सिनेमा में आज सब पैसों के खेल में बदल चुका है। सबको यह पता है, मगर कोई बोलता नहीं। यहां लोग पच्चीस, तीस और चालीस करोड़ रुपये फिल्म के प्रमोशन में फूंक देते हैं, मगर फिल्म किस स्तर की है, यह नहीं देखते। मतलब साफ है कि आप कम बेहतर उत्पाद को ज्यादा लोगों को बेच सकें। हकीकत है कि पैसा ऐसे ही लोगों के पास है, जो अच्छी फिल्में बनाना नहीं चाहते। जबकि जो अच्छा सिनेमा बनाना चाहते हैं, उन्हें उस तूफानी मार्केटिंग से जूझना पड़ता है, जिसमें करोड़ों का खर्च आता है।
अमिताभ बच्चन जब तक शिखर पर थे, इस बात पर कोई जोर नहीं देता था कि फिल्म बनाने के लिए पैसों की आवश्यकता होती है। उनका दौर बीतने के बाद यह बात सामने आई। बच्चन साब का जमाना था, जब आप एक पोस्टर छापकर फिल्म बेच सकते थे। तब आपको फिल्म बनाने और बेचने के लिए करोड़पति होने की जरूरत नहीं थी। पोस्टर पर अमिताभ बच्चन का नाम होना काफी था। वह ‘स्टार’ थे। उनके बाद के दौर में स्टार ‘बनाए गए।’ पीआर मशीनरी और मार्केटिंग फंडों के द्वारा। फिल्मों के तमाम एसोसिएशन मिलकर कोई ऐसा नियम बना लें कि किसी फिल्म के प्रमोशन में पांच करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च नहीं किए जा सकते, तब देखिए कि कौन ‘स्टार’ बनता है!
‘सिनेमा बदल गया’ जैसी बातें शोशेबाजी है। बदलाव की बातें मैं बीस साल से सुन रहा हूं। बदलता कुछ नहीं।� हॉलीवुड में देखिए, तो स्टारडम की एक समानता है। औसत ऐक्टर अर्नाल्ड श्वारजनेगर स्टार हैं, तो बेहतरीन अभिनेता रसेल क्रो और डिकेप्रियो भी उतने ही बड़े सितारे हैं। हमारे यहां क्या है…? नसीरुद्दीन शाह, इरफान खान, केके मेनन, नवाजुद्दीन जैसे ऐक्टर स्टार कभी नहीं हो सकते। जबकि जो लोग ऐक्टिंग में इनके आस-पास भी नहीं हैं, वे स्टार हो जाएंगे! क्यों…?
हमारे यहां का स्टारडम सितारों के भीतर असुरक्षा की भावना से बनता है। स्टारडम की दुकानें चलाने वालों को लगता है कि हमने सच्चे टैलेंट को आगे बढ़ा दिया, तो हमारी दुकानें बंद हो जाएंगी। इन लोगों के पास अकूत धन है। चाहे मामला फिल्म मेकिंग का हो, डिस्ट्रीब्यूशन का हो, एक्जीबीशन का हो। वे जानते हैं कि सामने खड़ा सच्चा टैलेंट आपका मुकाबला नहीं कर सकेगा, क्योंकि वह धन की लड़ाई लड़ नहीं सकता। अतः यहां शोषण होता है। जैसे ही आप अपना पक्ष रखते हैं, वे कहते हैं,‘आपको हम सम्मान दे रहें हैं…और क्या चाहिए?’ आपको लोकप्रियता की जरूरत नहीं, सिर्फ सम्मान से काम चलाइए।
जिन्हें लगता है कि सिनेमा कला नहीं, व्यवसाय है, मैं उनसे कहना चाहता हूं कि बिजनेस के भी कुछ उसूल होते हैं। केवल पैसा कमाना लक्ष्य नहीं होता। अगर आप सिनेमा का व्यवसाय कर रहे हैं, तो आपको सिनेमा को समझना होगा। आप गलत चीजें करके उन्हें सही साबित करना चाहते है, यह ठीक नहीं। क्या छोटा फिल्ममेकर बिजनेस नहीं करता? क्या अच्छा फिल्ममेकर बिजनेस नहीं करता? आप सिनेमा बनाकर बिजनेस कीजिए, नॉन सिनेमा बनाकर क्यों बिजनेस को खराब कर रहे हैं? आप सिनेमा बनाइए और उसकी मार्केटिंग कीजिए। मगर आप मार्केटिंग में सिनेमा घुसा रहे हैं। सिनेमा मार्केटिंग का हिस्सा नहीं हैं। ऐड फिल्में मार्केटिंग का हिस्सा हैं। जो मार्केटिंग मैनेजर बोलेगा, वैसा ऐड मेकर को बनाना पड़ेगा। फिल्मों को बाजार के हिसाब से बनाना हास्यास्पद है। आज जब फिल्म राइटर टेबल पर बैठता है, तो उसके दिमाग में मार्केट होता है। ऐसा करके आप सिनेमा को खत्म कर रहे हैं। मैं मार्केटिंग के विरुद्ध नहीं हूं, मैंने इसे खूब पढ़ा है। कोई प्रोडक्ट पहले तैयार होता है, िफर मार्केटिंग करने वालों से कहा जाता है कि अब इसे बेचकर आंखों में सपने हजार, मन में सवाल बेशुमार दिखाइए।