20 जनवरी को जयपुर में हुए अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी की बैठक में श्री राहुल गाँधी को उपाध्यक्ष पद की ताजपोशी के बाद जैसे एक नयी बयार बह चली है कांग्रेसी कार्यकर्ता अपने राहुल भैया की तारीफ करते नहीं थकते हैं और उनके अभूतपूर्व, ओजस्वी भावनात्मक भाषण को पार्टी में एक नए युग का आगाज़ मानते हैं.
कांग्रेस पार्टी मुख्यालय में भी मीडिया से अपने पहले साक्षात्कार में उन्होंने” सकारात्मक राजनीति” का पाठ पढ़कर कुछ नेताओं को चित्त और बाकी को आश्चर्यचकित कर दिया. ये अलग बात है कि अब से उनके हर बोल हरकत और अदा पर होगी और वहीँ से पार्टी की दशा और दिशा – दोनों का पता चल जायेगा.
विगत चार दिनों में तकरीबन हर राजनीतिक पंडित और मठाधीशों ने राहुल गाँधी की तारीफ़ के पूल बांधे और उनकी संवेदनशीलता और भावनात्मक गंगा के बहाव में स्नान किया, अगर बीच में गृह मंत्री शिंदे जी भगवा आतंकवाद वाला नमक नहीं परोस देते तो शायद ये स्तुतिगान का सिलसिला नवरात्र की तरह बदस्तूर चलता रहता.
मगर सवाल ये है कि राहुल गाँधी का भाषण वाकई भावुकता और संवेदनशीलता से ओतप्रोत था या फिर वो बहुत ही सोची समझी रणनीति का नतीजा था? दरअसल उनका भाषण हर तरह से राजनीतिक था जिसके ज़रिये उन्होंने एक ही तीर से कई निशाने साधे. पहला ये कि उन्होंने सब को ये याद दिल दिया कि आज भी इस देश में गाँधी-नेहरु परिवार की विरासत का कोई विकल्प नहीं है. जहाँ तक त्याग और बलिदान का प्रश्न है तो गाँधी परिवार की दो पीढ़ियों ने बलिदान दिया है और जो कांग्रेसी नेता आज भी रात की नींद में देश के प्रधानमंत्री का सपना देखते हैं उनको एक चेतावनी भी थी कि नेहरु-गाँधी परिवार है तो वो हैं, वरना उनकी क्या बिसात और औकात है?
उनका दूसरा संकेत ये था कि बदलते ज़माने और राजनीतिक परिवेश में पार्टी का नेतृत्व बदलना बहुत ज़रूरी है और अब कांग्रेस पार्टी को उनकी मातहत स्वीकार करने के अलावा और कोई चारा नहीं है. मगर कई कांग्रेसी छत्रप अभी से ही अपनी विधवा विलाप में जुट गए हैं और उनको लगने लगने लगा है कि राहुल भैया के कई फैसले तुगलकी फरमान की तरह है जिसकी तामील करने से बहुत नुकसान होगा.
उनके मुताबिक़ श्री गाँधी का बयां कि वो हर गाँव को कांग्रेस मुख्यालय से जोड़ देंगे. सुनने में बड़ा ही बढ़िया लगता है, मगर हकीकत वो क्या ऐसा कर पाएंगे? और अगर ऐसा हुआ तो भी पार्टी का क्या हश्र होगा ,इसका उनको अंदाजा भी है क्या?
उनका सवाल ये भी है कि विगत आठ सालों में श्री गांधी ने कौन सा तीर मारा जिसके आधार पर उनको कांग्रेस पार्टी की कमान दी गयी? वो क्यों हमेशा देश के बड़े और संजीदा मुद्दों पर चुप रहते हैं? क्या आठ सालों की असफ़लता को 15 मिनट के भाषण से भरा जा सकता है? अगर सिर्फ वो ही देश के युवा नेता हैं तो क्या वो लोग युवा नहीं थे जो इंडिया गेट और जंतर – मंतर पर बलात्कार के खिलाफ आन्दोलन कर रहे थे?
क्या चंद मिनटों के लिखे – लिखाये भाषण के आधार पर पूरे देश का भविष्य भावी प्रधान मंत्री के तौर पर श्री गाँधी के हाथ में सौंप दिया जाये? ऐसे कई सवाल है जिनका जवाब राहुल गाँधी को आने वाले दिनों में देना पड़ेगा. यह सही है कि उनकी नीयत या उनके इरादे में कोई खोट नहीं है. मगर असली मुद्दा ये है कि उनकी पार्टी की जड़ अब पूरे देश में कहाँ-कहाँ महफूज़ बची है.
श्री गाँधी को विगत चाँद सालों में जितनी कवायद करनी थी, वो कर चुके. मगर पार्टी के लिए जनाधार को बढ़ाने में सफल नहीं हुए. दरअसल ऐसे कई सवाल हैं जिसपर कांग्रेस पार्टी ने संजीदगी से सोचा ही नहीं. दिल्ली में बैठे लोग अब भी यही सोचते हैं कि कांग्रेस पार्टी की अस्मत बचाने का जिम्मा गाँधी परिवार के हाथ मे है. बाकी लोग मौज करें.ये चारण और भाट की पद्धति कमाल की है. कांग्रेस पार्टी में अक्सर ऐसा होता है कि थोर करें काली माई और ढेर करें कीर्तनिया. कांग्रेस पार्टी इसी मुगालते में पिछले बिहार विधान सभा चुनाव में अपनी इज्ज़त गंवा बैठी.सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी के साथ मनमोहन सिंह भी ताल ठोंक कर चुनावी मैदान में कूद पड़े. मगर अंजाम क्या हुआ. 243 सीटों में से कांग्रेस को सिर्फ 4 सीटें ही मिल पाई जो बिहार में आजादी से लेकर अब तक का सबसे ख़राब रिकार्ड है.
सन 2012 के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव का तो और ही बुरा हाल रहा. कांग्रेस पार्टी की फौज ने राहुल उनको अपना सेनापति मानकर उनके हर बयान, उनकी हर अदा पर तालियाँ बजाई और पूरे प्रदेश में उनको खुशबूदार हवा का नया झोंका के तौर पर पेश किया गया . मीडिया वालों में भी एक तबका ऐसा है, जिसमें राहुल गाँधी हमेशा देश की संजीवनी के तौर पर देखे और लिखे जाते हैं. मगर उनकी मुश्किल ये थी कई विगत 22 सालों में प्रदेश में गैर कांग्रेसी सरकार रही और प्रदेश के कांग्रेसी नेताओं ने कभी अपने निजी स्वार्थ के लिए पार्टी की ज़मीर बेच डाली तो कभी अंतर्कलह और गुटबाज़ी ने काम तमाम कर दिया.
गुजरात के चुनाव में तो जैसे पूरा मैदान नरेन्द्र मोदी के हवाले कर दिया गया मानो कांग्रेस यही चाहती थी . शायद आला कमान को अब भी यकीन है कि राहुल गाँधी का करिश्मा ही पार्टी के लिए राम बाण बन जायेगा और पार्टी की नैया पार हो जायेगी और इसलिए उनको पार्टी का उपाध्यक्ष बना कर उतारा गया है और 2014 लोक सभा चुनाव की कमान भी उनके हाथ में दी गयी है. मगर अभी से ही एक बार फिर मुगालता और मुखबिरी का बाज़ार गर्म हो गया और ईमानदारी से बात कहने वालों की जगह एक बार फिर चम्मचों और चाटुकारों की फौज अपनी बिसात बिछाने लगी है या फिर पार्टी ने इतिहास से कोई सबक नहीं सीखी है. गौरतलब है कि सन 2007 के चुनाव में लगता था कि उत्तर प्रदेश राहुल गाँधी की आंधी में बह जाएगा और कांग्रेस सत्ता में वापस लौट आएगी. मगर कई नेता और सलाहकार शायद ये भूल जाते हैं कि औचक और चौचक के खेल में जनता कुछ पल के लिए भौंचक भले ही हो जाए मगर आखिर में वो अपना फैसला अपने विवेक से ही लेती है.
दरअसल कांग्रेस पार्टी की ऐसी फजीहत का सबसे बड़ा कारण है पुराने और युवा वर्ग के नेताओं के बीच सोंच – समन्वय का अभाव. देश की ज़मीनी हकीकत, जातीय समीकरण और ज्वलंत मुद्दों और मसलों पर पार्टी में एक सोच और एकता का अभाव दिखता है. नयी पीढ़ी के नेता लोग और राहुल गाँधी के सलाहकारों की टीम में प्रदेश राजनीति की बारीकियों और स्थानीय मुद्दों और बातों का ज्यादा इल्म नहीं है. विदेशों से शिक्षा प्राप्त कर बाद वातानुकूलित कमरों में लैपटॉप पर दिखे नक्शों और आंकड़ों के बलबूते पर चुनाव में जीत हासिल करना बड़ा आसान दिखता है.
मुश्किल यह है कि भारत जैसे देश में बाज़ार और कारपोरेट पद्धति से जब चुनाव प्रबंधन किया जाने लगता है तो जीत की संभावना अक्सर कठिन को जाती है और गुड़ का गोबर हो जाता है. संत तुलसीदास ने लिखा था कि :- सचिव,वैद्य गुरु तीन जो प्रिय बोंले भयास . राज, धर्म, तन तीन का होई वेग ही नाश.
कांग्रेस पार्टी में अभी जश्न का माहौल है? मगर आने वाला हर दिन उनके लिए एक नयी चुनौती पेश करेगा. पहले तो पार्टी का खिसकता जनाधार माथा पच्ची का सबब बनेगा. उनकी मंशा हर जिले में 40 45 युवा नेता और हर राज्य में 4/5 मुख्यमंत्री की फसल तैयार करने की है. मगर पहले ज़मीन का रकबा तो माप लें. ये तो देख लें कि उसर- बंज़र ज़मीन की टुकडियों में सूरजमुखी के फूल खिलने का सपना महज़ कागज़ पर ही तो नहीं रह जायेगा. इस साल 9 राज्यों में विधान सभा के चुनाव होने वाले हैं. उनकी लोकप्रियता और करिश्मा का असली मुज़ाहरा तब देखने को मिलेगा. हिंदी बहुल राज्यों में काफिला और कारवाँ हुजूम से ही बनता है.
बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे जगहों पर एक कहावत है कि “जूते में दम तो नेता हैं हम”. अब श्री गाँधी को वातानुकूलित कमरे से बाहर निकल कर कर्णाटक,राजस्थान,मध्य प्रदेश ,छत्तीसगढ़ और और कई राज्यों की संकरीली -पथरीली सड़कों कों पर उतर अपना जलवा और जलाल दिखाना होगा. पार्टी और जनता तभी उनका लोहा मानेगी. वरना इतिहास गवाह है कि अमीरों ने नाकारा और निकम्मा हुकूमत इसलिए चलायी की वो मुग़लिया खानदान के वारिस थे और जैसे ही मौका मिला,उसकी नीव तक उखाड़ कर फेंक डाली. राहुल गाँधी की एक अहम् चुनौती होगी उनकी रणनीति और उनके सलाहकार और सिपहसालारों की फ़ौज. योजना बंद कमरे में बनती है मगर वो कितनी कारगर होती है इसका अंदाज़ा सिपहसालारों की कूबत और लियाकत से पता चलता है. शिवाजी और राना प्रताप की लड़ाई में यही फर्क था. शिवाजी किले पर किले जीत ले गए मगर राना प्रताप को अरावली की पहाड़ियों में खास की रोटी खा कर जीने को मजबूर होना पड़ा. अब तक श्री राहुल गाँधी अपनी तरह से ज़िन्दगी जीते रहे मगर अब से उनको अपना सारा वक्त पार्टी को देना पड़ेगा और दिन रात उसी के साये में सोना-जागना पड़ेगा. पार्टी के हित में उनको बहुत से कठोर निर्णय लेने पड़ेंगे, उनको ये भी समझना पड़ेगा की चुनाव सञ्चालन और पार्टी का खर्च कैसे चलता है और कांग्रेस मुख्यालय में कई महारथी और मठाधीश इतने अरसे से कैसे जमे है और क्या चला रहे हैं? उनको इस बात का भी एहसास होने लगेगा कि किराये का इंजन नहीं लगाना चाहिए और कांग्रेस पार्टी में कभी भगवान् नहीं बदला जाता. वरना उसका हाल भी कृपा शंकर सिंह जैसा हो जाता है. देखना ये है की राहुल गाँधी अपनी पार्टी और देश की जनता की कसौटी पर कितना खरा उतरते हैं या फिर वोही शेर याद दिलाते हैं कि :- ये नहीं थी बात कि मेरा कद घट गया . छोटी थी चादर और मैं सिमट गया. ( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)