विनीत कुमार
हिन्दी सहित भारतीय भाषाओं को लेकर अभी जो माहौल है, इसमे हिन्दी और क्षेत्रीय अखबारों एवं मीडिया की धारदार भूमिका होनी चाहिए थी लेकिन एकाध को छोड़कर सारे चारण-भाट और त्योहारों में डूबे हुए हैं. किसी मुद्दे को शामिल करने का मतलब ये कतई नहीं होता कि आप सिर्फ उनके पक्ष में ही लिखें,बोलें बल्कि सही परिप्रेक्ष्य में इस तरह से शामिल करें कि पाठक-दर्शक दोनों पक्षों के प्रति अपनी समझ विकसित कर सके.
सीसैट के विरोध के प्रति अगर आप सहमत नहीं हैं तो उसके भी तर्क सामने आने चाहिए. लेकिन आप गौर करें तो पाएंगे कि ये अखबार रिपोर्टिंग और विश्लेषण के बजाय प्रेस रिलीज पत्रकारिता में जुटे हैं. तब ज्यादा उत्साह से खबर प्रकाशित करते हैं जबकि सीसैट में भाषा से जुड़े मसले को लेकर हो रहे विरोध प्रदर्शन को ध्वस्त करने में दलीलें दी जाती है.
साफ तौर पर उनका उत्साह यूपीएससी और सरकार की ओर होता है. लेकिन वो इतनी बेसिक बात नहीं समझ पाते कि हिन्दी सहित भारतीय भाषाओं में वो अंग्रेजी फेंटकर तभी तक चला सकते हैं जब तक कि इन भाषाओं की सहायक क्रियाएं, उपसर्ग,प्रत्यय और अवयव बचे रहेंगे. यहां तो रवैया भाषा क्या, उनके व्याकरण और अर्थशास्त्र को ही खत्म कर देने का है. ये सब खत्म होकर भी अगर हिन्दी और भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता का धंधा बचा रह जाता है तो समझिए कि बाजार के आगे भाषा ने बहुत पहले ही दम तोड़ दिया था.
(स्रोत-एफबी)