रीवा सिंह,पत्रकार
हमें चाहिए सुकून के 365 दिन पर ये एक दिन का उत्सव भी बुरा नहीं है। खुशियां मनाने के मौके कभी बुरे नहीं होते। जब मौका मिले खुश हो लेना चाहिए। पर आप न बनाएं हमें दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती। हमें नहीं बनना बहुत महान और बहुत खास। हम सामान्य बनने के लिए ही लड़ते आए हैं। हमें समानता चाहिए। आप हमें दैवीय या अद्वितीय घोषित न करें। हमें ये मानने में आपत्ति नहीं कि हममें कमियों की कोई कमी नहीं है। हम रहना चाहते हैं समभाव के साथ। हंसती-खिलखिलाती, रोती-बिलखती, चिल्लाती-उधम मचाती लड़कियां ही लड़कियों की सच्चाई है। आप सबकी सुनने वाली, धीरे बोलने वाली, हर बात मानने वाली और जैसा कहा वैसा ही करने वाली सुशील, शालीन, सुलक्षिणी लड़कियों की आदर्श स्थिति में एक प्लास्टिक की गुड़िया की कल्पना कर बैठते हैं जो आपकी चाबी से चले।
आप हमें इस लायक बने रहने दें कि हमें अपने निर्णय पर संदेह न हो। अगर आपने मंगल ग्रह से बुद्धिमता में कोई क्रैश कोर्स न किया हो तो इसकी घुट्टी न पिलायें कि हम हर बार उतना ठीक नहीं सोच पाते जितना कि आप। इतना सशक्त बनने दें कि अपना अच्छा-बुरा सोचने के बाद हम आपका मुंह ताकने न आएं। हमें एक दिन की परम शक्तिशाली विरांगना नहीं बनना, हमें बनी रहना है गर्मी, सर्दी, पतझड़ और बरसात को जी भरकर जीने वाली एक ज़िंदा लड़की। आज़ादी के नाम पर अनुमति देना बंद करें। नैतिकता की समय-सीमा बढ़ाकर इन्हें आधी रात तक रहने दें और फिर अगले पूरे दिन के लिए भी ताकि सड़क पर चल रही लड़की को आपसे सहम जाने की ज़रूरत न पड़े।
आप हमें आज़ादी को सौगात बनाकर देना और इसपर इतराना बंद करें। उम्र हो गयी है कहकर हमारे नाम पर रिश्तेदारों की छींटाकशी सुनना बंद करें। समभाव तब आएगा जब आप हमें स्कूल-कॉलेज के बाद चांद पर भेजकर भी यह नहीं कहेंगे कि “हमने भेज दिया।” समानता तब आएगी जब आपको हमारी हर बात पर उत्साहवर्धन के लिए “वाह-वाह” नहीं कहना पड़ेगा। हम तब बराबर होंगे जब आप कपड़ों से चरित्र और आधुनिकता से उपलब्धता मापना बंद कर दें।
मैं उस दिन मानूंगी महिलाएं आज़ाद हैं
जिस दिन उन्हें मापने का हर पैमाना टूटेगा।।
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