सामना अखबार न हो गया, टाइम्स ऑफ इंडिया हो गया, संपादक की भाषा टपोरियों वाली

दिवगंत बाला साहेब ठाकरे अपनी राजनीति ताउम्र शिवसेना के मुखपत्र ‘सामना’ से करते रहे और सफल भी रहे. देश में ऐसा दूसरा उदाहरण शायद ही कोई दूसरा हो, जिसमें अखबार का प्रधान संपादक अपना ही इंटरव्यू छापता हो और मजे की बात कि न्यूज़ चैनल उसकी कवरेज भी करते हैं.

सामना का दायरा महाराष्ट्र की सीमा तक ही सीमित है. लेकिन अखबार के नाम से पूरा देश परिचित है. ठीक वैसे ही जैसे कि क्षेत्रीय पार्टी होने के बावजूद शिवसेना अपनी तिकड़मों से राष्ट्रीय मीडिया में सुर्खियाँ पाकर अपने वजूद का एहसास कराती रहती है. इसी तर्ज पर सामना अखबार भी है. उसकी ख़बरें राष्ट्रीय चैनलों पर प्रमुखता से कुछ इस अंदाज में चलती है कि मानों ‘सामना’ अखबार न हो गया ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ हो गया.

सामना ने कुछ छापा नहीं कि तमाम हिंदी के न्यूज़ चैनल उसे हेडलाइन बनाने में लग जाते हैं. चाहे मुद्दा कुछ भी क्यों न हो. अभी जब भारत – पाकिस्तान के बीच तनाव की खबर आयी तो सामना के नए संपादक उद्धव ठाकरे ने ऐसा ही बेतुका और भडकाऊ संपादकीय लिखा जिसमें न्यूक्लियर बम तक के इस्तेमाल का आह्वाहन किया गया. न्यूज़ चैनलों ने इसे लीड खबर बनाया जिसकी बिलकुल जरूरत नहीं थी.

आजतक के संस्थापक संपादक एस.पी.सिंह की आत्मा जहाँ भी होगी दुखित होगी. दरअसल उन्होंने ही सामना अखबार की ख़बरों के कवरेज का काम शुरू किया था लेकिन उनका उद्देश्य सामना की 20% उन ख़बरों पर नज़र रखना था जिससे मिट्टी की सुगंध आती थी. लेकिन अब के संपादक सामना से नफरत की खबर ढूंढ कर लाते हैं.

सामना को जितने पढ़ने वाले नहीं, उससे ज्यादा उसे चैनल वाले उसे स्क्रीन पर दिखा – दिखा कर पढाते हैं. सामना नफरत की लौ जलाता है और तमाम न्यूज़ चैनल उसे लीड खबर बनाकर शोले भड़काते हैं. इस नज़र से देखा जाए तो विद्वेष फैलाने के मामले में न्यूज़ चैनल ठाकरे परिवार से ज्यादा कसूरवार हैं.

यदि न्यूज़ चैनल अखबार की खबर को हेडलाइन्स बनाना ही चाहते हैं तो किसी गंभीर और जिम्मेदार अखबार की संपादकीय को हेडलाइन बनाना चाहिए , न कि ऐसे अखबार की संपादकीय को जिसकी टपोरियों वाली भाषा है.

 

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