कृष्णकांत,पत्रकार
प्रधानमंत्री जी रेडियो पर. संघ प्रमुख मोहन भागवत दूरदर्शन पर. एक हिंदू संगठन आरएसएस के मुखिया के संबोधन को सरकारी चैनल पर किस हैसियत से लाइव प्रसारित किया जा रहा है? यह पहली बार हुआ है जब संघ प्रमुख का भाषण लाइव प्रसारित हुआ है. यह मोदी सरकार की उस मुहिम का हिस्सा है जिसके तहत स्वतंत्र मीडिया पर लगाम कसने की कोशिश की जा रही हैं. चीन के मीडिया की तरह सरकार अपनी बातें सिर्फ सरकारी मीडिया तक रखेगी.
भारत में सरकारी मीडिया सरकार के भोंपू की तरह काम करता है. पीएमओ से लेकर सभी मंत्रालयों में मीडिया की एंट्री बैन कर दी गई है. नई सरकार अपने जनसंपर्क के लिए सिर्फ सरकारी मीडिया का सहारा ले रही है.
प्राइवेट न्यूज चैनल दूरदर्शन से उधार का फुटेज लेकर सारा दिन भजन गान करते हैं. मुश्किल प्रिंट मीडिया वालों की है. वे प्रधानमंत्री या मंत्रियों के कार्यक्रम की एक फोटो तक के लिए अब सरकारी मीडिया पर निर्भर हैं. यह स्थिति आपातकाल जैसी है. सिर्फ गिरफ्तारियां नहीं हो रही हैं. बाकी सब वैसा ही है. इसमें दोष मोदी सरकार का नहीं है. उन्होंने गुजरात की मीडिया को गूंगा बनाया, लेकिन दिल्ली के मीडिया ने इससे कुछ नहीं सीखा.
मीडिया बिना कुछ कहे रेंगने की मुद्रा में आ गया तो उनके रेंगने के लिए सरकारी परिसरों के दरवाजे बंद हो गए. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रा और जानने के अधिकार का गला घोंटा जा रहा है.
भारतीय लोकतंत्र में मीडिया हमारे एक सदी के ज्यादा संघर्ष की उपलब्धि है. पत्रकारों और पत्रकारिता संस्थानों ने इसे दलाली का औजार बनाया. उसने अपनी विश्वसनीयता खोई है जिसका परिणाम है कि मीडिया पर नकेल कसी जा रही है. पूरी कोशिश है कि स्वतंत्र मीडिया का पर कतर दिया जाए.
कॉरपोरेट मीडिया ताली बजाकर मगन है. हाल ही में ट्राई ने बार बार सिफारिशें की हैं कि मीडिया को कॉरपोरेट और नेताओं के चंगुल से मुक्त किया जाए, लेकिन वे सिफारिशें कूड़ेदान में हैं. इन सारी स्थितियों पर हैरत भरी चुप्पी है. पत्रकारों को इन हालात से कोई परेशानी नहीं है. किसी पार्टी के समर्थन या विरोध से अलग हमारे कुछ सामूहिक राष्ट्रीय मूल्य और धरोहरें हैं. उनका छीजना देश को कमजोर करेगा. एक नागरिक के तौर पर हर किसी को इस पर ऐतराज होना चाहिए.
दिलीप खान
मोहन भागवत के निजी चैनलों पर लाइव आने और पब्लिक ब्रॉडकास्टर्स पर लाइव आने में फर्क है। जो इस फ़र्क को समझेगा, वही मामले को भी समझेगा। दूरदर्शन से क्रांति की उम्मीद किसी को नहीं है। शायद कभी नहीं थी। सरकार बदलते ही रंग-रोगन सब बदल जाते हैं, ये भी सबको पता है। लेकिन न्यूनतम ज़िम्मेदारी भी इस मामले में नहीं दिखा सका डीडी। भागवत तो सरकार भी नहीं है। तो, सरकार के पीछे की ताक़त का भी भोंपू बनेगा डीडी? तब तो रिलायंस के मामले में निजी-पब्लिक सब एक हो जाएगा।
(स्रोत-एफबी)