संजय मेहता-
परिवार से दूर। बच्चों से दूर । पत्नी से दूर । मां से दूर । हर वक्त मौत के साए में जिंदगी गुजारते हमारे सैनिक । शहीद हो गए। शहीदी के बाद। फूल , माला , निंदा , वायदे । संवेदना के कुछ शब्द। बहूत कुछ। फिर वही बात। सब बक्से में बंद। उनको भूला देना।
हम आजादी का आनंद लेते हैं। हम क्या करते हैं उनके लिए ? कुछ नहीं। समाज , सियासत क्या देता है? सम्मान भी नहीं देता। अच्छा खाना भी नहीं देता। खाना मांगने पर बर्खास्तगी मिलती है। क्या यह शर्मनाक नहीं है ? आश्चर्यजनक नहीं है ? बिल्कुल है। फिर हम चुप क्यों हैं?
शहादत के बाद भी सियासत। तुष्टिकरण का रंग। स्वार्थ। आज हमारे सैनिक शांत हैं। उनके सम्मान को चोट पहूंचायी गयी। बार – बार , लगातार। अब गुस्सा पनप रहा है। अंदर ही अंदर। सैनिक की शहादत समर्पण है। मुल्क के प्रति। राजनीति उसकी किमत लगाती है। सुन लो नेताओं। तुम्हारी औकात नहीं। शहादत की किमत लगाने की।
आखिर सैनिकों की कुर्बानी कब तक ? जो पत्नी विधवा बनी उसका जिम्मेवार कौन ? अनाथ हुए बच्चों का जिम्मेदार कौन ? क्या आपकी संवेदना सजा देगी। उन घरों को फिर से ? क्या आपके अनुदान से बच्चे के चेहरे पर हंसी आ जाएगी ?क्या बुजुर्ग माँ बाप का सहारा आप ला सकते हैं ? नहीं।
बहूत तकलीफ हो रही है। खून ख़ौल रहा है। रोकिए इस हालात को। कभी सेना के कैम्प पर हमला। उग्रवादियों का हमला। दुश्मन मुल्क का हमला। हर जगह जवान मारे गए। तेरी ये राजनीति किस दिन के लिए है? तेरी नीति किस दिन के लिए है? तेरी योजना किस दिन के लिए है? अब तो हद हो गयी। विधवा बनने का सिलसिला रुक ही नहीं रहा । बर्दाश्त नहीं हो रहा। अब बस।
अब हमें सोचना होगा। आपको सोचना होगा। सबको सोचना होगा। शहादत का कर्ज उतारना होगा। हम नागरिक सैनिकों को सम्मान दें। इस सियासत को सबक सिखाएं । शहादत पर राजनीति न होने दें। सैनिकों को गुमनामी में न खोने दें। आइये संकल्पित हो। अपने देश के लिए। अपने तिरंगे के लिए। अपने जाँबाज़ सैनिकों के लिए।
जय हिन्द।