागरिक संहिता में सभी धर्मों के शादी, तलाक, गोद लेना और जायदाद बंटवारे में सबके लिए एक जैसा कानून होगा। फिलहाल कई धर्म के लोग इन मामलों का निपटारा अपने धर्म के निजी कानूनों के तहत करते हैं। मुस्लिम धर्म के लोग देश में अलग कानून चलाते हैं जो मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड लागू करता है। आज भी मुस्लिम समाज के लोग इसी रूढ़िवादी कानून को ढो रहे हैं। असल में कहा जाए तो मुस्लिम समाज के धर्मगुरु धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर मुसलामानों को पर्सनल लॉ का पालन करने के लिए बाध्य करते हैं। देखा जाए तो मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के ज्यादातर कानून मुस्लिम महिलाओं पर अत्याचार की पराकाष्ठा हैं।
आजकल मुस्लिम समाज में तीन तलाक के मुद्दे पर इन दिनों देश में खूब बहस चल रही है और इसे हटाने की मांग की जा रही है। मुसलमानों में तलाक मुस्लिम पर्सनल लॉ यानी शरिया के जरिए होता है। यह बहुत ही रूढ़िवादी कानून है आज देश का कानून भारतीय संविधान के अनुसार चलता है फिर भी मुस्लिम महिलाएं धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर इन कानूनों के जरिए उन पर हो रहे अत्याचारों को झेल रही हैं। आजादी के बाद हिन्दू कानून में संविधान के अनुसार बदलाव किया गया और आज तक हिंदुओं के शादी, तलाक, गोद लेना और जायदाद बंटवारे सब भारतीय संविधान के दायरे में होते हैं। लेकिन आजादी के बाद संविधान लागू हो गया संविधान लागू होने के बाद भी दूसरे धर्मों के निजी कानूनों में कोई बदलाव नहीं हुआ। तमाम राजनैतिक पार्टियां वोट बैंक की राजनीति के कारण इन निजी कानूनों पर अपनी कोई राय नहीं रखती है और किसी भी बहस में नहीं पड़ना चाहती हैं। क्योंकि अगर वो इन रूढ़िवादी कानूनों का विरोध करेंगीं तो उनके वोट बैंक को नुक्सान होगा। जिसका नतीजा ये है कि देश आज भी धर्मों के अनुसार अलग-अलग कानूनों की जंजीरों में जकड़ा हुआ है। आज देश को इन जंजीरों से बाहर निकलने की जरुरत है और जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, यूनाइटेड किंगडम इत्यादि देशों की तरह समान नागरिक कानून लागू करने की जरुरत है।
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के कानून से मुस्लिम महिलाओं को तमाम अत्याचार झेलने पड़ते हैं। तीन तलाक तो इसकी पराकाष्ठा है। साथ ही साथ मुस्लिम पुरुष समाज को एक पत्नी होते हुए बहुविवाह की आजादी भी मुस्लिम महिलाओं पर अत्याचार है। आज मुस्लिम समाज की आधुनिक सोच की महिलाएं इन कानूनों के विरोध में आगे आ रही हैं। यह काबिलेतारीफ है। उनके साहस को मुस्लिम समाज सहित सम्पूर्ण देश को समर्थन करना चाहिए। अंग्रेजों के जमाने में हिन्दू सती-प्रथा तथा बाल-विवाह पर बंदिश के कानून का हिंदू कट्टरपंथियों द्वारा विरोध हुआ था। आजादी के बाद अंबेडकर जैसे प्रगतिशील और आधुनिक सोच रखने वाले लोगों के कारण हिंदू सिविल कानून भी कट्टरपंथियों के विरोध के बावजूद पारित हुआ। ऐसे ही आज मुस्लिम धर्म सहित अन्य धर्मों में अंबेडकर जैसे प्रगतिशील और आधुनिकता का अनुकरण करने वाले लोगों की जरुरत है। अगर देश में सामान नागरिक संहिता नहीं तो कम से कम मुस्लिम सिविल कानून तो लागू हो। जिससे की मुस्लिम समाज सहित अन्य अल्पसंख्यकों को रूढ़िवादी कानूनों के बोझ न दबना पड़े। अगर सरकार समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर फीडबैक मांगती है तो इसे तीन तलाक से जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए। क्योंकि तीन तलाक और सामान नागरिक संहिता दोनों अलग अलग चीजें हैं। मुस्लिम समाज में मुख्य मुद्दा लैंगिक न्याय का और महिलाओं के खिलाफ भेदभाव खत्म करने का है। तीन तलाक के मुद्दे को समान नागरिक संहिता के मुद्दे के साथ उलझाना गलत है। देश का असली मूड यह है कि लोग इस तीन तलाक को खत्म करना चाहते हैं। लोग किसी धर्म के आधार पर महिलाओं के खिलाफ भेदभाव नहीं चाहते। मुस्लिम समाज में मुद्दे लैंगिक न्याय, अपक्षपात और महिलाओं के सम्मान के हैं। जिन्हें मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और तुष्टिकरण करने वाली राजनैतिक पार्टियां समान नागरिक संहिता से जोड़कर अहम मुद्दे से ध्यान भटकाना चाहती हैं। अगर विधि आयोग समान नागरिक संहिता पर समग्र चर्चा करा रहा है तो इस पर किसी भी धर्म विशेष के लोगों को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। बल्कि प्रत्येक धर्म के लोगों को अपनी बेबाक राय रखनी चाहिए। विभिन्न संगठनों और धर्मगुरुओं की जगह सभी धर्मों की युवा जनता को इस चर्चा में अधिक से अधिक भागीदारी करनी चाहिए और देश के लिए अपनी राय बतानी चाहिए। क्योंकि किसी भी मसले का हल चर्चा होता है। अगर केंद्र एक स्वस्थ्य चर्चा कराना चाहता है तो इससे किसी को परेशानी नहीं होनी चाहिए।