एक ही मीडिया ग्रुप के दो चैनल या अखबार अलग – अलग तरीके से बात करे तो उलझन बढ़ जाती है. सरोकार और व्यापार के बीच गडमगड की स्थिति हो जाती है कि आखिर ग्रुप का स्टैंड क्या है?
कल टाइम्स नाउ की जनसत्ता के संपादक ने तारीफ़ की थी क्योंकि अनामी लड़की की कवरेज के दौरान लगातार दो घंटे तक अर्णब गोस्वामी के शो में कोई विज्ञापन नहीं चला. लेकिन आज उसी ग्रुप का अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया सरोकार के माहौल में भी व्यापार करने से नहीं चूका और पहला पूरा पन्ना विज्ञापन के नाम कर दिया.
मजबूरन ओम थानवी को बारह घंटे के अंतराल में ही उसी ग्रुप के अखबार की आलोचना में शब्द खर्चने पड़े. आखिर सवाल उठता है कि एक ही ग्रुप के दो प्रोडक्ट का व्यापार के बीच सामाजिक सरोकार की परिभाषा विरोधाभाषी क्यों हो जाती है? कहीं ऐसा तो नहीं कि अर्णब के शो में कल जो विज्ञापन नहीं चले, उसी की भरपाई आज टाइम्स ऑफ इंडिया ने की.
जनसत्ता के संपादक ओम थानवी की प्रतिक्रिया :
जितने अखबार घर में आते हैं, आज अकेला टाइम्स ऑफ इंडिया है जिसमें पहला पन्ना अखबार का है ही नहीं। वह पूरा पन्ना विज्ञापन के लिए बेच दिया गया है। इसे आजकल जैकेट कहते हैं। इसे सभी ‘पहनते’ हैं। कभी-कभार हम भी। लेकिन राष्ट्र में छाए अपूर्व शोक की घड़ी में, जब ज्यादातर अखबारों में पहले पन्ने पर कोई दूसरी खबर ही न हो, एक पूरे अखबार का विज्ञापन के पन्ने के पीछे दुबक जाना क्या जाहिर करता है? अकारण नहीं है कि हाल में टाइम्स समूह के मालिक जैन बंधुओं में एक विनीत जैन ने अमेरिकी पत्रिका ‘द न्यू योर्कर’ को कहा था: ” हम अखबारों का धंधा नहीं कर रहे हैं। हमें 90 फीसद आमदनी अगर विज्ञापनों से होती है, इसलिए हम विज्ञापनों के धंधे में हैं।”
सच बोला महाराज! प्रादेशिक अखबारों में तो वैसे ही खबरों पर विज्ञापनों का बोलबाला रहता है। शोक में बाजार की ऐसी कद्र कर आपने उन अख़बारों को भी नई राह दिखाई है। आगे-आगे देखिए होता है क्या।
कुछ और प्रतिक्रियाएं :
Harishankar Shahi : आजकल इसीलिए तो खबर भी मार्केट तय करता हैं. आवाज़ जनता की नहीं बाजार की सुनी जाती है.
Rishi Kumar Singh वैसे टाइम्स ग्रुप का अखबार पढ़ने के लिए नहीं, देखने के लिए होता है।
Vinod Kapoor The reason why I have stopped reading Newspapers…..I do not want to read advertisements…..there is no front page left…..you simply struggle to find real news within….Perhaps Chairman, Press Council takes note of this….can this not be construed as News Wayliad ….I pay for News and not advertisements ! Should there not be space percentage fixed as commercial contribution….or then why call it a News Paper at all ?
Prakash Joshi चंदन पांडे जी ने बहुत सार्थक बात उठाई। जब गैस पर गरीब जनता को भी सब्सिडी नहीं दी जा रही है तो इन पूँजीपति घरानों को क्यूँ कागज पर और बिजली आदि पर छूट दी जा रही है।
Sanjay Rai बड़ा बुरा हाल है.. कई सारे अखबारों को तो तो Newspaper कहने में शर्म मह्सूस होती है..समाचार नाम का कुछ रहता कहा है…रही बात टाइम्स ग्रुप की तो पब्लिक गुड का शब्द बहुत दूर है उनकी डिक्शनरी से शायद..
डॉ. रश्मि आज की बिकाऊ दुनिया में बड़ी-बड़ी चीज़ें बिक रहीं है …इंसानियत बिक रही है ….ज़मीर बिक रहा है …..ऐसे में ख़बरें कैसे बेचीं जाएँ ???(विज्ञापन से)
Satyanand Nirupam विज्ञापन के लिए कुछ हाउस न पहले पन्ने की परवाह करते हैं, न अच्छी से अच्छी, जरुरी से जरुरी स्टोरी की.
Rafat Alam आज के अखबारो के प्रथम पन्ने पर ”उसके जगा कर जाने का मर्सिहा लिखा है” तो अंतिम पन्ना भरा है होटलों में नया साल मनाने हेतु के विज्ञापनो से.,बाकायदा भडकीली सुंदरियों की नुमाइश के साथ.यानि बाज़ार में संवेदना नहीं मुद्रा चलती है वो भी घडियाली आंसुओं के साथ… मीडिया पर धन लोभ लालच के इलज़ाम पहले भी लगे हैं,प्रिंट मीडिया ने तुरंत साबित कर दिया सोने की चमक वाकई सुनहरी होती है…अखबार मालिकों बहुत अच्छा ..
डा. मनजीत सिंह यही कारण है कि धीरे-धीरे अखबार से लोगों का मोहभंग होने लगा है, एक समय था जब सुबह का अखबार पढ़ने के लिए लोग बैचैन रहते थे लेकिन आज इन विज्ञापनों के व्यापार तले उत्साह धूमिल हो रहा है
Suraj Prakash मुंबई में हिंदुस्ता/न टाइम्स का भी यही हाल है लेकिन आज उन्होंहने ये पूरा पन्नात किसी बिल्डaर या अंग लेप बनाने वाली किसी कंपनी को न बेच कर जांबाज लड़की को समर्पित किया है। she lit the flame के नाम से विनम्र शब्दोंर एक ही कालम में अपनी श्रद्धांजलि दी है।
Manoj Upadhyay बात सिर्फ आज की और टाइम्स ऑफ इंडिया की नहीं है सर… अखबारी धंधे में हालात इतने विद्रुप हो चुके हैं अब मीडिया की मानसिकता पर संशय और आविश्वास होने लगे हैं.
Anurag Chaturvedi टाइम्स ऑफ़ इंडिया समूह यदि विज्ञापन के धंधे में है तो रियायत पर उन्हें जमीन क्यों ? मुंबई vt के सामने अरबों की सम्पति टाइम्स के पास लीज पर है. महाराष्ट्र सरकार इस लीज को नया नहीं कर रही है.यह तो अर्नब का गुस्सा नहीँ है?
Satish Tyagi यह विनीत जैन क
ौन है हैं । हमें तो यह भी नहीं पता कि इस अख़बार का संपादक कौन है ।।>विज्ञापन का धंधा करने वाले लोग टुच्चे किस्म के धन्देवाज हो सकते हैं ,पत्रकार नहीं ।विडंवना तो यह है कि बड़े -बड़े पत्रकार इन धन्देबाजो के टुकड़ों पर पलते हैं ।
Drak Mishra दरअसल यहाँ सब कुछ बिकता है या यूं कहें कि जो बिकता है वही सुन्दर है ,सत्य है शिव है।जनान्दोलन हो ,बाढ़ हो ,जाड़ा हो गर्मी हो बरसात हो महामारी हो,मीडिया को अपना ब्वसाय ही दिखता है।जनता ठगी जाती है,पानी की बौछार खाती है,लाठी खाती है, गोली खाती है ,मीडिया इसमें भी अपने हित साध लेती है।
Umesh KS Chauhan अब तो ज्यादातर खबरें भी विज्ञापन ही होती हैं, या तो किसी पार्टी/ नेता का, किसी कॉर्पोरेट घराने का, किसी विचारधारा का … या फिर किसी भावनात्मक जनविस्फोट का … संपादकीय तक ऐसे ही हो गए लगते हैं … तर्कसंगत रिपोर्टिंग है कहाँ?
शिवानन्द द्विवेदी सहर कोई ऐसा अखबार बताइये जो बिकता ना हो ! मैंने बड़े बड़े अखबारों को सुबह सुबह कौडियों के भाव बिकते देखा है ! बिकाऊं अखबार
Dariye Achho हाल में हिन्दुस्तान आया था. अखबार में पहले पन्ने पर आदिवासी महिला के साथ बलात्कार और तीसरे पर आधे दर्जन नंबर थे महिला “मित्र” बनाने हेतु.