13 लाख 77 हजार करोड़। ये जनता के टैक्स देने वालों का रुपया है। केन्द्र सरकार इसका 40 फिसदी हिस्सा राज्यों को बांट देती है। और अलग अलग राज्यों में सत्ता के पास जनता का जो टैक्स पहुंचता है, वो 30 लाख करोड से ज्यादा का है। मसलन यूपी में टैक्स पेयर 340120 करोड रुपये तो पंजाब में 85595 करोड रुपये। और इसी तर्ज पर जम्मू-कश्मीर में 61681 करोड रुपये तो झारखंड में 55492 करोड। असम में 77422 करोड रुपये तो गुजरात में 116366 करोड रुपये। यानी देश में केन्द्र से लेकर तमाम राज्य सरकारों के पास टैक्स पेयर का करीब 43 लाख 77 हजार करोड रुपया पहुंचता है। और ये सवाल हमेशा अनसुलझा सा रहा जाता है कि आखिर जनता का पैसा खर्च जनता के लिये होता है कि नहीं। और जनता के पैसे के खर्च पर सत्ता की कोई जिम्मेदारी है या नहीं। क्योंकि एक तरफ गरीब जनता की त्रासदी और दूसरी तरफ सत्ताधारियों की रईसी जिस तरह सार्वजनिक तौर पर दिखायी देती है। उसने ये सवाल तो खड़ा कर ही दिया है कि क्या सत्ताधारी जनता के पैसे पर रईसी करते है। लंबी लंबी गाडियों से लेकर दुनिया भर की यात्रा से सीधा जनता का क्या जुड़ाव होता है। और एक बार सत्ता मिलने के बाद हर राजनेता करोडपति कैसे हो जाता है। सरकारी कर्मचारियो के वेतन में सालाना 2 फीसदी से ज्यादा की बढोतरी होती नहीं है। राजनेताओं की संपत्ति में औसतन 50 फिसदी की बढोतरी कैसे हो जाती है। और असंगठित क्षेत्र के कामगार-मजदूरो की कमाई सालाना दशमलव में भी नहीं बढ़ पाती है। तो ये सवाल है कि क्या राजनेताओं का जुड़ाव जनता की जरुरतों से ना होकर सत्ता बनाये रखने और संपत्ति बढ़ाने से ही जुड़ी रहती है। ये सवाल इसलिये क्योंकि मौजूदा वक्त में लोकसभा के 81 फिसदी सांसद करोडपति है। तो राज्यसभा के 99 फिसदी सांसद करोडपति है। और ज्य विधानसभा के 83 फिसदी विधायक करोड़पति है। तो ये सवाल हर जहन में उठ सकता है कि आखिर जो जनता अपने वोट से अपने नुमाइन्दों को चुनती है उनकी संपत्ति में सबसे तेज रफ्तार से बढोतरी क्यों है।
और अगर सामाजिक आर्थिक तौर पर सत्ताधारियो की क्लास जनता से दूर होगी। असमानता जनता और सत्ता के बीच होगी तो किसी भी सरकार की कोई भी नीति जनहित को कैसे साधेगी। इसके तीन उदाहरण को समझे तो खेती में पौने दो लाख करोड की सब्सिडी का जिक्र सरकार बार बार करती है। उसे ये बोझ लगता है। और कारपोरेट को सालाना साढे पांच लाख करोड की टैक्स सब्सिडी दी जाती है। जिसका कोई जिक्र तक नही होता। कमोवेश यही हालात शिक्षा, हेल्थ , पीने के पानी और सिचाई या इन्फ्रास्ट्रक्चर तक में है। शायद इसीलिये देश के सामने हर सरकार के वक्त संकट यही होता है कि देश को स्टेट्समैन क्यों नहीं मिलता। ौर विकास के नाम पर हर सरकार वक्त पूंजी या विदेशी निवेश ही क्यों देखती है। क्योंकि नेहरु से लेकर मोदी तक के दौर को परखें तो तमाम पीएम ने अपने अपने दौर में अपनी एक पहचान दी । और सभी ने जनता से अपने अपने दौर में किसी ना किसी मुद्दे पर कोई ना कोई आदर्श रास्ता बताया। जनता से उसपर चलने को कहा और ये सवाल बार बार उठता रहा कि क्या वाकई जनता अपने नेता के कहने पर उनके रास्ते चल पड़ती है या फिर हर प्रदानमंत्री को किसी भी काम को पूरा करने के लिये एक बजट चाहिये होता है। तो ऐसे मौके पर मौजूदा वक्त के आईने लाल बहादुर शास्त्री को याद करना चाहिये। क्योंकि लाल बहादुर शास्त्री ने देश में अन्न के संकट के वक्त देशवालों से जब एक वक्त उपवास रखने को कहा तो देश के कमोवेश हर घर में शाम का चूल्हा जलना बंद हो गया।
और ये इसलिये क्योंकि लाल बहादुर शास्त्री ने खुद को कभी जनता के आर्थिक हालात से अलग नहीं माना। विदेश यात्रा के वक्त पीएम होते हुये भी जब लाल बहादुर शास्त्री के परिवार वालों ने एक ओवर कोट सिलवाने को कहा। तो उन्होंने देश और खुद की हालात का जिक्र कर नेहरु के कोट की बांह छोटी करवाकर उसे ही पहन कर मास्को चले गये। वहीं मौजूदा पीएम मोदी ने 2 अक्टूबर 2014 को स्वच्छ भारत का एलान कर जनता को जोड़ने का एलान किया। और जुडाव के लिये भी एक बरस में महज प्रचार में 94 करोड़ खर्च हो गये। लेकिन देश की हालात है क्या ये कहा किसी से छिपा है। और इससे पहले मनमोहन सिंह ने भी स्व्च्छ और निर्मल भारत का स्लोगन लगा कर 2009 से 2014 के बीच 744 करोड प्रचार में खर्च कर दिये और हालाता जस के तस रहे।
(लेखक के ब्लॉग से साभार)