राजीव गांधी चाहते थे कि दूरदर्शन पर रामायण शुरू हो : रामानंद सागर ने मेरी बात सुनकर सपाट ढंग से कहा- मैं ये सब सिर्फ इसलिए कर रहा हूं क्योंकि सरकार ऐसा चाहती है. ये वो चिठ्ठी है जिसमें कि गिल साहब ( एस.एस.गिल सेक्रेटरी, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार ) ने मुझे इस तरह का सीरियल बनाने कहा है. मैंने इन एपिसोड पर बहुत पैसे खर्च कर दिए हैं.
भास्कर घोष जो कि दूरदर्शन के मशहूर डीजी हुए. हम और आप उन्हें फ्रंटलाइन पत्रिका में लगातार पढ़ते आए हैं, दूरदर्शन और सरकार के साथ टेलिविजिन को लेकर किए गए काम और अनुभव को लेकर एक किताब लिखी है- दूरदर्शन डेज. विकिंग( पेंग्विन बुक्स, नई दिल्ली ) से छपी ये किताब मीडिया के उन तमाम छात्रों, शोधार्थियों और देश की राजनीति में दिलचस्पी रखनेवाले लोगों के लिए यह बेहद जरूरी और दिलचस्प किताब है. इस किताब के ज़रिए वो समझ सकेंगे कि जिस टेलिविजन को देश के करोड़ों नागरिक लोकतंत्र का चौथा स्तंभ और उनके कार्यक्रमों को देश की संस्कृति का पर्याय मानकर देखते हैं, राष्ट्र राज्य ( नेशन स्टेट ) इस माध्यम का इस्तेमाल कैसे अपनी मशीनरी के तौर पर करता है. किताब का दूसरा अध्याय है- Epic Serials and Serial Epics. इस किताब में भास्कर घोष दूरदर्शन और भारतीय टेलिविजन पर सोप ओपेरा जिसे कि बोलचार की भाषा में टीवी सीरियल कहा जाता है, के शुरू होने की कहानी की विस्तार से चर्चा करते हैं.
भास्कर घोष की पहचान बेहतरीन आइएएस ऑफिसर की रही है. बंगाल कैडर में तैनात वो ज्योति बसु के पसंदीदा अधिकारियों में से रहे हैं. सागरिका घोष को अपने इस पिता से मीडिया, राजनीति और भाषा के स्तर पर काफी कुछ सीखने को मिला. अपने काम और मेहनत से उन्होंने जो पहचान बनायी, उसका असर ये हुआ कि सीधे देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उन्हें दूरदर्शन की स्थिति सुधारने के लिए दिल्ली बुला लिया. राजीव गांधी से अपनी यादगार मुलाकात के बारे में वो लिखते हैं कि मैं दूरदर्शन को लेकर बहुत चिंतित हूं. मैं सोचता हूं कि इसमें मूलचूल परिवर्तन की जरूरत है. हमें ऐसा कार्यक्रम बनाना चाहिए जो कि आकर्षक और समाज में नया अर्थ पैदा करनेवाला हो.
भास्कर घोष ने जब दूरदर्शन ज्वॉयन किया, उस वक्त उन्हें इस माध्यम का बहुत ज्यादा अनुभव नहीं था लेकिन इस मुलाकात के बाद वो समझ गए थे कि देश के प्रधानमंत्री राजीव गांधी पब्लिक ब्रॉडकास्टर के तौर पर दूरदर्शन को क्या शक्ल देना चाहते हैं ? इस चिठ्ठी में यह बताया गया था कि दूरदर्शन किस तरह के कार्यक्रमों का प्रसारण करे जिससे कि यहां की परंपरा, संस्कृति एवं मूल्यों का लोगों तक विस्तार हो सके. इस दृष्टि से रामायण और महाभारत पर सीरियल बनाने की बात कही गयी थी. उसके बाद ही जब औपचारिक तौर पर मंत्रालय से चिठ्ठी आयी तो इस पर काम करना शुरू कर दिया.
भास्कर घोष जिस अंदाज में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के सेक्रेटरी एस.एस. गिल की चर्चा करते हैं, उनके हिसाब से वो एक ऐसे व्यक्ति रहे हैं कि न खाता, न बही, जो गिल कहें, वही सही. रामायण के लिए रामानंद सागर और महाभारत के लिए बी. आर. चोपड़ा से संपर्क करने की बात की गयी तो गिल साहब का यह नज़रिया स्पष्ट हो गया. उन्होंने इनके अलावा विधिवत रूप से न तो बाकी नामों की शॉर्टलिस्टिंग की और न ही किसी तरह की बाकी योग्यता पर विचार किया. इसका असर ये हुआ कि रामानंद सागर गिल साहब के अलावा किसी की सलाह मानने को तैयार न थे और उनका भरोसा था कि उनकी बातचीत सीधे सरकार से हो रही है. लेकिन भास्कर घोष ने रामानंद सागर के रामायण एपिसोड को लेकर न केवल असहमति जतायी बल्कि उसे अपने तरीके से बनवाने में कामयाब भी हुए. रामानंद सागर ने राम और लक्ष्मण के तौर पर जिन बाल कलाकारों को शामिल किया था, वे बेहद कमजोर दर्शकों पर असर पैदा करनेवाले नज़र नहीं आए. रामानंद सागर ने इसमें बदलाव करने में आनाकानी की. किताब में इसे लेकर लंबी चर्चा है जिसका सार यह है कि भास्कर घोष रामायण को भव्य, आकर्षक और भारतीय सिनेमा की तरह थोड़ा ग्लैमरस बनाना चाहते थे जबकि रामानंद का जोर इसे धार्मिक-पौराणिक कथा के तौर पर रामलीला की टेलिविजन प्रस्तुति देने भर की रही. दूरदर्शन पर रामायण का प्रसारण जिस शक्ल में किया गया, वो रामानंद सागर की मेहनत और नाम के बावजूद भास्कर घोष की सलाह की परिणति था.
दूरदर्शन पर प्रसारित रामायण की लोकप्रियता इस कदर बढ़ी कि रविवार की सुबह हिन्दुस्तान के साथ-साथ लाहौर की गलियां सूनी पड़ जाने लगी. रामायण की लोकप्रियता लोगों के सिर चढ़कर बोलने लगा. बच्चों के खिलौने से लेकर पोशाक तक रामायण के चरित्रों से पट गया. अरूण गोविल राम की तरह पूजे और देखे जाने लगे. दूरदर्शन पर इस दौरान विज्ञापन की स्लॉट आगे कई-कई महीने के लिए बुक होने लग गए.
इसी बीच बुद्धिजीवियों के बीच इस बात की भी चर्चा शुरू हुई कि रामायण की लोकप्रियता से विश्व हिन्दू परिषद, बीजेपी, दक्षिणपंथी राजनीति को फलने-फूलने का मौका मिल गया है. रामायण के प्रसारण ने अयोध्या मामले को नए सिरे से जिंदा किया है. भास्कर घोष ने किताब में इन प्रसंगों की भी चर्चा की है.
इस दृष्टि से एम के दिनों में मैं जब मीडिया की पढ़ाई कर रहा था, अरविंद राजगोपाल की किताब Politics after Television: Hindu Nationalism and the Reshaping of the Public in India से गुज़रा. माध्यम और मतदान आधारित राजनीति, राष्ट्रवाद और भावुकता आधारित जनतंत्र की निर्मिति के रेशे को समझने की दृष्टि से यह एक जरूरी किताब है.
रामायण और महाभारत की लोकप्रियता का आलम यह रहा कि दूरदर्शन ने हाल-हाल तक रविवार के सुबह आठ से दस की स्लॉट को रिकॉल वैल्यू के तहत इस्तेमाल करना चाहा. हाल ही में उपनिषद् गंगा ( डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी निर्देशित ) का प्रसारण इसी रणनीति का हिस्सा रहा है.
देश के सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रकाश जावडेकर ने ट्वीट करके बताया है कि सोशल मीडिया पर लोगों की मांग को ध्यान में रखते हुए हमने फैसला लिया है कि दूरदर्शन पर रामायण का प्रसारण फिर से किया जाय. मुझे नहीं पता कि कोरोना वायरस की रोकथाम के लिए लॉकडाउन के तहत इंटरनेट, नेटफ्लिक्स और सैकड़ों वेब सीरीज और मुफ्त की फिल्मों के बीच जी रही देश की आबादी के बीच यह फिर से कितना देखा जा सकेगा ? वैसे देखा जाय तो रिकॉल वैल्यू के तहत हर बडे मनोरंजन चैनल के रामायण के अपने संस्करण हैं. संभवतः वो सब भी मैंदान में उतरें. लेकिन
मीडिया और टेलिविजन के छात्रों के लिए यह बेहतर समय है कि वो इसी बहाने दूरदर्शन, उसके कार्यक्रम और उसकी लोकप्रियता और इन सबके बीच राष्ट्र राज्य ( नेशन स्टेट ), जनक्षेत्र( पब्लिक स्फीयर ) और राज्य के औजार ( स्टेट एपरेटस ) को भी पढ़ते चलें. इससे उन्हें एक साथ कई बातें समझने में मदद मिलेंगी. (लेखक के फेसबुक वॉल से साभार)