हममें से अधिकांश की जिंदगी में एक फेहरिस्त शामिल है जिसमे बारी-बारी से “नो” लिखा है. कुछ नो आपने-हमने कहा है वो और कुछ हममें कहा गया वो. हम इन दोनों तरह की नो को अपने साथ लेकर जीते हैं. कई बार अजीबोगरीब स्थिति हो जाती है. एक ही शहर, एक प्रेस कॉन्फ्रेंस, एक ही बुक लांच, एक ही सेमिनार और चाय-कॉफी के लिए एक ही मेज के आगे. हममें से ज्यादातर लोग हिचकते हैं जब एक ही फ्लेवर की टीबैग पर साथ हाथ चले जाते हैं लेकिन अगले ही पल थैंक्यू, एक्सक्यूज मी, मोस्ट वेलकम से साथ सहज होने की कोशिश करते हैं और वापस अपनी-अपनी दुनिया में घुल जाते हैं. फर्ज कीजिए कि हम एक-दूसरे की ना को लेकर हिंसक होने लग जाएं तो ? क्या हमारी ये हिंसा प्रेम की चौखट लांघकर दूसरी दुनिया पर असर नहीं डालेगी ? और फिर ये कब अपराध और सजा की दीवारों से जाकर लग जाएगी, इसका अंदाजा कहां हो पाता है ?
पिछले दिनों पिंक फिल्म आने के बाद इस नो का बहुत जोर देखकर इस्तेमाल हुआ. “नो मतलब नो” अपने आप में इतनी दमदार लाइन थी इस फिल्म में कि बिना पूरी फिल्म देखे इसके बूते आसानी से समझा जा सकता था कि आखिर फिल्म हमें बताना क्या चाहती है ? अब देख रहा हूं कि जिन चैनलों में अलग-अलग शक्ल में इस एक लाइन की जितनी चर्चा हुई, अब उन्हीं चैनलों पर दूसरी लाइन बैक टू बैक आ रही है- ” प्यार तभी तक करो, जब तक कि तुम कंट्रोल कर सको..जब प्यार तुम्हें कंट्रोल करने लग जाए तो उसे बर्बाद कर दो.”
बेहद( 11 अक्टूबर से सोनी चैनल पर प्रसारित ) इस प्रोमो की तरफ हमारा ध्यान दिलाते हुए मुकेशजी( Mukesh Burnwal) ने ठीक ही लिखा कि – ऐसी पंक्तियां दिल्ली के बुराडी चौक पर हाल ही में हुई घटना को शह देने का काम नहीं करती तो और क्या करती है ? हमें ज्ञात है कि एकतरफा प्यार में पड़कर एक शख्स ने किस बेरहमी से एक स्कूली शिक्षक की चाकू से दर्जनों वार करके हत्या कर दी. मतलब आप प्यार न पा सको, कंट्रोल न कर सको तो उसकी हत्या कर दो, बर्बाद कर दो.
हिन्दी की दुनिया कईयों के लिए उपहास की दुनिया हो सकती है और इसकी अपनी वजहें भी है. बावजूद इसके आचार्य रामचंद्र शुक्ल के लेख ” लोभ और प्रीति” का ध्यान सहसा हो आता है. हम जिससे प्रेम करते हैं, जिससे हमारी प्रीति है, हम चाहते हैं कि वो वस्तु या व्यक्ति जहां भी रहे, जिसके पास भी रहे, सुरक्षित रहे. लोभ की स्थिति में हम चाहते हैं कि वो तो मेरे पास रहे या नष्ट हो जाए.
एक प्रेम की आदर्श स्थिति तो सच में यही है कि वो जहां भी रहे, हम इस कामना और उससे भी कहीं ज्यादा उस लोकतांत्रिक समझ के साथ जीते रहे हैं कि हमें नुकसान नहीं करना है. किसी भी हाल में हिंसक नहीं होना है.
चैनल वी, यूटीवी बिंदास जैसे चैनलों पर जब भी मैं रिलेशनशिप में लॉएल्टी टेस्ट पर जुड़े कार्यक्रम देखता हूं और बदले की भावना से धधकते पूर्वप्रेमियों के बारे में सोचता हूं तो दिमाग में एक ही ख्याल आता है- आखिर ऐसा क्या है कि एक प्रेमी जोड़े को आपस के भरोसे के लिए टीवी जैसी एक तीसरी एजेंसी की जरूरत पड़ जाती है ? ब्रेकअप की घोषणा वो लव गुरु या डॉ. लव के बहाने रेडियो के अलावा कहीं और नहीं कर सकते ? एक पार्टनर अपने पार्टनर के प्रति भरोसेमंद नहीं है, ये भी क्या स्टिंग करने की चीज है या फिर इसकी जरूरत होती है ? उसके हाव-भाव, भाषा, अभिव्यक्ति ये सब खुद व्यक्त नहीं करते और नहीं करते तो बर्बाद कर देने की घोषणा ?
प्रेम व्यक्तिगत होते हुए भी उसकी लोकतांत्रिकता सामाजिक होती है. उसका सीधा असर समाज के बाकी लोगों पर पड़ता है. अभी हमें नहीं पता कि बेहद सीरियल की क्या कहानी है लेकिन इस तरह के प्रोमो सीधे तौर पर ये संदेश देते हैं कि प्रेम में बदला लेना कहीं से गलत नहीं है. फर्क सिर्फ इतना है कि इसे स्त्री चरित्र के माध्यम से कहलवाया गया है तो स्त्री-सशक्तिकरण का भ्रम हो जाए लेकिन क्या इसका असर इसी रूप में सीमित रहेगा ?