फिल्म ‘रंगरसिया’ पर एनडीटीवी के पत्रकार ‘प्रियदर्शन’ की एक टिप्पणी –
इसे आप चाहें तो कैनवास पर उकेरी कलाकृति कह सकते हैं।
आप चाहें तो इसे कला और कलाकार के द्वंद्व की एक कविता कह सकते हैं।
आप चाहें तो इसे अभिव्यक्ति और कठमुल्लेपन के बीच टकराव की एक कहानी कह सकते हैं।
और आप चाहें तो इसे राजा रवि वर्मा नाम के अद्वितीय चित्रकार पर बनी एक पीरियड फिल्म की तरह देख सकते हैं।
और अगर आपके पास निगाह हो तो आप घुलते−मिलते−बिखरते−पसरते रंगों के खेल में अपने भीतर आकार लेती एक कोमल कला को भी पहचान सकते हैं।
कहने की ज़रूरत नहीं कि केतन मेहता की ‘रंगरसिया’ एक बड़ी फिल्म है− ऐसी फिल्म जो इतिहास में जाती है और एक चित्रकार की कहानी इस तरह उठा लाती है कि वह हमारे लिए भी प्रासंगिक हो उठती है।
उन्नीसवीं सदी के अंत में काम कर रहे एक बड़े भारतीय कलाकार के रूप में राजा रवि वर्मा की प्रतिष्ठा पुरानी है और यह जानकारी भी कि उन्होंने हमारे देवी−देवताओं के चित्र बनाए, उन्हें जन−जन तक पहुंचाया। लेकिन यह बेहद सामान्य सी लगने वाली जानकारी उस दौर के लिहाज से कितनी अहम रही होगी, इसका एहसास फिल्म देखते हुए होता है।
राजा रवि वर्मा ने देवताओं को मंदिरों और पुरोहितों की क़ैद से निकाला और कैलेंडरों और चित्रों की शक्ल में घर−घर पहुंचा दिया। अपनी देवमाला को हम पहली बार इस तरह साकार देख रहे थे।
राजा रवि वर्मा ने भारतीय समग्रता और सुंदरता को नए आयाम और स्पर्श दिए। लेकिन यह काम आसान नहीं था। उन पर अश्लीलता के आरोप लगे, उनके ख़िलाफ़ धार्मिक संगठन खड़े हुए, उनका प्रिंटिंग प्रेस जलाया गया, उनकी मॉडल बनी प्रेमिका को सरेआम बेइज़्ज़त किया गया, उन पर हमले हुए, उन्हें अदालतों में घसीटा गया।इन सबके बीच राजा रवि वर्मा बचे रहे, क्योंकि ये एहसास बचा रहा कि कला सबसे बड़ी होती है− सब ख़त्म हो जाता है, झर जाता है, कला बची रहती है।
यह एक आसान फिल्म नहीं हैं। इसे बनाते हुए कारोबारी सफलता के बड़े आसान प्रलोभन निर्देशक को घेरते रहे होंगे। लेकिन उन्होंने बहुत सावधानी से अपनी फिल्म को सतही क़िस्म के देह−प्रदर्शन से बचाए रखा। राजा रवि वर्मा की प्रेमिका बहुत खुलती है− फिल्म में प्रेम के बहुत सुंदर दृश्य हैं− लेकिन वे किसी सस्ते से दृश्य की उम्मीद में पहुंचे दर्शकों की निगाह को भी यह मौक़ा नहीं देते कि वह इनमें किसी स्थूल मांसलता का आनंद ले। जैसे देह भले अनावृत्त हो रही हो एक आत्मा उसे ढंक ले रही है। कला का अपना अध्यात्म उसे एक परालौकिक अनुभव में बदल दे रहा है। सौंदर्य की अपनी पवित्रता इस कला को पूजा का रूप दे रही है।
इस बहुत पवित्र संसार और संबंध को एक अश्लील सांसारिकता ने घेर रखा है जो उसका इस्तेमाल भी करती है और उससे क्रूर प्रतिशोध भी लेती है। कला की प्रेरणा और कलाकार के बीच जो खाई पैदा होती है और अंतत जिस परिणति तक पहुंचती है वह एक बड़ी हूक पैदा करती है− काश ऐसा न होता। लेकिन कला का शाप शायद यही होता है कि उसे जीवन की सज़ा भुगतनी पड़ती है।
इस फ़िल्म का एक समकालीन पाठ भी है। धर्म और संस्कृति के नाम पर, परंपरा और सभ्यता के नाम पर एक भयानक क़िस्म का सतहीपन और औसतपन हर तरफ़ दिखता है जो सारी कलाओें और अभिव्यक्ति के सारे माध्यमों को अपने ढंग से अनुकूलित करना चाहता है। समकालीनता का यह पाठ फिल्म में कतई अलक्षित नहीं रह जाता और इसीलिए यह फिल्म समकालीन समय की सत्ता को भी डराती है।
स्रोत-एफबी)