अभिषेक श्रीवास्तव,स्वतंत्र पत्रकार
कोई पत्रकार जब पार्टी बन जाता है तो उसके चेहरे पर डिफेंस की बेचारगी झलकने लगती है। वहीं कभी पार्टी रहा पत्रकार जब अपने पुराने पाले को दूर से देख रहा होता है तो उसके चेहरे पर सच की रेखाएं उभरने लगती हैं। पहले का उदाहरण आज टाइम्स नाउ पर प्राइम टाइम पैनल में बैठी सबा नक़वी रहीं तो दूसरे का उदाहरण दस तक में पुण्य प्रसून वाजपेयी रहे। सबा ने अरविंद केजरीवाल का जैसे बचाव किया, वह बहुत शर्मनाक था जबकि प्रसून ने कुमार विश्वास के स्वराज पर दिए बयान को तीन बार दिखाकर पार्टी पर जो कटाक्ष किया, वह ज्यादा विश्वसनीय लगा। वैसे, दस तक के बैकग्राउंड में जो लिखा था वही पूरी कहानी बताने के लिए काफी था- ”क्रिकेट खत्म, खेल शुरू”।
मेरा अपना नजरिया यह है कि योगेंद यादव और प्रशांत भूषण जो कर रहे हैं, ठीक कर रहे है। उनके किए में कुल भाव यह है कि ”कल के लौंडे अब हमें सिखाएंगे?” अरविंद टट्टी की ओट से जो शिकार खेल रहे हैं, उसमें प्रच्छन्न भाव है कि ”चच्चा, लौंडों से मत लगो…।” बनारसी लहजे में कहें तो आम आदमी पार्टी के भीतर कुल मिलाकर विशुद्ध लवंडई चल रही है। ऐसे में अव्वल तो हर बनारसी का राष्ट्रीय धर्म यह होना चाहिए कि इस लवंडई की जमकर वह लिहाड़ी ले। दूसरे, हर मार्क्सवादी का राष्ट्रीय कर्तव्य यह होना चाहिए कि इस अंतर्विरोध को वह और तीखा करे ताकि पार्टी का जनविरोधी चरित्र तथा यादव-भूषण की लिजलिजी लिबरल महत्वाकांक्षा- दोनों का एक साथ परदाफाश हो सके।
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