नंग-धरंग रेडियो वाले आमिर को देखकर लगा ‘पीके’ गरीबों की फिल्म है,लेकिन अफ़सोस!

नंग-धरंग रेडियो वाले आमिर को देखकर लगा ‘पीके’ गरीबों की फिल्म है,लेकिन अफ़सोस!
नंग-धरंग रेडियो वाले आमिर को देखकर लगा ‘पीके’ गरीबों की फिल्म है,लेकिन अफ़सोस!

नदीम एस.अख्तर

नंग-धरंग रेडियो वाले आमिर को देखकर लगा ‘पीके’ गरीबों की फिल्म है,लेकिन अफ़सोस!
नंग-धरंग रेडियो वाले आमिर को देखकर लगा ‘पीके’ गरीबों की फिल्म है,लेकिन अफ़सोस!

बहुप्रतीक्षित और -बहुवांछित- फिल्म PK मैं नहीं देखने गया. कुछ मित्रों ने टिकट ले लिया था लेकिन मैंने विनम्रता से मना कर दिया. सुना है कि फिल्म के टिकट काफी महंगे कर दिए गए हैं. सो मेरे जैसा गरीब उसे अफोर्ड नहीं कर पा रहा. मेरे मुहल्ले का चीकू चायवाला, पीकू पानवाला, रीकू रिक्शावाला और सीकू सफाईवाला भी PK देखना चाहता है लेकिन मेरी तरह टिकट अफोर्ड नहीं कर पा रहे. और उनके पास ऐसा कोई दोस्त भी नहीं जो टिकट खरीदकर उन्हें फ्री में फिल्म दिखा दे.

फेसबुक पर PK के कई -रिव्यूज- पढ़े हैं. एक जगह तो ये भी लिखा पाया कि फिल्म के टिकट हवाई जहाज के टिकट से भी महंगे हों अगर, तो भी उसे खरीदकर ये फिल्म देखनी चाहिए…इतनी गजब की फिल्म बनी है, बनाई है हीरे जैसे हीरानी ने…
वाह ! अब मुझ जैसा गरीब तो सालों हवाई अड्डा का थोबड़ा (मुंह) नहीं देख पाता तो टिकट की कैसे सोचेंं भला !!!??? लेकिन मैंने हॉलिवुड की फिल्म -मैट्रिक्स- और -अवतार- देखी है. मैट्रिक्स की तो पूरी सीरीज गटक गया हूं. ऐसे में PK में मुझे वो Thrill नहीं दिख रहा. और जब से सुना-पढ़ा-पाया है कि PK में भी एलियन आया है तब से मुझे राजेश रोशन के एलियन -जादू- की याद आ रही है. वही भौंडा सा, छोटा सा और प्लास्टिक-मुखौटे वाले नीले रंग के एलियन की, जो तथाकथित रूप से बड़ा -प्यारा- लगता था लेकिन उसे देखकर मुझे प्राथमिक स्कूल में होने वाले किसी स्टेज शो की याद आती थी. कहां हॉलिवुड के फिल्म -अवतार- का एनिमेशन, क्रिएटिविटी और तकनीक, जो हमे एलियन की एक अलग ही दुनिया में ले जाती है और कहां अपने राजेश रोशन वाला -जादू- एलियन और राजकुमार हीरानी वाला PK यानी आमिर एलियन!!

और हीरानी तो रोशन से भी ज्यादा -चालाक- निकले ! सीधा आमिर को एलियन बना दिया लेकिन शक्लोसूरत पूरी इंसानों वाली. यानी ना मेकअप का झंझट और ना प्रोडक्शन का खर्चा. बस आप (भारतीय दर्शक) मान लो कि वह एलियन है. और हमने मान भी लिया. बहुत आसानी से. सुना है फिल्म बॉक्स ऑफिस पर झंडे भी गाड़ रही है.

मतलब कि भारत तरक्की कर रहा है. मोदी जी के शब्दों में कहें तो अच्छे दिन आ गए हैं. यहां के लोगों के पास इतना पैसा आ गया है कि वो महंगे टिकट लेकर PK देखने जा सकते हैं और पूरे परिवार पर करीब 3-4 हजार रुपये फिल्म देख के लुटा सकते हैं. लेकिन इस भयंकर सर्दी में 100-200 का स्वेटर या कम्बल खरीदकर किसी गरीब को नहीं दे सकते. किसी अनाथआश्रम में जाकर 1000 रुपये का चंदा नहीं कर सकते. किसी वृद्धाश्रम में पहुंचकर 2000 रुपये की रसीद नहीं कटवा सकते. हां, फिल्म PK जरूर देख सकते हैं, महंगे टिकट लेकर क्योंकि ये बताता है कि आप कितने जागरूक हैं. आप जीवन को कितना एंजॉय करना जानते हैं, आप कला-संस्कृति के अगाध प्रेमी हैं और बॉलिवुड के वो दीवाने जो यहां बनने वाली असंख्य कूड़ा फिल्मों में से -हीरे- को पहचानते हैं क्योंकि उसे हीरानी ने बनाया है. अच्छा है, अगर आप समर्थ हैं तो जरूर देखिए. फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखिए. पूरे परिवार के साथ देखिए. इसमें कोई हर्ज नहीं. लेकिन जब रात के अंधेरे में पिक्चर देखकर लौटिएगा तो रास्ते में फुटपाथ पर पड़े सर्दी से ठिठुरते उन बच्चों-परिवारों की तरफ भी नजर मार लीजिएगा, जहां एक ही चीथड़े के अंदर पूरा परिवार सिमटकर सर्दी से लोहा लेता रहता है. अगर कुछ पैसे पर्स में बच गए होंगे तो उनकी भी मदद कर दीजिएगा. भगवान आपका भला करेगा.

वैसे आप पैसे वाले हैं, कामयाब हैं तो ये आपकी मेहनत नहीं है (ज्यादातर मामलों में). ये इसलिए है कि आप ऐसे घर में पैदा हुए जहां आपको सहूलियतें मिलीं, पढ़ने-लिखने का मौका मिला और जीवन में आप ऊंचाइयों की तरफ बढ़ते गए. और वो गरीब इसलिए हैं (ज्यादातर मामलों में) कि वो ऐसे घर में पैदा हुए, जहां होश आने पर ट्रैफिक की रेड लाइट पर मदारी का नाच करके पैसा कमाना सिखाया जाता है, कूड़ा बिनने का हुनर सिखाया जाता है, जीने और खाने के लिए संघर्ष करना सिखाया जाता है और ये बताया जाता है कि तु्म इस दुनिया में -एक्स्ट्रा कैरेक्टर- हो. अगर हो तो दुनिया तुम्हारी वजह से गंदी दिखती है और अगर नहीं रहोगे तो ये दुनिया, ये शहर बड़े ही शालीन-सभ्य और साफ-सुथरे दिखेंगे. फिर भी अगर जीना चाहते हो, खुद को आदम की औलाद मानते हो तो संघर्ष करो. देखो, गाड़ी वाले बाबूजी-साहब ने, उनके बाप ने, उनके बाप के बाप ने भी जरूर संघर्ष किया होगा, तभी आज वो मारूति-800 में बैठे हैं और तुम फुटपाथ की मिट्टी पर. संघर्ष करो, लड़ो, जियो, बिना किसी उम्मीद के. बिना यह जाने के ये देश करीब 70 साल पहले आजाद हो चुका है, यहां हमारी यानी जनता की चुनी हुई सरकारें हैं लेकिन वो भी हमारे किसी काम की नहीं. हम इस देश में useless हैं, waste है, बेकार हैं. ना ही हमारा देश के जीडीपी में कोई योगदान है और ना ही इसके विकास में. हम भारत को वो आबादी हैं, वो जनता हैं जिसके बारे में महात्मा गांधी ने कहा था कि विकास की रोशनी लाइन में खड़े सबसे अंतिम व्यक्ति तक पहुंचनी चाहिए. अब हम उस रोशनी का इंतजार नहीं करते क्योंकि हमें पता है कि विकास की रोशनी इस धरती से निकलकर सुदूर अंतरिक्ष तक चली गई है और वहां रहने वाले -एलियन- को रोशन कर रही है. रोशन और हीरानी तो बस इसे तीन घंटे में समेटकर दिखा रहे हैं. अब कोई भूख पर फिल्म नहीं बनाता, गरीबी पर मूवीज नहीं बनती. अब तो हंसने-खेलने-हंसने-हंसाने का जमाना है. करोड़ो रुपये लगाकर रिस्क कौन ले क्योंकि मिर्ची सुनने वाले ऑलवेज खुश रहना जानते हैं.

हां, गलती मुझी से हो गई. फिल्म के पोस्टर में आमिर खान को नंग-धड़ंग, रेडियो हाथ में लिए देख ये सोचा कि जरूर ये गरीबों का और गरीबों के लिए, अमीरों द्वारा बनाई गई फिल्म है. आमिर खान के पास पहनने को कपड़े नहीं हैं लेकिन फिर भी -शाइनिंग इंडिया- को जगमगाते हुए वो हाथ में रेडियो लेकर खड़े हैं. ये एक पंथ, दो काज के बराबर है. एक तो रेडियो से वह अपनी -इज्जत- बचा रहे हैं, दूसरी तरफ ये संकेत दे रहे हैं कि भारत तरक्की कर रहा है. पहनने के लिए पास में कपड़े भले ना हों, भूख से सूख-तपकर शरीर भले हो toned हो जाए लेकिन हाथ में रेडियो है. यानी हम दुनिया से जुड़े रहने वाले लोग हैं, प्रगतिशील है. अभी हाथ में रेडियो है, अगले पोस्टर में सीआरटी (Cathode Ray tube) टीवी होगा, अगले में एलसीडी और अगले में एलईडी…यानी हम निरंतर विकास करते रहेंगे… लेकिन मैं गलत था. इस पोस्टर का पर्याय वैसा कतई नहीं था, जो मैं सोच रहा था. ये पोस्टर तो ये बताने के लिए था कि भारत का मिडिल क्लास, नवधनाढ्य और इलीट शौक से कपड़े उतारकर स्विमिंग पूल में छलांग लगाने को आतुर है. Swimming is d best exercise. और यदि VLCC या जिम में एक्सरसाइज करके Body toned कर ली है तो आप इसे दुनिया को दिखा सकते हैं. बड़े कलात्मक तरीके से. बस PK के पोस्टर की नकल करिए और डन. Upmarket बन जाइए, बस पॉकेट भरा होना चाहिए. ये दिल मांगे मोर. Money minimizes mind blowing problems.

पैसा बोलता है. बाप बड़ा ना भैया, सबसे बड़ा रुपैय्या. पैसा खुदा तो नहीं लेकिन खुदा से कम भी नहीं. पैसे का बोलबाला, सच्चे का मुंह काला. ये पैसा, वो पैसा, यहां पैसा, वहां पैसा, पैसा ही पैसा. पिक्चर खत्म, पैसा हजम. घर चलो यार ! नहीं, नहीं, अब खाना कौन बनाएगा. मैकडी या पिज्जा हट में रुकना. वहीं कुछ खा लेंगे. I m tired…u know…

(लेखक आईआईएमसी में अध्यापन कार्य कर रहे हैं )

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