संजीव कुमार
नव-वर्ष के स्वागत का ये भी एक तरीका
क्या आपने कभी एक ऐसे जगह पर नुक्कड़ नाटक किया या देखा है जहाँ धारा 144 लगा हो ? क्या आपने कभी एक ऐसा नाटक किया या देखा है जिसमे एक डायलाग के बाद दूसरे डायलाग बोलने के वेन्यू (स्थान) में लगभग सौ मीटर की दुरी हो या फिर डायलाग भागते भागते बोले जा रहें हो और भगाने वाला कोई और नहीं पुलिस और इंडियन आर्मी हो? जी हाँ हम बात कर रहें है जे. एन. यू. के जाग्रति नाट्य मंच द्वारा इंडिया गेट पर नए वर्ष की पूर्व संध्या पर मंचित नाटक क्रेडिट कार्ड का. ये नाटक कहानी थी भारत के उस आबादी के दर्द की जो न तो नव-वर्ष की ख़ुशी मना सकते हैं और न ही इंडिया गेट आ सकते हैं. ये नाटक था भारत के उस आधी आबादी की जिनकी ख़ुशी को उनसे या तो छिना जा चुका है या छिना जा रहा है और जीने विरोध करने का अधिकार भी नहीं है, क्यूंकि उन्हें इंडिया गेट या जंतर मंतर का पता तो दूर उन्हें तो वो भाषा भी बोलना नहीं आता है जिसके हमारी मीडिया और शासक वर्ग समझती ही नहीं है या फिर समझना ही नहीं चाहती. ये कहानी थी उस खुशहाली के बोरे की जिसपर चंद लोग कुंडली मारे बैठे हैं.
हमारे सभी कलाकार जब तक इंडिया गेट पहुँचते उससे पहले ही हमारे एक कलाकार रवि मेनिया को पुलिस ने सिर्फ इसलिए पकड़ अपने साथ लेकर चले गएँ क्यूंकि वो कश्मीर के थे. कुछ लोग उन्हें छुड़ाने गए और बाकी लोग उस खाली समय में लोगो का मनोरंजन करने के लिए कुछ प्रोटेस्ट गीत गाने लगे. उधर पुलिस और इंडियन आर्मी के जवान भी राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य को पूरा करने को हमें भगाने लगे. इसी बीच नेशनल दुनिया के पत्रकार अरुण पटेल भी वहां पहुंचे हुए थे जिन्होंने हमारी बहुत मदद की. जब रवि आया तो नाटक भी शुरू हुआ, और फिर वही पुलिस और हमारे बीच बात-विवाद, भागम भाग और उनके बीच हमारा नाटक चलता रहा. हमने अपना नाटक मान सिंह मार्ग से शुरू किया और राष्ट्रीय संग्रहालय तक पहुँचते-पहुँचते आखिरकार ख़त्म ही कर लिया. कुछ पुलिस वाले ऐसे भी मिले जिनसे हंसी मजाक भी हुआ पर किसी ने अपने सरकार के प्रति दायित्व के साथ कोई समझौता नहीं किया और हमें खदेड़ते रहे और हम एक-एक मिनट और एक एक डायलाग प्रस्तुत करने की भीख मांगते रहे.
नाटक मिला-जुला कर संपन्न तो हो गया पर, हमलोग जिस प्रकार के दर्शक की आशा कर रहे थे वैसा कुछ दिखा नहीं. ज्यादातर दर्शक निम्न वर्ग के नवयुवक और टीनेजर थे जो नाटक पर तालियाँ और खिलखिलाहट तो खूब लगाई पर नाटक के उद्देश्य को बहुत कम लोग ही समझ पाए, जो हमारे लिए एक बहुत बड़ी विफलता थी. इस विफलता के मध्यनजर हमने नाटक की रिव्यु मीटिंग भी नाटक के ख़त्म होने के तुरंत बाद वहीँ सड़क के किनारे फूटपाथ पर बैठ कर डाली जिसमे सभी ने अपनी इस विफलता पर अफ़सोस जताया और इस नाटक को इस तरह की परिस्थिति और इस तरह के दर्शक के सामने करने से पहले नाटक में कुछ बुनियादी सुधार की आवश्यकता पर जोर दिया. लेकिन दर्शक की इतनी तारीफ़ जरूर की जाय की दर्शक हमारे साथ साथ पूरे नाटक में चलते रहे और जहाँ तक हो सके दर्शकों की संख्या बढती ही रही.